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आचार्य चाणक्य ने जीवन के मूल्यों को समझाने के साथ जीवन से जुड़े सभी पहलुओं पर वर्णन किया है. चाणक्य ने जहां दुर्जन व्यक्ति की तुलना विषैले जीवों से की है, तो वहीं उन्होंने स्त्रियों के लिए पति-आज्ञा और पतिव्रता धर्म को आभूषण बताया है. आचार्य चाणक्य ने इनकी व्याख्या अलग-अलग श्लोक में किया है, जो इस प्रकार से है-
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके ।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम् ।।"
इस श्लोक में आचार्य चाणक्य ने दुर्जन शख्स की तुलना विषैले जीवों से की है. चाणक्य कहते हैं कि जिस प्रकार सर्प, मधुमक्खी और बिच्छू विष से युक्त होते हैं उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति भी भयंकर विष से परिपूर्ण होता है. अंतर केवल इतना होता है कि सर्प का विष उसके दांत में, मधुमक्खी का मस्तक में और बिच्छू का पूंछ में होता है, जबकि दुर्जन व्यक्ति की संपूर्ण देह विषयुक्त होता है. उसके संपर्क में आनेवाला कोई भी व्यक्ति उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता है, इसलिए इंसान को दुर्जन से दूर रहना चाहिए.
पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी !
आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् !!
इस श्लोक में चाणक्य ने पति-आज्ञा और पतिव्रता धर्म को स्त्रियों का आभूषण कहा है. वे कहते हैं कि जो स्त्री पति के छोटी-छोटी आज्ञा का भी पालन करती है उसका लोक-परलोक सुधर जाता है. इसके विपरीत यदि वह पति की आज्ञा के बिना व्रत-उपवास आदि भी करती है तो पति की अकाल मृत्यु का कारण बनती है. इसलिए पत्नी को पति की आज्ञा और पतिव्रता धर्म दोनों का यथावत् पालन करना चाहिए; यही पत्नी धर्म है.
न दानैः शुद्ध्यते नारी नोपवासशतैरपि ।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तु: पादोदकैर्यथा ।।
पति सेवा समस्त शुभ कर्मों से बढ़कर होता है. इसी बात को चाणक्य ने उपयुक्त श्लोक में स्पष्ट किया है. चाणक्य कहते हैं कि जो स्त्री पतिव्रता-धर्म का पालन करते हुए पति-सेवा में निरंतर लीन रहती है, उसे दान, व्रत, तीर्थ यात्रा और पवित्र नदियों में स्नान करने की कोई आवश्यकता नहीं होती. वस्तुत: पति-सेवा रूपी तप में स्वयं को समर्पित कर वह परम पवित्र हो जाती है.
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