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Chardham Yatra 2021: शीतकाल के लिए बंद बाबा केदारनाथ के कपाट, जानें सदियों पुरानी इस परंपरा के बारे में

Chardham Yatra 2021: हिमालय में स्थित ज्योतिर्लिंग बाबा केदारनाथ के कपाट भाई दूज के मांगलिक मुहूर्त में आज सुबह आठ बजे शीतकाल के छह महीनों के लिए बंद हो गए. परंपरागत रूप से बाबा केदारनाथ के कपाट बंद करने की वैदिक और पारंपरिक प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है.

भाई दूज पर आज शीतकाल के लिए बंद हुए बाबा केदारनाथ मंदिर के कपाट भाई दूज पर आज शीतकाल के लिए बंद हुए बाबा केदारनाथ मंदिर के कपाट
संजय शर्मा
  • केदारनाथ,
  • 08 नवंबर 2021,
  • अपडेटेड 10:11 AM IST
  • अगले 6 महीने तक बंद रहेंगे केदारनाथ मंदिर के कपाट
  • कपाट बंद करने की प्रक्रिया वैदिक रीति और सदियों पुरानी

Chardham Yatra 2021: हिमालय में स्थित ज्योतिर्लिंग बाबा केदारनाथ के कपाट भाई दूज के मांगलिक मुहूर्त में आज सुबह आठ बजे शीतकाल के छह महीनों के लिए बंद हो गए. परंपरागत रूप से बाबा केदारनाथ के कपाट बंद करने की वैदिक और पारंपरिक प्रक्रिया बहुत दिलचस्प है. शीतकाल शुरू होते ही यम द्वितीया को बाबा केदारनाथ के कपाट अगले 6 महीने यानी बैसाख शुक्ल पक्ष में अक्षय तृतीया के महापर्व तक बंद रहते हैं. इस दौरान बाबा केदारनाथ की चांदी से बनी पंचमुखी उत्सव मूर्ति की पूजा लगभग 25 किलोमीटर नीचे उखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर में होती है.

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सदियों पुरानी है परंपरा 
कपाट बंद करने की प्रक्रिया वैदिक रीति और सदियों पुरानी परंपरा पर आधारित है. अन्नकूट के दिन भगवान केदारनाथ को अधकुटे अन्न से बना भोग प्रसाद अर्पित किया जाता है. रात्रि भोग अर्पित करने और आरती के बाद केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग की चार प्रहर की पूजा शुरू हो जाती है, इसमें महाशिवरात्रि की तरह पहले दूसरे तीसरे और चौथे प्रहर प्रहर की पूजा अलग-अलग विधियों और पदार्थों से की जाती है.  
चार प्रहर तक 12 घंटे लगातार चलने वाली पूजा के बाद बाबा का श्रृंगार किया जाता है. चांदी के मुख मंडल, उस पर जटा मुकुट और फूलों से भव्य श्रृंगार कर भोग अर्पित करने के बाद आरती होती है. फिर श्रृंगार उतार कर समाधि पूजा का आयोजन होता है. इसमें भगवान केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग पर सबसे पहले गाय के दूध से बनाए गए घी की मोटी परत चढ़ाई जाती है. इसके ऊपर लगभग सौ से डेढ़ सौ किलोग्राम भस्म अर्पित की जाती है. इसके ऊपर स्थानीय श्रद्धालुओं की ओर से लाए गए धान्य यानी धान और जौ चढ़ाए जाते हैं. धान्य अर्पित करने के बाद ज्योतिर्लिंग पर मखमल की बाघंबरी चादर उढ़ाई जाती है.  

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पूजा के बाद समाधि में लीन होते बाबा केदारनाथ
ऐसा माना जाता है कि चार प्रहर पूजा के बाद बाबा केदारनाथ समाधि में लीन हो जाते हैं. उनकी ऊर्जा उत्सव मूर्ति में समाहित मान ली जाती है. समाधि पूजा का समापन ज्योतिर्लिंग की आरती से होता है. आरती के साथ ही चांदी के बहुत बड़े दीपक में घी भरकर उसमें मोटी बत्ती लगाकर अखंड ज्योति प्रज्वलित कर दी जाती है. अगले 6 महीनों तक वो ज्योति जलती रहती है. ये भी अब तक एक रहस्य है कि इतनी ऊंचाई पर पहले ही ऑक्सीजन की कमी वाली केदार पुरी में, जबकि मंदिर पूरी तरह से सीलबंद होता है ये ज्योति छह महीने तक कैसे जलती रहती है. क्योंकि जब कपाट खुलते हैं तो अंदर ज्योति प्रज्वलित रहती है. रावल अखंड ज्योति को बाहर लाकर वहां उपस्थित सभी श्रद्धालुओं को इसके दर्शन कराते हैं. भोग आरती और समाधि पूजा के बाद बाबा केदारनाथ के ऊपर लगा चांदी का विशाल छत्र, सिंहासन और श्रृंगार और पूजा आरती की सभी सामग्री बाहर निकाली जाती है. मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं. 

लगाई जाती है सील 
पारंपरिक विधि के साथ ताले बंद कर उन पर बकायदा सील लगाई जाती है. ताले बंदकर उनकी चाबियां अलग-अलग लोगों को सौंप दी जाती हैं. चाबियां श्री बद्री केदार मंदिर समिति के धर्माधिकारी, टिहरी नरेश राज परिवार के प्रतिनिधि और बाबा केदार के मुख्य अर्चक यानी रावल के पास भी चाबियां रहती हैं. बैशाख शुक्ल पक्ष में अक्षय तृतीया के आसपास शुभ मुहूर्त में जब कपाट खोले जाते हैं तब पहले इन चाबियों, तालों और कपाट का पूजन होता है. फिर वैदिक ऋचाओं के पाठ के बीच कपाट खुलते हैं. बाबा केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के साथ ही जब चांदी से निर्मित बाबा केदारनाथ की पंचमुखी उत्सव मूर्ति जिसे भोग मूर्ति भी कहा जाता है, उन्हें डोली में बिठाकर वहां से नीचे की ओर प्रस्थान किया जाता है. मुख्य अर्चक जिनकी उपाधि और पदवी रावल है, उनको पारंपरिक रूप से सजे धजे घोड़े पर सवार करा कर उखीमठ तक लाया जाता है. बाबा डोली में विराजमान होकर चलते हैं और उनके मुख्य सेवक रावल जी घोड़े पर साथ-साथ चलते हैं.
  
बाबा केदारनाथ की भव्य निकलती डोली 
सदियों पुरानी परंपरा के मुताबिक जब कपाट बंद होते हैं और बाबा केदारनाथ उखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मठ मंदिर के लिए रवाना होते हैं तो बाबा का रात्रि विश्राम भी तय है. पहली रात का पड़ाव रामपुर में होता है, जो लगभग 18 किलोमीटर नीचे है. बाबा की डोली को उखीमठ के युवा अपने कंधों पर लिए पैदल ही चलते हैं. बैंड साथ में होता है स्थानीय लोग नगाड़े ढोल दमाऊं की मधुर स्वर लहरी की गूंज के बीच साथ जय जयकार करते साथ लेकर चलते हैं. पूरी घाटी सुरों और नारों जयकारों से गुंजायमान हो जाती है.  हर हर महादेव बम बम शंकर के जयकारों के साथ घाटी को गुंजायमान करते हुए बाबा की डोली नीचे उतरती है. रास्ते में पड़ने वाले गांव के लोग जब उनके गांव से डोली गुजरती है तो वह डोली की पूजा करते हैं और साथ चल रहे भक्तों का स्वागत सत्कार करते हैं. भैरव घाटी जंगल चट्टी होते हुए बाबा की डोली गौरीकुंड पहुंचती है. यहां एक संक्षिप्त पड़ाव होता है. गौरीकुंड के स्थानीय लोग बाबा का स्वागत और पूजन करते हैं. साथ चल रहे लोगों का सत्कार होने के बाद डोली सोनप्रयाग होते हुए रामपुर पहुंचती है. वहां परंपरागत रूप से बाबा केदारनाथ का रात्रि विश्राम होता है. अगले दिन सुबह बाबा की डोली गुप्तकाशी के लिए रवाना होती है.  जहां-जहां बाबा का रात्रि विश्राम होता है सेवा पूजा वैसे ही चलती है जैसे मंदिर में रोजाना की दिनचर्या होती है.  तीसरी सुबह गुप्तकाशी से रवाना होने के बाद डोली सीधी उखीमठ पहुंचती है. जहां अगले 6 महीनों के लिए ओंकारेश्वर मंदिर में बाबा की उत्सव मूर्ति और सिंहासन अवस्थित रहते हैं. यह माना जाता है कि बाबा केदारनाथ के शीतकालीन गद्दी की पूजा होती है.

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