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Bakrid 2022: क्यों मनाते हैं बकरीद? ऐसे हुई थी कुर्बानी देने की शुरुआत

Eid al Adha 2022: Eid al Adha 2022: ईद-उल जुहा पर बकरे की कुर्बानी देने की प्रथा है. बकरीद क्यों मनाते हैं? बकरीद पर ईदगाह क्यों जाते हैं? इस बारे में आर्टिकल में जानेंगे.

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aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 09 जुलाई 2022,
  • अपडेटेड 3:07 PM IST
  • बकरीद 10 जुलाई 2022 को है
  • हर साल बकरीद की तारीख बदलती रहती है

Bakrid 2022: ईद अल-अधा, धू अल-हिज्जा (Dhu al-Hijjah) के 10 वें दिन और इस्लामी कैलेंडर के 12वें महीने में मनाया जाता है. चंद्रमा की स्थिति के आधार पर प्रतिवर्ष ये तिथि बदलती रहती है. यही कारण है कि सभी देश अलग-अलग दिन ईद-उल-अजहा मनाते हैं. ईद-उल अजहा यानी बकरीद इस साल 10 जुलाई 2022 को रविवार के दिन मनाई जाएगी. ईद-उल फित्र के बाद मुसलमानों का ये दूसरा सबसे बड़ा त्योहार है. इस मौके पर ईदगाह या मस्जिदों में विशेष नमाज अदा की जाती है. इस पर्व पर इस्लाम धर्म के लोग साफ-पाक होकर नए कपड़े पहनकर नमाज पढ़ते हैं और उसके बाद कुर्बानी देते हैं. ईद-उल फि‍त्र पर जहां खीर बनाने का रिवाज है वहीं बकरीद पर बकरे की कुर्बानी (बलि) दी जाती है. बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई? पहले ईद कैसे मनाई जाती थी? 

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ऐसे हुई कुर्बानी की शुरुआत

(Image Credit : Getty images)

इस्लाम धर्म की मान्यता के हिसाब से आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद हुए. हजरत मोहम्मद के वक्त में ही इस्लाम ने पूर्ण रूप धारण किया और आज जो भी परंपराएं या तरीके मुसलमान अपनाते हैं वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त के ही हैं. लेकिन पैगंबर मोहम्मद से पहले भी बड़ी संख्या में पैगंबर आए और उन्होंने इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया. कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबरों में से एक थे हजरत इब्राहिम. इन्हीं के दौर से कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ.

हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे. उनके बेटे का नाम इस्माइल था. हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को बहुत प्यार करते थे. एक दिन हजरत इब्राहिम को ख्वाब आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान कीजिए. इस्लामिक जानकार बताते हैं कि ये अल्लाह का हुक्म था और हजरत इब्राहिम ने अपने प्यारे बेटे को कुर्बान करने का फैसला लिया.

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हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी. लेकिन इस्माइल की जगह एक बकरा आ गया. जब हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उनके बेटे इस्माइल सही-सलामत खड़े हुए थे. कहा जाता है कि ये महज एक इम्तेहान था और हजरत इब्राहिम अल्लाह के हुकुम पर अपनी वफादारी दिखाने के लिए बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने को तैयार हो गए थे.  इस तरह जानवरों की कुर्बानी की यह परंपरा शुरू हुई.

बकरीद के दिन कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है. एक खुद के लिए, दूसरा सगे-संबंधियों के लिए और तीसरा गरीबों के लिए.
 
पैगंबर मोहम्मद के दौर में नमाज अदा होनी शुरू हुई

हजरत इब्राहिम के जमाने में जानवरों की कुर्बानी तो शुरू हुई लेकिन बकरीद आज के दौर में जिस तरह मनाई जाती है वैसे उनके वक्त में नहीं मनाई जाती थी. आज जिस तरह मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज पढ़ी जाती है वैसे हजरत इब्राहिम के जमाने में नहीं पढ़ी जाती थी. ईदगाह जाकर नमाज अदा करने का यह तरीका पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही शुरू हुआ.

इस मसले पर इस्लामिक जानकार मौलाना हामिद नोमानी बताते हैं, ''आज जिस अंदाज में ईद मनाई जाती है वो पैगंबर मोहम्मद के वक्त में शुरू हुई थी. हजरत इब्राहिम के वक्त में कुर्बानी की शुरुआत हुई लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने का सिलसिला पैगंबर मोहम्मद के दौर में ही आया. पैगंबर मोहम्मद के नबी बनने के करीब डेढ़ दशक बाद ये तरीका अपनाया गया. उस वक्त पैगंबर मोहम्मद मदीना आ गए थे.''

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नमाज के लिए ईदगाह क्यों जाते हैं, इस सवाल पर मौलाना नोमानी बताते हैं कि मस्जिद या ईदगाह दोनों की जगह ईद की नमाज पढ़ी जा सकती है. लेकिन ईदगाह जाकर नमाज अदा करना अच्छा तरीका माना जाता है. ऐसा इसलिए है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका कल्चर क्या है, उनका निजाम क्या है, वो कौन हैं. ईदगाह पर नमाज पढ़ने के अलावा एक-दूसरे से गले लगकर बधाई देने का भी रिवाज है.


 

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