
भारत में रमजान के महीने की शुरुआत की शुरुआत मंगलवार को चांद निकलने के साथ हो गई है. देश भर के मुस्लिम समुदाय के लोगों ने अपना पहला रोजा 14 अप्रैल यानी आज से शुरू किया है. इस्लाम के मानने वाले हर बालिग शख्स पर रोजा फर्ज यानी जरूरी होता है. रमजान के इस पवित्र महीने में मुसलमान लोग रोजा रखते हैं. इस दौरान सूरज निकलने से लेकर सूर्यास्त तक कुछ भी खाया-पिया नहीं जाता है.
इस्लामिक स्कॉलर डॉ. जिशान मिस्बाही कहते हैं कि रोजा रखने में शिया और सुन्नी मुस्लिम में किसी तरह के तौर तरीके का कोई फर्क नहीं है और न ही देवबंदी और बरेली में किसी तरह का कोई अंतर है. हालांकि सहरी और इफ्तार के समय में जरूर दोनों ही संप्रदायों के मानने वालों में अंतर होता है. डा. जिशान की बात से जमात-ए-इस्लामी हिंद के सरिया काउंसिल के मौलाना रजियुल इस्लाम नदवी भी सहमत हैं.
डॉ. जिशान और मौलाना रजिउल इस्लाम दोनों ही इस्लामिक स्कॉलर कहते हैं कि मिसाल के तौर पर सुन्नी मुस्लिम अपना रोजा सूरज छिपने पर खोलते हैं. मतलब उस वक्त सूरज बिल्कुल दिखना नहीं चाहिए. वहीं, शिया मुस्लिम आसमान में पूरी तरह अंधेरा होने तक इंतजार करते हैं और उसी के बाद रोजा खोलते हैं. सुन्नी मुस्लिम रोजा खोलकर मगरिब की नमाज पढ़ता है जबकि शिया नमाज पढ़कर रोजा खोलता है. ऐसे ही तड़के में सहरी के दौरान सुन्नी मुस्लिम से 10 मिनट पहले ही शिया मुस्लिम के खाने का वक्त खत्म हो जाता है. डॉ. जिशान मिस्बाही कहते हैं कि यह दोनों बातें कुरान से साबित हैं. ऐसे में इसीलिए कोई मतभेद नहीं है.
रमजान में तराबी नमाज क्यों नहीं पढ़ते शिया मु्स्लिम
रमजान के महीने में एक विशेष नमाज पढ़ी जाती है, जिसे तराबी नमाज कहते हैं. इस तराबी नमाज को सुन्नी समुदाय के लोग रात में ईशा की नमाज के बाद पढ़ते हैं जबकि शिया समुदाय के लोग इस नमाज को नहीं पढ़ते हैं. हालांकि, सुन्नी समुदाय के बीच तराबी की नमाज के रकात को लेकर मतभेद हैं. हनफी मसलक के लोग तराबी की नमाज 20 रकात पढ़ते हैं तो अहले हदीस के मानने वाले लोग तराबी की महज आठ रकात नमाज पढ़ते हैं.
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डॉ. जिशान मिस्बाही कहते हैं कि रमजान के महीने में पढ़ी जाने वाली तराबी नमाज की शुरूआत इस्लाम में जमात के साथ पैंगबर मोहम्मद साहब के जमाने में नहीं हुई थी बल्कि हजरत उमर के दौर में हुई है. रमजान के महीने में महज तीन रातों को पैंगबर के नमाज पढ़ने की सनद मिलती है, जिसे हजरत आयशा ने भी माना है. ऐसे में नबी कितने रकात नमाज पढ़ा करते थे, उसके लिहाज से कहीं आठ, कही दस का जिक्र है.
ऐसे में नबी के वफात के बाद कुछ लोग रमजान की रात में नमाज पढ़ा करते थे, जिसे हजरत उमर ने देखा तो उन्होंने इस नमाज की परंपरा को जमात के साथ शुरू कर दिया था, लेकिन शिया समुदाय इस बात से सहमत नहीं है. इसीलिए वो रमजान के महीने में तराबी नमाज नहीं पढ़ते हैं. डा. जिशान कहते हैं कि तराबी की नमाज फर्ज नहीं है बल्कि नफ्ल नमाज है. ऐसे में शिया समुदाय के न पढ़ने से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह नमाज हजरत के उमर के दौर से शुरू हुई है.
कितने अलग होते हैं शिया और सुन्नी मुस्लिम
मुसलमान मौटे तौर पर शिया और सुन्नी दो समुदायों में बंटे हैं. ये दोनों ही मुस्लिम समुदाय इस्लाम के बुनियादी पांचों उसूलों के साथ-साथ कुरआन और अल्लाह के पैगंबर मुहम्मद तक एक राय रखते हैं. शिया और सुन्नी पैगंबर मोहम्मद के निधन के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन करेगा. इसीलिए दोनों में अलग राय पैगंबर के बाद उनके वारिस पर है, जिस वजह से दोनों ही संप्रदाय में कई मुद्दों पर वैचारिक मतभेद हैं. दोनों ही समुदाय के नमाज के तौर तरीकों से लेकर अजान तक में फर्क है.
सुन्नी मुसलमान- सुन्नी शब्द 'अहल अल-सुन्ना' से बना है, जिसका अर्थ परंपरा को मानने वाले लोग. इस मामले में परंपरा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैगंबर मोहम्मद साहब और उनके करीबियों के व्यवहार या सोच पर आधारित हो. सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका जिक्र कुरान में किया गया है, लेकिन साथ ही अंतिम पैगंबर मोहम्मद साहब थे. इनके बाद हुए सभी मुस्लिम खलीफाओं को दुनिया की अहम शख्सियत के रूप में देखते हैं.
शिया मुस्लिम- इस्लामी इतिहास में शिया शुरूआती दौर में राजनीतिक समूह के रूप में थे, जिसे 'शियत अली' यानी अली की पार्टी. शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार हजरत अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैगंबर मोहम्मद के दामाद थे और चचेरे भाई भी थे. इस्लाम में खिलाफत को लेकर ही हजरत अली और उनके दोनों बेटे हसन-हुसैन शहीद हुए. हुसैन की मौत करबला के जंग में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को जहर दिया गया था. इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को महत्व दिया जाता है.
सुन्नी मुस्लिम समुदाय के लोग कुरान, हदीस और पैंगबर को इस्लाम का मार्गदर्शक मानते हैं. वहीं, शिया समुदाय पैंगबर और उनकी फैमिली, जो उनकी बेटी हजरत फातिमा और उनके पति हजरत अली से शुरू होती है. शिया मुस्लिम उन्हें इस्लाम का मार्ग दर्शक मानते हैं, जिन्हें वो अहलेबैत कहते हैं. पैंगबर के बाद अहलेबैत को इस्लाम के असल वारिस मानते हैं. शिया समुदाय अहलेबैत की शिक्षाओं के आधार पर सुन्नी मुसलमानों से अलग अपना शरियत फिके जफरिया बना रखा है. कुरान और फिके जफरिया के आधार पर ही शिया समुदाय सारे इस्लामिक क्रियाकलाप करते हैं. वहीं, सुन्नी मुसलमान कुरान के साथ-साथ तिर्मीजि, बुखरी शरीफ, मुस्लिम, इबनेमाजा मिस्कात हदीस और पैंगबर मोहम्मद साहब के बताई बातों पर अपनी धार्मिक क्रियाकलाप करते हैं.
क्या होते हैं देवबंदी और बरेलवी मुस्लिम
देवबंदी और बरेलवी दोनों ही सुन्नी मुस्लिम से हैं और इन दोनों ही फिरकों की शुरुआत बीसवीं सदी में भारत के उत्तर प्रदेश से हुई. देवंबदी फिरके मानने वालों का केंद्र यूपी के सहारनपुर के देवबंद कस्बे में स्थिति है, जिसकी बुनिया मौलाना अशरफ अली थानवी, मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना कासिम ननोतवी ने की जबकि बरेली फिरके की शुरू मौलाना अहमद रजा खां बरेलवी ने की थी.
हालांकि, बरेलवी-देवबंदी दोनों ही फिरके इमाम अबु हनीफा के तौर तरीके को मानते हैं और उनके तौर-तरीके का पालन करते हैं. इसके बावजूद दोनों ही फिरकों में कई बातों को लेकर विवाद और मतभेद हैं. उदाहारण के तौर पर बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैगंबर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी. वह हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं. मतलब पैगंबर को इल्मे गैब था. वहीं, देवबंदी विचारधारा के लोग इसमें विश्वास नहीं रखते.
देवबंदी अल्लाह के बाद पैगंबर मोहम्मद को दूसरे स्थान पर रखते हैं, लेकिन उन्हें इल्म गैब था इस बात पर समहत नहीं हैं. बरेलवी सूफी इस्लाम को मानते हैं और मजार पर जाने और चादर चढ़ाने को जायज मानते हैं, लेकिन देवबंदी मजार और चादरपोशी को बुत परस्ती के तौर पर देखते हैं. हालांकि, दोनों के बीच इस्लाम के मूलभूत पांच सिद्धांतों को लेकर किसी तरह का कोई मतभेद नहीं है.