धरती पर बसे जन्नत से रूबरू करवाने वाला कश्मीर आज अपनी खूबसूरत वादियों से ज्यादा अनुच्छेद 370 को लेकर सुर्खियों में बना हुआ हैं. मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाने का एतिहासिक फैसला लिया तो देश का बड़ा तबके ने इसे सराहा तो चंद लोग इस निर्णय को लेकर निराश भी नजर आए. भारत पाकिस्तान के बीच झूलते कश्मीर का इतिहास बेहद खास और खूबसूरत है.
कश्मीर का इतिहास खंखालने पर आपको भारत की ही तरह इसमें हिंदू, मुस्लिम और
ईसाई जैसे सभी धर्मों की झलक साफ देखने को मिलेगी. जिसे देखकर कोई भी कह
सकता है कि कश्मीर भी अंखड भारत का ही हिस्सा है. आइए जानते हैं कैसे इस
खूबसूरत धरती का इतिहास हजरत बल और ईसा से जुड़ा हुआ है.
रौजाबल-
कश्मीर में श्रीनगर के डाउनटाउन इलाके में एक इमारत है. इस इमारत को रौजाबल के नाम से पहचाना जाता है. रौजाबल एक गली के नुक्कड़ पर पत्थर से बनी एक साधारण सी इमारत है. इस जगह के इतिहास में ऐसे लोगों की भी दिलचस्पी है, जो कश्मीर के भूगोल में कोई इंट्रेस्ट नहीं रखते. दावा किया जाता है कि ये रोज़ाबल श्राइन, ईसा मसीह की कब्र है. वैसे रौज़ा का अर्थ होता है कब्र और बल का मतलब जगह होता है.
रौजाबल-
ऐसी मान्यता है कि ईसा मसीह ने सूली से बचकर 2000 साल पहले अपनी ज़िंदगी के
बाकी दिन कश्मीर में ही गुज़ारे थे. जिसके बाद श्रीनगर में उनकी एक मजार
बना दी गई. जो आज विदेशियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुकी है. ईसा
मसीह की 13 से 30 साल की उम्र के बीच की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. कई
लोग दावा करते हैं कि इस बीच वे हिंदुस्तान आए और बुद्ध के प्रभाव में रहे.
ईसा की शिक्षाओं में कई जगहों पर बुद्ध की बातों के साथ समानताओं को इसका
आधार बनाया जाता है.
हजरतबल दरगाह-
हजरतबल दरगाह जम्मू कश्मीर के श्रीनगर शहर में स्थित एक प्रसिद्ध दरगाह है. मान्यता है कि इस दरगाह में इस्लाम के नबी, पैगम्बर मुहम्मद, का एक दाढ़ी का बाल रखा हुआ है, जिस से लाखों लोगों की आस्थाएं जुड़ी हुई हैं. कश्मीरी भाषा में 'बल' का अर्थ 'जगह' होता है, और हजरतबल का अर्थ है 'हजरत (मुहम्मद) की जगह'. हजरतबल डल झील की बाई ओर स्थित है और इसे कश्मीर का सबसे पवित्र मुस्लिम तीर्थ माना जाता है. फारसी भाषा में 'बाल' को 'मू' या 'मो' कहा जाता है, इसलिए हज़रतबल में सुरक्षित बाल को 'मो-ए-मुक़द्दस' या 'मो-ए-मुबारक' (पवित्र बाल) भी कहा जाता है.
हजरतबल दरगाह-
हज़रतबल को लेकर यह मान्यता है कि पैगम्बर मुहम्मद के वंशज सय्यद अब्दुल्लाह साल 1635 में मदीना से चलकर भारत आए और यहां के आधुनिक कर्नाटक राज्य के बीजापुर क्षेत्र में बस गए थे. अपने साथ वह इस पवित्र केश को भी लेकर आए थे. जब सय्यद अब्दुल्लाह का स्वर्गवास हुआ तो उनके पुत्र, सय्यद हामिद, को यह पवित्र केश विरासत में मिला. उसी काल में मुग़ल साम्राज्य का उस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा हो गया और सय्यद हामिद की ज़मीन-सम्पत्ति छीन ली गई.
हजरतबल दरगाह-
मजबूर होकर उन्हें यह पवित्र-वस्तु एक धनवान कश्मीरी व्यापारी, ख़्वाजा
नूरुद्दीन एशाई को बेचनी पड़ी. व्यापारी द्वारा इस लेनदेन के पूरा होते ही
इसकी भनक मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब तक पहुंच गई, जिसपर यह बाल नूरुद्दीन एशाई
से छीनकर अजमेर शरीफ़ में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भेज दिया गया और
व्यपारी को बंदी बना लिया गया. कुछ अरसे बाद औरंगज़ेब का मन बदल गया और
उसने बाल नूरुद्दीन एशाई को वापस करवाया और उसे कशमीर ले जाने की अनुमति दे
दी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और नूरुद्दीन एशाई ने कारावास में ही
दम तोड़ दिया था.
हजरतबल दरगाह-
पवित्र बाल उनके शव के साथ साल 1700 में कश्मीर ले जाया
गया जहां उनकी बेटी, इनायत बेगम, ने पवित्र वस्तु के लिये दरगाह बनवाई.
इनायत बेगम का विवाह श्रीनगर की बान्डे परिवार में हुआ था इसीलिए तब से इसी
बान्डे परिवार के वंशज इस पवित्र केश की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार हो
गए.
महाराज हरि सिंह-
महाराज हरि सिंह का जन्म 21 सितंबर 1895 को जम्मू में हुआ था. जबकि मत्यु 26 अप्रैल 1961 मुंबई में हुई. महाराजा हरि सिंह जम्मू और कश्मीर रियासत के अंतिम शासक महाराज थे. वे महाराज अमर सिंह के सबसे छोटे पुत्र थे. हरि सिंह को जम्मू-कश्मीर की राजगद्दी अपने चाचा, महाराज प्रताप सिंह से वीरासत में मिली थी. उन्होंने अपने जीवनकाल में चार विवाह किए थे.
महाराज हरि सिंह-
हरि सिंह, डोगरा शासन के अंतिम राजा थे जिन्होंने जम्मु के राज्य को एक सदी
तक जोड़े रखा. जम्मु राज्य ने 1947 तक स्वायत्ता और आंतरिक सपृभुता का
आनंद लिया. यह राज्य न केवल बहुसांस्कृतिक और बहुधमी॔ था, इसकी दूरगामी
सीमाएं इसके दुर्जेय सैन्य शक्ति तथा अनोखे इतिहास का सबूत हैं. हरि सिंह
ने २६ अक्तुबर १९४७ को परिग्रहन के साधन पर हस्ताक्षर किए और इस प्रकार
अपने जम्मु राज्य को भारत के अधिराज्य से जोड़ा.
महाराज हरि सिंह-
हरि सिंह ने नेहरु जी तथा
सरदार पटेल के कहने पर १९४९ में अपने पुत्र तथा वारिस युवराज करन सिंह को
जम्मु का राज-प्रतिनिधि नियुक्त किया. उन्होंने अपने जीवन के आखरी पल जम्मु
में अपने हरि निवास महल में बिताए. उनकी मृत्यु २६ अप्रैल १९६१ को मुंबई
में हुई. उनकी इच्छानुसार उनकी राख को जम्मु लाकर तवि नदी में बहा दिया
गया.