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अध्यात्म

Chhath Puja 2020: इस गांव में द्रौपदी ने की थी छठ मइया की पूजा, भीम का था ससुराल

aajtak.in
  • 18 नवंबर 2020,
  • अपडेटेड 9:06 AM IST
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बिहार-झारखंड का महापर्व छठ (Chhath Puja 2020) अब देश के कई अलग-अलग हिस्सों में मनाए जाने लगा है. इस बार छठ पर्व 18 नवंबर से 21 नंवबर तक मनाया जाएगा, जिसकी शुरुआत आज नहाए-खाए से हो गई है. क्या आप जानते हैं रांची में छठ पूजा का खास महत्व है. यहां के नगड़ी गांव में छठ का व्रत रखने वाली महिलाएं नदी या तालाब की बजाय एक कुएं में छठ की पूजा करती हैं. आइए आपको इसके पीछे की मान्यता बताते हैं.

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दरअसल मान्यता है कि इसी कुंए के पास द्रौपदी सूर्योपासना करने के साथ सूर्य को अर्घ्य भी दिया करती थी. ऐसा माना जाता है कि वनवास के दौरान पांडव झारखंड के इस इलाके में काफी दिनों तक ठहरे थे. कहते है कि एक बार जब पांडवों को प्यास लगी और दूर-दूर तक पानी नहीं मिला तब द्रौपदी के कहने पर अर्जुन ने जमीन में तीर मारकर पानी निकाला था.

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मान्यता यह भी है कि इसी जल के पास से द्रौपदी सूर्य को अर्घ्य दिया करती थी. सूर्य की उपासना कि वजह से पांडवों पर हमेशा सूर्य का आशीर्वाद बना रहा. यही कारण है कि यहां आज भी छठ का महापर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है.

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कुछ ऐसी भी मान्यताएं हैं कि इस गांव में भीम का ससुराल था और भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का जन्म भी यहीं हुआ था. एक दूसरी मान्यता के मुताबिक, महाभारत में वर्णित एकचक्रा नगरी नाम ही अपभ्रंश होकर अब नगड़ी हो गया है. स्वर्ण रेखा नदी दक्षिणी छोटाना गपुर के इसी पठारी भू-भाग से निकलती है. इसी गांव के एक छोर से दक्षिणी कोयल तो दूसरे छोर से स्वर्ण रेखा नदी का उदगम होता है.

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स्वर्ण रेखा झारखंड के इस छोटे से गांव से निकलकर ओडिशा और पश्चिम बंगाल होती हुई गंगा में मिले बिना ही सीधी समुद्र में जाकर मिल जाती है. इस नदी का सोने से भी संबंध है. जिसकी वजह से इसका नाम स्वर्ण रेखा पड़ा है. बता दें कि स्वर्ण रेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर से अधिक है.

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इसके साथ ही कोयल भी झारखंड की एक अहम और पलामू इलाके की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी है. यहां के बुजुर्ग दोनों नदियों का आपस में जुड़ा हुआ बताते है. इस कुएं से पूरब की ओर जो धार फूट जाती है, वह स्वर्ण रेखा का रूप ले लेती है और इस कुएं से जो उत्तर की ओर धार फूटती है, वह कोयल नदी का रूप ले लेती है.

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यह पर्व चार दिनों तक चलता है. इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होती है और सप्तमी को अरुण वेला में इस व्रत का समापन होता है. कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को "नहाए-खाए" के साथ इस व्रत की शुरुआत होती है. इस दिन से स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता है. दूसरे दिन को "लोहंडा-खरना" कहा जाता है. इस दिन दिन भर उपवास रखकर शाम को खीर का सेवन किया जाता है. खीर गन्ने के रस की बनी होती है.

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तीसरे दिन दिन भर उपवास रखकर डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. अर्घ्य दूध और जल से दिया जाता है. चौथे दिन बिल्कुल उगते हुए सूर्य को अंतिम अर्घ्य दिया जाता है. इसके बाद कच्चे दूध और प्रसाद को खाकर व्रत का समापन किया जाता है.

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