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अपने हाथों खुद का पिंडदान, घर-प‍र‍िवार का मोह छोड़ा... ऐसी है महाकुंभ में एक आम महिला के नागा साधु बनने की कहानी

मनोरमा ने सालों से टीवी नहीं देखा, मनोरंजन की कोई चीज उनके आसपास नहीं भटक सकती है, मौनी अमावस्या पर अपने हाथों अपना अंतिम संस्कार और पिंडदान कर वो मोह माया से मुक्त हो चुकी हैं. वो बताती हैं कि जीते जी अपना पिंडदान कर दिया इससे बड़ी मुक्तिक और क्या होगी.

संत मनोरम भारती को मिली राज राजेश्वरी की उपाध‍ि (Photo: aajtak.in/Special Permission)) संत मनोरम भारती को मिली राज राजेश्वरी की उपाध‍ि (Photo: aajtak.in/Special Permission))
मानसी मिश्रा
  • नई द‍िल्ली ,
  • 06 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:31 PM IST

सुविधा-संपन्न घर, भरा-पूरा परिवार और आराम की जिंदगी लेकिन ये सब छोड़कर मौनी अमावस्या पर महाकुंभ में अपना ही पिंडदान कर मनोरमा शुक्ला अब नागा साधु बन गई हैं. महाकुंभ में संन्यास लेकर अब उन्हें राज राजेश्ववरी की उपाध‍ि मिली है. मध्यप्रदेश के उज्जैन की रहने वाली मनोरमा की नई पहचान है संत मनोरमा भारती की. aajtak.in ने उनसे बातचीत की और जाना कि कैसे कोई महिला घर-परिवार में रहते हुए वैराग्य की राह पर चल पड़ती है. 

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मनोरमा शुक्ला कैसे बनीं संत मनोरम भारती?

मनोरमा शुक्ला की जिंदगी भी आम भारतीय लड़कियों की तरह थी. उज्जैन में बचपन बीता, 12वीं तक पढ़ाई की और फिर कानपुर में उनकी शादी हो गई और वो गृहस्थ जीवन में रम गई. 2 बच्चे हुए उनकी परवरिश और घर की देखभाल करते-करते वक्त बीत रहा था, लेकिन मन में भक्ति का भाव हमेशा से रहा, पूजा-पाठ के लिए भी वक्त निकाल लेती थीं, उनके साथ उनके पति की भी महाकाल में ऐसी आस्था कि वो अपना कारोबार कानपुर से उज्जैन शिफ्ट कर वहीं बस गए. मनोरमा बताती हैं कि गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियां पूरी करने के बाद साल 2014 में जब वो 54 साल की रही होगी, उन्होंने अपने पति के साथ दत्त अखाड़े के सामने आश्रम में रहने का फैसला किया. उन्होंने 2016 में उज्जैन में आयोजित कुंभ में संन्यास ले वैराग्य का मार्ग चुन लिया. 2017 में उनके पति का निधन हुआ तो वो अकेले ही वैराग्य के सफर पर निकल पड़ीं.  

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मनोरमा ने सालों से टीवी नहीं देखा, मनोरंजन की कोई चीज उनके आसपास नहीं भटक सकती है, मौनी अमावस्या पर अपने हाथों अपना अंतिम संस्कार और पिंडदान कर वो मोह माया से मुक्त हो चुकी हैं. वो बताती हैं कि जीते जी अपना पिंडदान कर दिया इससे बड़ी मुक्ति और क्या होगी. सुबह पांच बजे उठती हूं. नित्य कर्म के बाद मंदिर में सेवा, भजन पूजन करती हूं, जो खाने को मिलता है उसी से गुजारा करती हूं.  मनोरम भारती बताती हैं कि देश में जहां-जहां कुंभ आयोजित होता है, वो जूना अखाड़े के संतों के साथ वहां जाती हैं. संन्यास मार्ग में उनके साथ और भी महिला साधु हैं, उनके साथ ही भजन कीर्तन और पूजा-पाठ में समय बीतता है. बुल्ढाना के संत राम भारती उनके गुरु हैं.

10 साल पहले ही घर छोड़ दिया
संत मनोरमा भारती कहती हैं कि गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी आप संत की जिंदगी जी सकते हैं. मोह से खुद को दूर रखते हुए अपने गृहस्थ धर्म का पालन करना चाहिए. मन ईश्वर के लिए स्थायी भाव जरूरी है. वो बताती हैं कि साल 2016 में पति के साथ महात्माओं की शरण ली तो लगा कि यह सब दुनियादारी छोड़नी चाहिए. अब पूरा संसार ही मेरा परिवार है. भक्ति मार्ग में चलते ही शांति की अनुभूति होने लगी, मन ईश्वर की ओर बढ़ता गया और सारी इच्छाएं स्वतः खत्म होती गईं. 

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गृहस्थ आश्रम में पर‍िवार के साथ संत मनोरम भारती (बायें)

मनोरम भारती का परिवार उनके पिंडदान के वक्त भावुक हो गया, उनके बेटे अमरीश शुक्ला कहते हैं कि हमने अपनी अम्मा को दस साल पहले ही माताजी कहना शुरू कर दिया था. उनका घर पर आना जाना बहुत कम हो गया था. अब पिंडदान के बाद तो वो इधर का रुख ही नहीं करेंगी. उस दिन ऐसा एहसास हो रहा था, जैसे हमारा रिश्ता टूट रहा है लेकिन हम सभी उन पर गर्व करते हैं. 

 वो महिलाएं जो सांसारिक जीवन छोड़कर आध्यात्मिक जीवन अपनाती हैं उन्हें नागा साधु बनने के लिए कड़ी परीक्षाएं देनी पड़ती हैं. ये गेरुए रंग का कपड़ा पहनती हैं और अपने माथे पर तिलक लगाती हैं. महिला नागा साधुओं का जीवन पूजा-पाठ और ध्यान से भरा होता है. महिला नागा साधु बनने के लिए 10 से 15 साल तक ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है. पिंडदान पर इन्हें सिर मुंडन करवाना होता है. फिर पवित्र नदी में स्नान करवाकर पूरे विधि-विधान से नागा साधु बनाया जाता है. कई अखाड़ों की परंपरा के अनुसार खुद के साथ परिवार के लोगों का पिंड दान करना होता है और उन्हें सांसारिक सुख-सुविधाओं, परिवार, और व्यक्तिगत इच्छाओं का त्याग करना होता है.

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