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रामचरितमानस: भरतजी का श्रीराम को वापस लाने के लिए वन को जाना

रामचरितमानस: तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के आज उस भाग के बारे में जानेंगे जब भरतजी का श्रीराम को वापस लाने के लिए वन गए थे.

रामचरितमानस रामचरितमानस
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 11 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 11:59 AM IST

श्रीराम के वियोग में राजा दशरथ का निधन हो गया. भरतजी ने सारी प्रक्रिया की. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने जहां जैसी आज्ञा दी, वहां भरतजी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया. शुद्ध हो जाने पर विधिपूर्वक सब दान दिए. गौएं तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियां, सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए. भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गए (अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएं अच्छी तरह से पूरी हो गईं). पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती. तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी आए और उन्होंने मन्त्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया. सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गए. तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा. भरतजी को वसिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे. पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही. फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेम को निबाहा. श्रीरामचंद्रजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते-करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गए. फिर लक्ष्मणजी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गए. मुनिनाथ ने विलखकर (दुखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, होनी बड़ी बलवान है. हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं.

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ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किसपर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो. राजा दशरथ सोच करने के योग्य नहीं हैं. सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय-भोग में ही लीन रहता है. उस राजा का सोच करना चाहिए जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है. उस वैश्य का सोच करना चाहिए जो धनवान होकर भी कंजूस है, और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजीकी भक्ति करने में कुशल नहीं है. उस शूद्र का सोच करना चाहिए जो ब्राह्मणों का अपमान करने वाला, बहुत बोलने वाला, मान-बड़ाई चाहने वाला और ज्ञान का घमंड रखने वाला है. पुनः उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को छलनेवाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है. उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता. उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए जो मोहवश कर्ममार्ग का त्याग कर देता है; उस संन्यासी का सोच करना चाहिए जो दुनिया के प्रपंच में फंसा हुआ है और ज्ञान-वैराग्य से हीन है. वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं. सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करने वाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई-बन्धुओं के साथ विरोध रखने वाला है. सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है. और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता.

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कोसलराज दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है. हे भरत! तुम्हारे पिता-जैसा राजा तो न हुआ, न है और न अब होने का ही है. ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएं कहा करते हैं. हे तात! कहो, उनकी बड़ाई कोई किस प्रकार करेगा जिनके श्रीराम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न-सरीखे पवित्र पुत्र हैं? राजा सब प्रकार से बड़भागी थे. उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है. यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो. राजा ने राजपद तुमको दिया है. पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्रीरामचंद्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी. राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे. इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है. परशुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला; सब लोक इस बात के साक्षी हैं. राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी. पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ.

जो अनुचित और उचित का विचार छोड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे यहां सुख और सुयश के पात्र होकर अन्त में इन्द्रपुरी (स्वर्ग) में निवास करते हैं. राजा का वचन अवश्य सत्य करो. शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो. ऐसा करने से स्वर्ग में राजा सन्तोष पावेंगे और तुमको पुण्य और सुंदर यश मिलेगा, दोष नहीं लगेगा. यह वेद में प्रसिद्ध है और स्मृति-पुराणादि सभी शास्त्रों के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है. इसलिए तुम राज्य करो, ग्लानि का त्याग कर दो. मेरे वचन को हित समझकर मानो. इस बात को सुनकर श्रीरामचंद्रजी और जानकीजी सुख पावेंगे और कोई पंडित इसे अनुचित नहीं कहेगा. कौसल्याजी आदि तुम्हारी सब माताएं भी प्रजा के सुख से सुखी होंगी. जो तुम्हारे और श्रीरामचंद्रजी के श्रेष्ठ सम्बन्ध को जान लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा. श्रीरामचंद्रजी के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुंदर स्नेह से उनकी सेवा करना. मन्त्री हाथ जोड़कर कह रहे हैं- गुरुजी की आज्ञा का अवश्य ही पालन कीजिए. श्रीरघुनाथजी के लौट आने पर जैसा उचित हो, तब फिर वैसा ही कीजिएगा. कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्यरूप है. उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए. काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए. श्रीरघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए. और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो. हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मन्त्री और सब माताओं के सबके एक तुम ही सहारे हो.

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विधाता को प्रतिकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तुम्हारी बलिहारी जाती है. गुरु की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसी के अनुसार कार्य करो और प्रजा का पालन कर कुटुम्बियों का दुख हरो. भरतजी ने गुरु के वचनों और मन्त्रियों के अभिनन्दन (अनुमोदन) को सुना, जो उनके हृदय के लिए मानो चन्दन के समान शीतल थे. फिर उन्होंने शील, स्नेह और सरलता के रस में सनी हुई माता कौसल्या की कोमल वाणी सुनी. सरलता के रस में सनी हुई माता की वाणी सुनकर भरतजी व्याकुल हो गए. उनके नेत्र-कमल जल (आंसू) बहाकर हृदय के विरहरूपी नवीन अंकुर को सींचने लगे. (नेत्रों के आंसुओं ने उनके वियोग-दुख को बहुत ही बढ़ाकर उन्हें अत्यंत व्याकुल कर दिया.) उनकी वह दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गई. तुलसीदास जी कहते हैं- स्वाभाविक प्रेम की सीमा श्रीभरतजी की सब लोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे. धैर्य की धुरी को धारण करने वाले भरतजी धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे- गुरुजी ने मुझे सुंदर उपदेश दिया. फिर प्रजा, मन्त्री आदि सभी को यही सम्मत है. माता ने भी उचित समझकर ही आज्ञा दी है और मैं भी अवश्य उसको सिर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हूं.

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गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए. उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है. आप तो मुझे वही सरल शिक्षा दे रहे हैं, जिसके आचरण करने में मेरा भला हो. यद्यपि मैं इस बात को भलीभांति समझता हूं, तथापि मेरे हृदय को सन्तोष नहीं होता. अब आपलोग मेरी विनती सुन लीजिए और मेरी योग्यता के अनुसार मुझे शिक्षा दीजिए. मैं उत्तर दे रहा हूं, यह अपराध क्षमा कीजिए. साधु पुरुष दुखी मनुष्य के दोष-गुणों को नहीं गिनते. पिताजी स्वर्ग में हैं, श्रीसीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिए कह रहे हैं. इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम होने की आशा रखते हैं? मेरा कल्याण तो सीतापति श्रीरामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया. मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है. यह शोक का समुदाय राज्य लक्ष्मण, श्रीरामचंद्रजी और सीताजी के चरणों को देखे बिना किस गिनती में है (इसका क्या मूल्य है)? जैसे कपड़ों के बिना गहनों का बोझ व्यर्थ है. वैराग्य के बिना ब्रह्मविचार व्यर्थ है. रोगी शरीर के लिए नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं. श्रीहरि की भक्ति के बिना जप और योग व्यर्थ हैं. जीव के बिना सुंदर देह व्यर्थ है. वैसे ही श्रीरघुनाथजी के बिना मेरा सब कुछ व्यर्थ है.

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मुझे आज्ञा दीजिए, मैं श्रीरामजी के पास जाऊं! एक ही आंक (निश्चयपूर्वक) मेरा हित इसी में है. और मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाहते हैं, यह भी आप स्नेह की जड़ता (मोह) के वश होकर ही कह रहे हैं. कैकेयी के पुत्र, कुटिलबुद्धि, रामविमुख और निर्लज्ज मुझ से अधम के राज्य से आप मोह के वश होकर ही सुख चाहते हैं. मैं सत्य कहता हूं, आप सब सुनकर विश्वास करें, धर्मशील को ही राजा होना चाहिए. आप मुझे हठ करके ज्यों ही राज्य देंगे त्यों ही पृथ्वी पाताल में धंस जाएगी. मेरे समान पापों का घर कौन होगा, जिसके कारण सीताजी और श्रीरामजी का वनवास हुआ? राजा ने श्रीरामजी को वन दिया और उनके बिछुड़ते ही स्वयं स्वर्ग को गमन किया और मैं दुष्ट, जो सारे अनर्थों का कारण हूं, होश-हवास में बैठा सब बातें सुन रहा श्रीरघुनाथजी से रहित घर को देखकर और जगत का उपहास सहकर भी ये प्राण बने हुए हैं. इसका यही कारण है कि ये प्राण श्रीरामरूपी पवित्र विषय-रस में आसक्त नहीं हैं. ये लालची भूमि और भोगों के ही भूखे हैं. मैं अपने हृदय की कठोरता कहां तक कहूं? जिसने वज्र का भी तिरस्कार करके बड़ाई पाई है. कारण से कार्य कठिन होता ही है, इसमें मेरा दोष नहीं. हड्डी से वज्र और पत्थर से लोहा भयानक और कठोर होता है.

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कैकेयी से उत्पन्न देह में प्रेम करने वाले ये प्राण पूरी तरह से अभागे हैं. जब प्रिय के वियोग में भी मुझे प्राण प्रिय लग रहे हैं तब अभी आगे मैं और भी बहुत कुछ देखूं-सुनूंगा. लक्ष्मण, श्रीरामजी और सीताजी को तो वन दिया; स्वर्ग भेजकर पति का कल्याण किया; स्वयं विधवापन और अपयश लिया; प्रजा को शोक और सन्ताप दिया; और मुझे सुख, सुंदर यश और उत्तम राज्य दिया! कैकेयी ने सभी का काम बना दिया! इससे अच्छा अब मेरे लिए और क्या होगा? उसपर भी आप लोग मुझे राजतिलक देने को कहते हैं! कैकेयी के पेट से जगत में जन्म लेकर यह मेरे लिए कुछ भी अनुचित नहीं है. मेरी सब बात तो विधाता ने ही बना दी है. फिर उसमें प्रजा और पंच (आप लोग) क्यों सहायता कर रहे हैं? जिसे कुग्रह लगे हों (अथवा जो पिशाचग्रस्त हो), फिर जो वायुरोग से पीड़ित हो और उसी को फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाय, तो कहिए यह कैसा इलाज है! कैकेयी के लड़के के लिए संसार में जो कुछ योग्य था, चतुर विधाता ने मुझे वही दिया. पर ‘दशरथजीका पुत्र' और 'राम का छोटा भाई' होने की बड़ाई मुझे विधाता ने व्यर्थ ही दी. आप सब लोग भी मुझे टीका कढ़ाने के लिए कह रहे हैं! राजा की आज्ञा सभी के लिए अच्छी है. मैं किस-किसको किस-किस प्रकार से उत्तर दूं? जिसकी जैसी रुचि हो, आपलोग सुखपूर्वक वही कहें.

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मेरी कुमाता कैकेयी समेत मुझे छोड़कर, कहिए, और कौन कहेगा कि यह काम अच्छा किया गया? जड़-चेतन जगत में मेरे सिवा और कौन है जिसको श्रीसीतारामजी प्राणों के समान प्यारे न हों, जो परम हानि है, उसी में सबको बड़ा लाभ दिख रहा है. मेरा बुरा दिन है किसी का दोष नहीं. आप सब जो कुछ कहते हैं सो सब उचित ही है. क्योंकि आप लोग संशय, शील और प्रेम के वश हैं. श्रीरामचंद्रजी की माता बहुत ही सरलहृदय हैं और मुझपर उनका विशेष प्रेम है. इसलिए मेरी दीनता देखकर वे स्वाभाविक स्नेहवश ही ऐसा कह रही हैं. गुरुजी ज्ञान के समुद्र हैं, इस बात को सारा जगत जानता है, जिनके लिए विश्व हथेली पर रखे हुए बेर के समान है, वे भी मेरे लिए राजतिलक का साज सज रहे हैं. सत्य है, विधाता के विपरीत होने पर सब कोई विपरीत हो जाते हैं. श्रीरामचंद्रजी और सीताजी को छोड़कर जगत में कोई यह नहीं कहेगा कि इस अनर्थ में मेरी सम्मति नहीं है. मैं उसे सुखपूर्वक सुनूंगा और सहूंगा. क्योंकि जहां पानी होता है, वहां अन्त में कीचड़ होता ही है. मुझे इसका डर नहीं है कि जगत मुझे बुरा कहेगा और न मुझे परलोक का ही सोच है. मेरे हृदय में तो बस, एक ही दावानल धधक रहा है कि मेरे कारण श्रीसीतारामजी दुखी हुए. जीवन का उत्तम लाभ तो लक्ष्मण ने पाया, जिन्होंने सब कुछ तजकर श्रीरामजी के चरणों में मन लगाया. मेरा जन्म तो श्रीरामजी के वनवास के लिए ही हुआ था. मैं अभागा झूठ-मूठ क्या पछताता हूं?

मुझे दूसरा कोई उपाय नहीं सूझता. श्रीरामजी के बिना मेरे हृदय की बात कौन जान सकता है? मन में एक ही आंक (निश्चयपूर्वक) यही है कि प्रातःकाल प्रभु श्रीरामजी के पास चल दूंगा. यद्यपि मैं बुरा हूं और अपराधी हूं, और मेरे ही कारण यह सब उपद्रव हुआ है, तथापि श्रीरामजी मुझे शरण में सम्मुख आया हुआ देखकर सब अपराध क्षमा करके मुझपर विशेष कृपा करेंगे. श्रीरघुनाथजी शील, संकोच, अत्यंत सरल स्वभाव, कृपा और स्नेह के घर हैं. श्रीरामजी ने कभी शत्रु का भी अनिष्ट नहीं किया. मैं यद्यपि टेढ़ा हूं पर हूं तो उनका बच्चा और गुलाम ही. आप पंच (सब) लोग भी इसी में मेरा कल्याण मानकर सुंदर वाणी से आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए, जिसमें मेरी विनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर श्रीरामचंद्रजी राजधानी को लौट आवें. यद्यपि मेरा जन्म कुमाता से हुआ है और मैं दुष्ट तथा सदा दोषयुक्त भी हूं, तो भी मुझे श्रीरामजी का भरोसा है कि वे मुझे अपना जानकर त्यागेंगे नहीं. भरतजी के वचन सबको प्यारे लगे.

श्रीरामवियोगरूपी भीषण विष से सब लोग जले हुए थे. वे मानो बीज सहित मन्त्र को सुनते ही जाग उठे. माता, मन्त्री, गुरु, नगर के स्त्री-पुरुष सभी स्नेह के कारण बहुत ही व्याकुल हो गए. सब भरतजी को सराह-सराहकर कहते हैं कि आपका शरीर श्रीरामप्रेम की साक्षात मूर्ति ही है. हे तात भरत! आप ऐसा क्यों न कहें. श्रीरामजी को आप प्राणों के समान प्यारे हैं. जो नीच अपनी मूर्खता से आपकी माता कैकेयी की कुटिलता को लेकर आपपर सन्देह करेगा, वह दुष्ट करोड़ों पुरखों सहित सौ कल्पों तक नरक के घर में निवास करेगा. सांप के पाप और अवगुण को मणि नहीं ग्रहण करती. बल्कि वह विष को हर लेती है और दुख तथा दरिद्रता को भस्म कर देती है. हे भरतजी! वन को अवश्य चलिए, जहां श्रीरामजी हैं; आपने बहुत अच्छी सलाह विचारी. शोकसमुद्र में डूबते हुए सब लोगों को आपने बड़ा सहारा दे दिया. सबके मन में कम आनंद नहीं हुआ (अर्थात बहुत ही आनंद हुआ)! मानो मेघों की गर्जना सुनकर चातक और मोर आनन्दित हो रहे हों. दूसरे दिन प्रातःकाल चलने का सुंदर निर्णय देखकर भरतजी सभी को प्राणप्रिय हो गए. मुनि वसिष्ठजी की वन्दना करके और भरतजी को सिर नवाकर, सब लोग विदा लेकर अपने-अपने घर को चले. जगत में भरतजी का जीवन धन्य है, इस प्रकार कहते हुए वे उनके शील और स्नेह की सराहना करते जाते हैं. आपस में कहते हैं, बड़ा काम हुआ. सभी चलने की तैयारी करने लगे. जिसको भी घर की रखवाली के लिए रहो, ऐसा कहकर रखते हैं, वही समझता है मानो मेरी गर्दन मारी गई.

कोई-कोई कहते हैं- रहने के लिए किसी को भी मत कहो, जगत में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता? वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता, पिता, भाई जल जाय जो श्रीरामजी के चरणों के सम्मुख होने में हंसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता न करे. घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियां सजा रहे हैं. हृदय में बड़ा हर्ष है कि सबेरे चलना है. भरतजी ने घर जाकर विचार किया कि नगर, घोड़े, हाथी, महल-खजाना आदि सारी सम्पत्ति श्रीरघुनाथजी की है. यदि उसकी रक्षा की व्यवस्था किए बिना उसे ऐसे ही छोड़कर चल दूं, तो परिणाम में मेरी भलाई नहीं है. क्योंकि स्वामी का द्रोह सब पापों में शिरोमणि (श्रेष्ठ) है. सेवक वही है जो स्वामी का हित करे, चाहे कोई करोड़ों दोष क्यों न दे. भरतजी ने ऐसा विचारकर ऐसे विश्वासपात्र सेवकों को बुलाया जो कभी स्वप्न में भी अपने धर्म से नहीं डिगे थे. भरतजी ने उनको सब भेद समझाकर फिर उत्तम धर्म बतलाया; और जो जिस योग्य था, उसे उसी काम पर नियुक्त कर दिया. सब व्यवस्था करके, रक्षकों को रखकर भरतजी राममाता कौसल्याजी के पास गए. स्नेह के सुजान भरतजी ने सब माताओं को आर्त (दुखी) जानकर उनके लिए पालकियां तैयार करने तथा सुखासन यान (सुखपाल) सजाने के लिए कहा.

नगर के नर-नारी चकवे-चकवी की भांति हृदय में अत्यंत आर्त होकर प्रातःकाल का होना चाहते हैं. सारी रात जागते-जागते सबेरा हो गया. तब भरतजी ने चतुर मन्त्रियों को बुलवाया. और कहा- तिलक का सब सामान ले चलो. वन में ही मुनि वसिष्ठजी श्रीरामचंद्रजी को राज्य देंगे, जल्दी चलो. यह सुनकर मन्त्रियों ने वन्दना की और तुरंत घोड़े, रथ और हाथी सजवा दिए. सबसे पहले मुनिराज वसिष्ठजी अरुन्धती और अग्निहोत्र की सब सामग्री सहित रथपर सवार होकर चले. फिर ब्राह्मणों के समूह, जो सब-के-सब तपस्या और तेज के भंडार थे, अनेकों सवारियों पर चढ़कर चले. नगर के सब लोग रथों को सजा-सजाकर चित्रकूट को चल पड़े. जिनका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी सुंदर पालकियों पर चढ़-चढ़कर सब रानियां चलीं. विश्वासपात्र सेवकों को नगर सौंपकर और सबको आदरपूर्वक रवाना करके, तब श्रीसीतारामजी के चरणों को स्मरण करके भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई चले. श्रीरामचंद्रजी के दर्शन के वश में हुए सब नर-नारी ऐसे चले मानो प्यासे हाथी-हथिनी जल को तककर बड़ी तेजी से बावले-से हुए जा रहे हों. श्रीसीतारामजी सब सुखों को छोड़कर वन में हैं, मन में ऐसा विचार करके छोटे भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी पैदल ही चले जा रहे हैं. उनका स्नेह देखकर लोग प्रेम में मग्न हो गए और सब घोड़े, हाथी, रथों को छोड़कर उनसे उतरकर पैदल चलने लगे. तब श्रीरामचंद्रजी की माता कौसल्याजी भरतजी के पास जाकर और अपनी पालकी उनके समीप खडी करके कोमल वाणी से बोलीं- हे बेटा! माता बलैयां लेती है, तुम रथपर चढ़ जाओ, नहीं तो सारा प्यारा परिवार दुखी हो जाएगा. तुम्हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलेंगे. शोक के मारे सब दुबले हो रहे हैं, पैदल चलने के योग्य नहीं हैं.

माता की आज्ञा को सिर चढ़ाकर और उनके चरणों में सिर नवाकर दोनों भाई रथपर चढ़कर चलने लगे. पहले दिन तमसा पर वास करके दूसरा मुकाम गोमती के तीरपर किया. कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते हैं. भूषण और भोग-विलास को छोड़कर सब लोग श्रीरामचंद्रजी के लिए नियम और व्रत करते हैं . रातभर सई नदी के तीरपर निवास करके सबेरे वहां से चल दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुंचे. निषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुखी होकर हृदय में विचार करने लगा- क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं, मन में कुछ कपट-भाव अवश्य है. यदि मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं. समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मणसहित श्रीराम को मारकर सुख से निष्कंटक राज करूंगा. भरत ने हृदय में राजनीति को स्थान नहीं दिया. तब (पहले) तो कलंक ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा.

सम्पूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जाएं, तो भी श्रीरामजी को रण में जीतने वाला कोई नहीं है. भरत जो ऐसा कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है? विष की बेलें अमृतफल कभी नहीं फलतीं! ऐसा विचारकर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ. नावों को हाथ में (कब्जे में) कर लो और फिर उन्हें डुबा दो तथा सब घाटों को रोक दो. सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो. मैं भरत से सामने (मैदान में) लोहा लूंगा और जीते-जी उन्हें गंगापार न उतरने दूंगा. युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्रीरामजीका काम और क्षणभंगुर शरीर; भरत श्रीरामजी के भाई और राजा (उनके हाथ से मरना) और मैं नीच सेवक बड़े भाग्य से ऐसी मृत्यु मिलती है मैं स्वामी के काम के लिए रण में लड़ाई करूंगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूंगा. श्रीरघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूंगा. मेरे तो दोनों ही हाथों में आनंद के लड्डू हैं. साधुओं के समाज में जिसकी गिनती नहीं और श्रीरामजी के भक्तों में जिसका स्थान नहीं, वह जगत में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ ही जीता है. वह माता के यौवनरूपी वृक्ष के काटने के लिए कुल्हाड़ा मात्र है.

निषादराज को जोहार कर-करके सब निषाद चले. सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राम में लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है. श्रीरामचंद्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण करके उन्होंने भाथियां (छोटे-छोटे तरकस) बांधकर धनुहियों (छोटे-छोटे धनुषों) पर प्रत्यंचा चढ़ाईं. कवच पहनकर सिरपर लोहे का टोप रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं. कोई तलवार के वार रोकने में अत्यंत ही कुशल हैं. वे ऐसे उमंग में भरे हैं मानो धरती छोड़कर आकाश में कूद रहे हों. अपना-अपना साज-समाज (लड़ाई का सामान और दल) बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुह को जोहार की. निषादराज ने सुंदर योद्धाओं को देखकर, सबको सुयोग्य जाना और नाम ले-लेकर सबका सम्मान किया. उसने कहा- हे भाइयो! धोखा न लाना (अर्थात मरने से न घबराना), आज मेरा बड़ा भारी काम है. यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोश के साथ बोल उठे- हे वीर! अधीर मत हो. हे नाथ! श्रीरामचंद्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालेंगे). जीते-जी पीछे पांव न रखेंगे. पृथ्वी को सिरों और धड़ों से छा देंगे.

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