
सीताजी की तलाश में श्रीराम भाई लक्ष्मणजी के साथ वन-वन भटक रहे हैं. श्रीराम कहते हैं- हे लक्ष्मण! जरा वन की शोभा तो देखो. इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओं के समूह सभी स्त्रीसहित हैं. मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं. हमें देखकर हिरनों के झुंड भागने लगते हैं, तब हिरनियां उनसे कहती हैं- तुमको भय नहीं है. तुम तो साधारण हिरनों से पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो. ये तो सोने का हिरन खोजने आये हैं. हाथी हथिनियों को साथ लगा लेते हैं. वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं कि स्त्री को कभी अकेली नहीं छोड़ना चाहिये. भलीभांति चिन्तन किए हुए शास्त्र को भी बार-बार देखते रहना चाहिये. अच्छी तरह सेवा किये हुए भी राजा को वश में नहीं समझना चाहिये और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाय; परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते. हे तात! इस सुन्दर वसन्त को तो देखो. प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है. मुझे विरह से व्याकुल, बलहीन और बिलकुल अकेला जानकर कामदेव ने वन, भौंरों और पक्षियों को साथ लेकर मुझपर धावा बोल दिया, परन्तु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाई के साथ हूं, तब उसकी बात सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डेरा डाल दिया है. विशाल वृक्षों में लताएं उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिये गए हैं. केला और ताड़ सुन्दर ध्वजा-पताका के समान हैं. इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता जिसका मन धीर है.
अनेकों वृक्ष नाना प्रकार से फूले हुए हैं. मानो अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण किए हुए बहुत-से तीरंदाज हों. कहीं-कहीं सुन्दर वृक्ष शोभा दे रहे हैं. मानो योद्धा लोग अलग-अलग होकर छावनी डाले हों. कोयलें कूज रही हैं, वही मानो मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं. ढेक और महोख पक्षी मानो ऊंट और खच्चर हैं. मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुन्दर ताजी (अरबी) घोड़े हैं. तीतर और बटेर पैदल सिपाहियों के झुंड हैं. कामदेव की सेना का वर्णन नहीं हो सकता. पर्वतों की शिलाएं रथ और जल के झरने नगाड़े हैं. पपीहे भाट हैं, जो गुणसमूह (विरदावली) का वर्णन करते हैं. भौंरों की गुंजार भेरी और शहनाई है. शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा मानो दूत का काम लेकर आई है. इस प्रकार चतुरंगिणी सेना साथ लिए कामदेव मानो सबको चुनौती देता हुआ विचर रहा है. हे लक्ष्मण! कामदेव की इस सेना को देखकर जो धीर बने रहते हैं, जगत में उन्हीं की वीरों में प्रतिष्ठा होती है. इस कामदेव के एक स्त्री का बड़ा भारी बल है. उससे जो बच जाय, वही श्रेष्ठ योद्धा है. हे तात! काम, क्रोध और लोभ- ए तीन अत्यन्त प्रबल दुष्ट हैं. ए विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं. लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बल है; श्रेष्ठ मुनि विचारकर ऐसा कहते हैं.
फिर प्रभु श्रीरामजी पंपा नामक सुन्दर और गहरे सरोवर के तीर पर गए. उसका जल संतों के हृदय जैसा निर्मल है. मन को हरने वाले सुन्दर चार घाट बंधे हुए हैं. भांति-भांति के पशु जहां-तहां जल पी रहे हैं. मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड़ लगी हो! घनी पुरइनों (कमल के पत्तों) की आड़ में जल का जल्दी पता नहीं मिलता. जैसे माया से ढके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता. उस सरोवर के अत्यन्त अथाह जल में सब मछलियां सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं. जैसे धर्मशील पुरुषों के सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं. उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं. बहुत से भौरे मधुर स्वर से गुंजार कर रहे हैं. जल के मुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं, मानो प्रभु को देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हों. चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियों का समुदाय देखते ही बनता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता. सुन्दर पक्षियों की बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो रास्ते में जाते हुए पथिक को बुलाए लेती हो.
उस झील (पंपासरोवर) के समीप मुनियों ने आश्रम बना रखे हैं. उसके चारों ओर वन के सुन्दर वृक्ष हैं. चम्पा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि बहुत प्रकार के वृक्ष नए-नए पत्तों और सुगन्धित पुष्पों से युक्त हैं, जिनपर भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं. स्वभाव से ही शीतल, मन्द, सुगन्धित एवं मन को हरने वाली हवा सदा बहती रहती है. कोयलें 'कुहू' 'कुहू' का शब्द कर रही हैं. उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियों का भी ध्यान टूट जाता है. फलों के बोझ से झुककर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बड़ी सम्पत्ति पाकर विनय से झुक जाते हैं. श्रीरामजी ने अत्यन्त सुन्दर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया. एक सुन्दर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्रीरघुनाथजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित बैठ गए. फिर वहां सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गए. कृपालु श्रीरामजी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजी से रसीली कथाएं कह रहे हैं.
भगवान को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेषरूप से सोच हुआ. उन्होंने विचार किया कि मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्रीरामजी नाना प्रकार के दुखों का भार सह रहे हैं. ऐसे प्रभु को जाकर देखूं. फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा. यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए हुए वहां गए, जहां प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे. वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान-बखानकर रामचरित का गान कर रहे थे. दंडवत करते देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने नारदजी को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा. लक्ष्मणजी ने आदर के साथ उनके चरण धोए. बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन्न जानकर तब नारदजी कमल के समान हाथों को जोड़कर वचन बोले- हे स्वभाव से ही उदार श्रीरघुनाथजी! सुनिए. आप सुन्दर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं. हे स्वामी! मैं एक वर मांगता हूं, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अन्तर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं. श्रीरामजी ने कहा- हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो. क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूं? मुझे ऐसी कौन-सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं मांग सकते? मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है. ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोड़ो. तब नारदजी हर्षित होकर बोले- मैं ऐसा वर मांगता हूं, यह धृष्टता करता हूं.
यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक-से-एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पापरूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो. आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है; उसमें 'राम' नाम यही पूर्ण चन्द्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदयरूपी निर्मल आकाश में निवास करें. कृपासागर श्रीरघुनाथजी ने मुनि से 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा. तब नारदजी ने मन में अत्यन्त हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया. श्रीरघुनाथजी को अत्यन्त प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था, तब मैं विवाह करना चाहता था. हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया? प्रभु बोले- हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूं कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं, मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूं जैसे माता बालक की रक्षा करती है. छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और सांप को पकड़ने जाता है तो वहां माता उसे अपने हाथों अलग करके बचा लेती है. सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परन्तु पिछली बात नहीं रहती. ज्ञानी मेरे प्रौढ़ पुत्र के समान है और तुम्हारे-जैसा अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है.
मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी को) अपना बल होता है. पर काम-क्रोधरूपी शत्रु तो दोनों के लिए हैं. भक्त के शत्रुओं को मारने की जिम्मेवारी मुझपर रहती है, क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है; परन्तु अपने बल को मानने वाले ज्ञानी के शत्रुओं का नाश करने की जिम्मेवारी मुझपर नहीं है. ऐसा विचारकर बुद्धिमान् लोग मुझको ही भजते हैं. वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते. काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है. इनमें मायारूपिणी स्त्री तो अत्यन्त दारुण दुख देने वाली है. हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोहरूपी वन के लिए स्त्री वसन्त ऋतु के समान है. जप, तप, नियमरूपी सम्पूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्मरूप होकर सर्वथा सोख लेती है. काम, क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेढक हैं. इनको वर्षा-ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र यही (स्त्री) है. बुरी वासनाएं कुमुदों के समूह हैं. उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद् ऋतु है. समस्त धर्म कमलों के झुंड हैं. यह नीच सुख देने वाली स्त्री हिम-ऋतु होकर उन्हें जला डालती है. फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्रीरूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है. पापरूपी उल्लुओं के समूह के लिए यह स्त्री सुख देने वाली घोर अन्धकारमई रात्रि है. बुद्धि, बल, शील और सत्य ये सब मछलियां हैं और उनको फंसाकर नष्ट करने के लिए स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं. युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देने वाली और सब दुखों की खान है. इसलिए हे मुनि ! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था.
श्रीरघुनाथजी के सुन्दर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए. वे मन-ही-मन कहने लगे- कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीति है, जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो, जो मनुष्य भ्रम को त्यागकर ऐसे प्रभु को नहीं भजते, वे ज्ञान के कंगाल, दुर्बुद्धि और अभागे हैं. फिर नारद मुनि आदरसहित बोले- हे विज्ञान-विशारद श्रीरामजी! सुनिए- हे रघुवीर! हे भव-भय का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए. श्रीरामजी ने कहा- हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूं, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूं. वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) छह विकारों को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), सर्वत्यागी, बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान्, योगी, सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यन्त निपुण, गुणों के घर, संसार के दुखों से रहित और सन्देहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं. मेरे चरणकमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं. सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते. सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं.
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं. उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है. वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते. सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं. हे मुनि! सुनो, संतों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते. ‘शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्रीरामजी के चरणकमल पकड़ लिए. दीनबन्धु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे. भगवान के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए. तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्रीहरि के रंग में रंग गए हैं. जो लोग रावण के शत्रु श्रीरामजी का पवित्र यश गावेंगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योग के बिना ही श्रीरामजी की दृढ़ भक्ति पावेंगे. युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन. काम और मदको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर और सदा सत्संग कर.
श्रीरघुनाथजी फिर आगे चले. ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया. वहां मन्त्रियों सहित सुग्रीव रहते थे. अतुलनीय बल की सीमा श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर सुग्रीव अत्यन्त भयभीत होकर बोले- हे हनुमान ! सुनो, ए दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं. तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो. अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना. यदि वे मन के मलिन बाली के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊं. यह सुनकर हनुमानजी ब्राह्मण का रूप धरकर वहां गए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे- हे वीर! सांवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वनमें फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलने वाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?
मन को हरण करने वाले आपके सुन्दर, कोमल अंग हैं, और आप वन के धूप और वायु को सह रहे हैं. क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश- इन तीन देवताओं में से कोई हैं, या आप दोनों नर और नारायण हैं अथवा आप जगत के मूल कारण और सम्पूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य-रूप में अवतार लिया है? श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं. हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं. हमारे साथ सुन्दर सुकुमारी स्त्री थी. यहां (वन में) राक्षस ने मेरी पत्नी जानकी को हर लिया. हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं. हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया. अब हे ब्राह्मण ! अपनी कथा समझाकर कहिए. प्रभु को पहचानकर हनुमानजी उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े (उन्होंने साष्टांग दंडवत-प्रणाम किया). फिर धीरज धरकर स्तुति की. अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है. फिर हनुमानजी ने कहा- हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में और मेरी वानरी बुद्धि, इससे मैं तो आपको पहचान न सका और अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा परन्तु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?
मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूं; इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना. एक तो मैं यों ही मन्द हूं, दूसरे मोह के वश में हूं, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूं, फिर हे दीनबन्धु भगवान्! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया! हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएं) हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है. वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है. उसपर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई करके कहता हूं कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता. सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिन्त रहता है. प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है. ऐसा कहकर हनुमानजी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े. उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया. उनके हृदय में प्रेम छा गया. तब श्रीरघुनाथजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया. फिर कहा- हे कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना). तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो. सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है और हे हनुमान! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूं और यह चराचर (जड-चेतन) जगत मेरे स्वामी भगवान का रूप है.
स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवनकुमार हनुमानजी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुख जाते रहे. उन्होंने कहा- हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहता है, वह आपका दास है. हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए. वह सीताजी की खोज करावेगा और जहां-तहां करोड़ों वानरों को भेजेगा. इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमानजी ने (श्रीराम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठपर चढ़ा लिया. जब सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी को देखा तो अपने जन्म को अत्यन्त धन्य समझा. सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदरसहित मिले. श्रीरघुनाथजी भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगकर मिले. सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये मुझसे प्रीति करेंगे? तब हनुमानजी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी. दोनों ने हृदय से प्रीति की, कुछ भी अन्तर नहीं रखा. तब लक्ष्मणजी ने श्रीरामचन्द्रजी का सारा इतिहास कहा. सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा- हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकीजी मिल जाएंगी. मैं एक बार यहां मन्त्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था. तब मैंने पराए (शत्रु) के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीताजी को आकाशमार्ग से जाते देखा था.
हमें देखकर उन्होंने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था. श्रीरामजी ने उसे मांगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया. वस्त्र को हृदय से लगाकर श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत ही सोच किया. सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए. मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूंगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें. श्रीरामजी सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए. और बोले- हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वन में किस कारण रहते हो? सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! बाली और मैं दो भाई हैं. हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती. हे प्रभु! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था. एक बार वह हमारे गांव में आया. उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर ललकारा. बाली शत्रु के बल (ललकार) को सह नहीं सका. वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा. मैं भी भाई के संग लगा चला गया. वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा. तब बाली ने मुझे समझाकर कहा- तुम एक पखवाड़े (पंद्रह दिन) तक मेरी बाट देखना. यदि मैं उतने दिनों में न आऊं तो जान लेना कि मैं मारा गया. हे खरारि! मैं वहां महीनेभर तक रहा. वहां (उस गुफा में से) रक्त की बड़ी भारी धारा निकली. तब मैंने समझा कि उसने बाली को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा. इसलिए मैं गुफा के द्वार पर एक शिला लगाकर भाग आया.
मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया. बाली उसे मारकर घर आ गया. मुझे (राजसिंहासन पर) देखकर उसने जी में भेद बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना). उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूं और यहां आकर राजा बन बैठा. उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया. हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा. वह शाप के कारण यहां नहीं आता, तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूं. सेवक का दुख सुनकर दीनों पर दया करने वाले श्री रघुनाथजी की दोनों विशाल भुजाएं फड़क उठीं. उन्होंने कहा- हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बाली को मार डालूंगा. ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे. जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है. अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने. जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे. उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे.
देने-लेने में मन में शंका न रखे. अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे. विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे. वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं. जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है. मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं. हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो. मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊंगा तुम्हारी सहायता करूंगा.