
हनुमानजी लंका से लौटकर आ चुके थे. इसके बाद जाम्बवान् ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए. हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है. देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं. वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है. उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है. प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ. आज हमारा जन्म सफल हो गया. हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता. तब जाम्बवान ने हनुमानजी के सुंदर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी को सुनाए. वे चरित्र सुनने पर कृपानिधि श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे. उन्होंने हर्षित होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?
हनुमानजी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किवाड़ है. नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएं तो किस मार्ग से? चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी. श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया.
हनुमानजी ने फिर कहा- हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे- छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना और कहना कि आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुःखों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूं. फिर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया? हां एक दोष मैं अपना अवश्य मानती हूं कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं. विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार अग्नि और पवन का संयोग होने से यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर (सुखी होने के लिए) जल (आंसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती. सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है. हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है. हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है. अतः हे प्रभु! तुरंत चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए.
सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया और वे बोले- मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है? हनुमानजी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो. हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे.
भगवान कहने लगे- हे हनुमान! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है. मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूं, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता. हे पुत्र! सुन, मैंने मन में (खूब) विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता. देवताओं के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमानजी को देख रहे हैं. नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलकित है. प्रभु के वचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंगों को देखकर हनुमानजी हर्षित हो गए और प्रेम में विकल होकर 'हे भगवन! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े.
प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमानजी को चरणों से उठना सुहाता नहीं. प्रभु का करकमल हनुमानजी के सिर पर है. हनुमानजी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निकट बैठा लिया. हे हनुमान! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमानजी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले- बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है. मैंने जो समुद्र लांघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला, यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है. हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है.
हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है. आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है). हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए. हनुमानजी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती. यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया. प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे- कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो!
तब श्री रघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा- चलने की तैयारी करो. अब विलंब किस कारण किया जाए. वानरों को तुरंत आज्ञा दो. भगवान की यह लीला (रावणवध की तैयारी) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले.
वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए. वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है. वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं. महान बलवान रीछ और वानर गरज रहे हैं. श्री रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी. तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली. राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए. तब श्री रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया. अनेक सुंदर और शुभ शकुन हुए. जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है). प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया. उनके बाएं अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे कि श्री रामजी आ रहे हैं. जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए. सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं.
नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं. वे सिंह के समान गर्जना कर रहे हैं. उनके चलने और गर्जने से दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिंग्घाड़ रहे हैं. दिशाओं के हाथी चिंग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गए (कांपने लगे) और समुद्र खलबला उठे. गंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए' कि (अब) हमारे दुःख टल गए. अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं.
'प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्रजी की जय हो' ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं. उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दांतों से पकड़ते हैं. ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दांतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्री रामचंद्रजी की सुंदर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों. इस प्रकार कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे. अनेकों रीछ-वानर वीर जहां-तहां फल खाने लगे.
लंका में जब से हनुमानजी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे. अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है. जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है. हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई. वह एकांत में हाथ जोड़कर पति (रावण) के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए. मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए. जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए. सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है. हे नाथ. सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता.
श्री रामजी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेंढक के समान. जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए. मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हंसा और बोला- स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है. मंगल में भी भय करती हो. तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है. यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे. लोकपाल भी जिसके डर से कांपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हंसी की बात है.
रावण ने ऐसा कहकर हंसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया. मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए. ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है, उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए अब क्या करना चाहिए?. तब वे सब हंसे और बोले कि चुप किए रहिए. इसमें सलाह की कौन सी बात है? आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ. फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?
मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या (लाभ की) आशा से हित की बात न कहकर प्रिय बोलते हैं, तो (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है. रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है. मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुंह पर) स्तुति करते हैं. इसी समय अवसर जानकर विभीषणजी आए. उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया. फिर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोले- हे कृपाल जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूं- जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे). चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता. हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचंद्रजी को भजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं.
हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं. वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं. वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार) भगवान् हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं. उन कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है. हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं. वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए. वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं. हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए. जिसे संपूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते. जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं. हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए. हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूं और विनती करता हूं कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए.
मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है. हे तात! सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी. माल्यवान नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था. उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना और कहा- हे तात! आपके छोटे भाई नीति विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात् नीतिमान्) हैं. विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए.
रावण ने कहा- ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं. यहां कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे- हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहां सुबुद्धि है, वहां नाना प्रकार की संपदाएं (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहां कुबुद्धि है वहां परिणाम में विपत्ति रहती है. आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है. इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं. जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि (के समान) हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है. हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख मांगता हूं (विनती करता हूं). कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए) श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो.
विभीषण ने पंडितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही. पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है! अरे मूर्ख! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ (अर्थात मेरे ही अन्न से पल रहा है), पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है. अरे दुष्ट! बता न, जगत में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो? मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपस्वियों पर. मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता. ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी, परंतु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकड़े.
विभीषणजी ने कहा- आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है. इतना कहकर विभीषण अपने मंत्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे- श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है. अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूं, मुझे दोष न देना. ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई). रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया.
विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले. वे सोचते जाते थे- मैं जाकर भगवान के कोमल और लाल वर्ण के सुंदर चरण कमलों के दर्शन करूंगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं और जो दंडकवन को पवित्र करने वाले हैं. जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकड़ने को) दौड़े थे और जो चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूंगा.
जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूंगा. इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए. वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है. उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए.
सुग्रीव ने (श्री रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई (आप से) मिलने आया है. प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती. यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है. जान पड़ता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बांध रखा जाए. (श्री रामजी ने कहा-) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना! प्रभु के वचन सुनकर हनुमान जी हर्षित हुए और मन ही मन कहने लगे क) भगवान कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भांति प्रेम करने वाले) हैं. श्री रामजी फिर बोले- जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी पाप लगता है.
जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आनेपर मैं उसे भी नहीं त्यागता. जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं. पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता. यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था? जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है. मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते. यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है. क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरे शरण आया है तो मैं उसे प्राणों की तरह रखूंगा. कृपा के धाम श्रीरामजी ने हंसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ. तब अंगद और हनुमान सहित सुग्रीवजी 'कृपालु श्रीरामकी जय हो' कहते हुए चले.
विभीषणजी को आदरसहित आगे करके वानर फिर वहां चले, जहां करुणा की खान श्रीरघुनाथजी थे. नेत्रों को आनन्द का दान देने वाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा. फिर शोभा के धाम श्रीरामजी को देखकर वे पलक मारना रोककर ठिठककर स्तब्ध होकर एकटक देखते ही रह गए. भगवान की विशाल भुजाएं हैं, लाल कमलके समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला सांवला शरीर है. सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है. असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है. भगवान के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया.
फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे- हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूं. हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है. मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है. मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूं कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं. हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए. प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे.
विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए. उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया. छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो. तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है. दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो. (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूं. तुम अत्यंत नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती. हे तात! नरक में रहना वरन अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे.
विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूं, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है. तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता. लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते. ममता पूर्ण अंधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है. वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता.
हे श्री रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूं, मेरे भारी भय मिट गए. हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते. मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूं. मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया. जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया. हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा.
श्री रामजी ने कहा- हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूं, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं. कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए, और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूं. माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार. इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है. (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है. ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है. तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं. मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता. जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं. हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं. इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो.
श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो. प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं. वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है. विभीषणजी ने कहा- हे देव! हे चराचर जगत् के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी. वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई. अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए. 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल मांगा. और कहा- हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत् में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता). ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया. आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई.
श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया. शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी. ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूंछ के पशु हैं. अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया. प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया. फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले- हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, सांप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है.
यह सुनकर श्री रघुवीर हंसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो. ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए. विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है, तथापि नीति ऐसी कही गई है कि पहले जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए. हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे. तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी. श्री रामजी ने कहा- हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया. यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों. यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी. श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया.
लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए. यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है. आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं. उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया. फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए. इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे. कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएं देखीं. वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे.
फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया. सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बांधकर सुग्रीव के पास ले आए. सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो. सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े. दूतों को बांधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया. वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे. वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा.
तब दूतों ने पुकारकर कहा- जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है. यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया. उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हंसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया. और उनसे कहा- रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना और कहना- हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों को बांचो. फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो). लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए. श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए.