
सुग्रीव की वानरसेना सीताजी की तलाश में निकल पड़ी थी. इसी बीच प्रभु श्रीराम ने पवनसुत श्री हनुमानजी को अपने पास बुलाया. उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अंगूठी उतारकर दी. और कहा- बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना. हनुमानजी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले.
यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं अर्थात नीति की मर्यादा रखने के लिए सीताजी का पता लगाने को जहां-तहां वानरों को भेज रहे हैं. सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की कन्दराओं में खोजते हुए चले जा रहे हैं. मन श्री रामजी के कार्य में लवलीन है. शरीर तक का प्रेम (ममत्व) भूल गया है. कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं. पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोज रहे हैं. कोई मुनि मिल जाता है तो पता पूछने के लिए उसे सब घेर लेते हैं.
इतने में ही सबको अत्यंत प्यास लगी, जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए, किंतु जल कहीं नहीं मिला. घने जंगल में सब भुला गए. हनुमानजी ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं. उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक कौतुक (आश्चर्य) दिखाई दिया. उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं. पवन कुमार हनुमानजी पर्वत से उतर आए और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलाई. सबने हनुमानजी को आगे कर लिया और वे गुफा में घुस गए, देर नहीं की. अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं. वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है. दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया. तब उसने कहा- जलपान करो और भांति-भांति के रसीले सुंदर फल खाओ. आज्ञा पाकर सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए. तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई और कहा- मैं अब वहां जाऊंगी जहां श्री रघुनाथजी हैं.
तुम लोग आंखें मूंद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ. तुम सीताजी को पा जाओगे, निराश न होओ. आंखें मूंदकर फिर जब आंखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खड़े हैं. और वह स्वयं वहां गई जहां श्री रघुनाथजी थे. उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की. प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी. प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और श्री रामजी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम को चली गई. यहां वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ. सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजी की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे!
अंगद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई. यहां तो सीताजी की सुध नहीं मिली और वहां जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे. वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते. श्री रामजी ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है. अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है. वानर वीर अंगद के वचन सुनते हैं, किंतु कुछ बोल नहीं सकते. उनके नेत्रों से जल बह रहा है. एक क्षण के लिए सब सोच में मग्न हो रहे. फिर सब ऐसा वचन कहने लगे- हे सुयोग्य युवराज! हम लोग सीताजी की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे. ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए. जाम्बवान ने अंगद का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएं कहीं. वे बोले- हे तात! श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो. हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं.
देवता, पृथ्वी, गो और ब्राह्मणों के लिए प्रभु अपनी इच्छा से (किसी कर्मबंधन से नहीं) अवतार लेते हैं. वहां सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं. इस प्रकार जाम्बवान् बहुत प्रकार से कथाएं कह रहे हैं. इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में सम्पाती ने सुनीं. बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे. तब वह बोला- जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत सा आहार भेज दिया! आज इन सबको खा जाऊंगा. बहुत दिन बीत गए, भोजन के बिना मर रहा था. पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता. आज विधाता ने एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया. गीध के वचन कानों से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना हो गया. यह हमने जान लिया. फिर उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए. जाम्बवान् के मन में विशेष सोच हुआ. अंगद ने मन में विचार कर कहा- अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है. श्री रामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान के परमधाम को चला गया.
हर्ष और शोक से युक्त वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरों के पास आया. वानर डर गए. उनको अभय करके (अभय वचन देकर) उसने पास जाकर जटायु का वृत्तांत पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई. भाई जटायु की करनी सुनकर सम्पाती ने बहुत प्रकार से श्री रघुनाथजी की महिमा वर्णन की. उसने कहा- मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूं. इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूंगा (अर्थात् सीताजी कहां हैं सो बतला दूंगा), जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे. समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गए. वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया (किंतु), मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया. अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए. मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा.
वहां चंद्रमा नाम के एक मुनि थे. मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी. उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह संबंधी) अभिमान को छुड़ा दिया. उन्होंने कहा- त्रेतायुग में साक्षात् परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे. उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा. उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे. उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा. और तेरे पंख उग आएंगे, चिंता न कर. उन्हें तू सीताजी को दिखा देना. मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई. अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो. त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है. वहां स्वभाव से ही निडर रावण रहता है. वहां अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहां सीताजी रहती हैं. इस समय भी वे सोच में मग्न बैठी हैं.
मैं उन्हें देख रहा हूं, तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की दृष्टि अपार होती है. क्या करूं? मैं बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुम्हारी कुछ तो सहायता अवश्य करता. जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लांघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य कर सकेगा. निराश होकर घबराओ मत. मुझे देखकर मन में धीरज धरो. देखो, श्री रामजी की कृपा से देखते ही देखते मेरा शरीर कैसा हो गया. पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यंत पार भवसागर से तर जाते हैं. तुम उनके दूत हो, अतः कायरता छोड़कर श्री रामजी को हृदय में धारण करके उपाय करो.
काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी! इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया, तब उन वानरों के मन में अत्यंत विस्मय हुआ. सब किसी ने अपना-अपना बल कहा. पर समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया. ऋक्षराज जाम्बवान कहने लगे- मैं बूढ़ा हो गया. शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा. जब खरारि (खर के शत्रु श्री राम) वामन बने थे, तब मैं जवान था और मुझ में बड़ा बल था. बलि के बांधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर (उस शरीर की) सात प्रदक्षिणाएं कर लीं. अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊंगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है. जाम्बवान ने कहा- तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?
ऋक्षराज जाम्बवान् ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान! हे बलवान! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो. तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो. जगत में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके. श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है. यह सुनते ही हनुमानजी पर्वत के आकार के अत्यंत विशालकाय हो गए. उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो. हनुमानजी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लांघ सकता हूं. और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहां ला सकता हूं. हे जाम्बवान! मैं तुमसे पूछता हूं, तुम मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए.
जाम्बवान ने कहा- हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो. फिर कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएंगे, केवल खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे. जाम्बवान के सुंदर वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत ही भाए. वे बोले- हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना. जब तक मैं सीताजी को देखकर लौट न आऊं. काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है. यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमानजी हर्षित होकर चले. समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था. हनुमानजी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान् हनुमानजी उस पर से बड़े वेग से उछले. जिस पर्वत पर हनुमानजी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धंस गया. जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमानजी चले. समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे).
हनुमानजी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहां? देवताओं ने पवनपुत्र हनुमानजी को जाते हुए देखा. उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमानजी से यह बात कही- आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है. यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमानजी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूं, तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा (तुम मुझे खा लेना). हे माता! मैं सत्य कहता हूं, अभी मुझे जाने दे. जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले. उसने योजनभर (चार कोस में) मुंह फैलाया. तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया. उसने सोलह योजन का मुख किया. हनुमानजी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए.
जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमानजी उसका दूना रूप दिखलाते थे. उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया. तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया. और उसके मुख में घुसकर तुरंत फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे. उसने कहा- मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था. तुम श्री रामचंद्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भंडार हो. यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमानजी हर्षित होकर चले.
समुद्र में एक राक्षसी रहती थी. वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी. आकाश में जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर, उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी. उसने वही छल हनुमानजी से भी किया. हनुमानजी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया. पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए. वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी. मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे. अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं. पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में बहुत ही प्रसन्न हुए. सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमानजी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े.
पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी. बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता. वह अत्यंत ऊंचा है, उसके चारों ओर समुद्र है. सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है. विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं. चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियां हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है. हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती. वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएं और बावलियां सुशोभित हैं. मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएं अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं. कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं. वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं.
भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं. कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं. तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचंद्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे. नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमानजी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं. हनुमानजी मच्छर के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले.
लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी. वह बोली- मेरा निरादर करके बिना मुझसे पूछे कहां चला जा रहा है? हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहां तक जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं. महाकपि हनुमानजी ने उसे एक घूंसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी. वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी. वह बोली- रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना. हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई. हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है. अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए. उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है. और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया. तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया.
हनुमान जी ने एक-एक महल की खोज की. जहां-तहां असंख्य योद्धा देखे. फिर वे रावण के महल में गए. वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता. हनुमानजी ने उस रावण को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं. फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया. वहां (उसमें) भगवान् का एक अलग मंदिर बना हुआ था. वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती. वहां नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमानजी हर्षित हुए. लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है. यहां सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहां? हनुमानजी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे. उसी समय विभीषणजी जागे. उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया. हनुमानजी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए. हनुमानजी ने विचार किया कि इनसे हठ करके परिचय करूंगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती.
ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमानजी ने उन्हें पुकारा. सुनते ही विभीषणजी उठकर वहां आए. प्रणाम करके कुशल पूछी और कहा कि हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए. क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं? तब हनुमानजी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया. सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए.
विभीषणजी ने कहा- हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो. मैं यहां वैसे ही रहता हूं जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ. हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे? मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते. जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं. हनुमानजी ने कहा- हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं. भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूं? जाति का चंचल वानर हूं और सब प्रकार से नीच हूं, प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले. हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूं, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है. भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमानजी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया.
जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुखी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की. फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहां (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही. तब हनुमानजी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखना चाहता हूं. विभीषणजी ने माता के दर्शन की सब युक्तियां (उपाय) कह सुनाईं. तब हनुमानजी विदा लेकर चले. फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहां गए, जहां अशोक वन में सीताजी रहती थीं.
सीताजी को देखकर हनुमानजी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया. उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं. शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है. हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं. श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है. जानकीजी को दीन (दुखी) देखकर पवनपुत्र हनुमानजी बहुत ही दुःखी हुए. हनुमानजी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूं? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहां आया.
उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया. साम, दान, भय और भेद दिखलाया. रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदि सब रानियों को- मैं तुम्हारी दासी बना दूंगा, यह मेरा प्रण है. तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं- हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू अपने लिए भी ऐसा ही मन में समझ ले. रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है. रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है. रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?
अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला- सीता! तूने मेरा अपनाम किया है. मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूंगा. नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले. हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा. सीताजी ने कहा- हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुंदर और हाथी की सूंड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही. रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है.
सीताजी कहती हैं- हे चंद्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात् तेरी धारा ठंडी और तेज है), तू मेरे दुख के बोझ को हर ले. सीताजी के ए वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा. तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया. तब रावण ने सब दासियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ. यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूंगा. यों कहकर रावण घर चला गया. यहां राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे.
उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी. उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी. उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो. स्वप्न में मैंने देखा कि एक बंदर ने लंका जला दी. राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई. रावण नंगा है और गदहे पर सवार है. उसके सिर मुंडे हुए हैं, बीसों भुजाएं कटी हुई हैं. इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है. नगर में श्री रामचंद्रजी की दुहाई फिर गई. तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा. मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूं कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा. उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियां डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं.
तब इसके बाद वे सब जहां-तहां चली गईं. सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा. सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है. जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूं. विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता. काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे. हे माता! फिर उसमें आग लगा दे. हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे. रावण की शूल के समान दुख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने? सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया. उसने कहा- हे सुकुमारी! सुनो रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी. ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई. सीताजी मन ही मन कहने लगीं- क्या करूं विधाता ही विपरीत हो गया. न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी. आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता. चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता. हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन. मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर. तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं. अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर. सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमानजी को कल्प के समान बीता.
तब हनुमानजी ने हदय में विचार कर सीताजी के सामने अंगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया. यह समझकर सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया. तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अंगूठी देखी. अंगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं.
वे सोचने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अंगूठी बनाई नहीं जा सकती. सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं. इसी समय हनुमानजी मधुर वचन बोले- वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, जिनके सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया. वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं. हनुमानजी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई. सीताजी बोलीं- जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमानजी पास चले गए. उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ. हनुमानजी ने कहा- हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूं. करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूं, हे माता! यह अंगूठी मैं ही लाया हूं. श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है. सीताजी ने पूछा- नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही.
हनुमानजी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है. भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई. नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया. सीताजी ने कहा- हे तात हनुमान! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए. मैं बलिहारी जाती हूं, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो. श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं. फिर हे हनुमान्! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है? सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है. वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल सांवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?
मुंह से वचन नहीं निकलता, नेत्रों में विरह के आंसुओं का जल भर आया. बड़े दुःख से वे बोलीं- हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमानजी कोमल और विनीत वचन बोले- हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं. हे माता! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दुख न कीजिए). श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है. हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिए. ऐसा कहकर हनुमानजी प्रेम से गद्गद हो गए. उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया. हनुमानजी बोले- श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं. वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं. मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं. जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं. त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु सांप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है. मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है. पर कहूं किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं. हे प्रिए! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है. बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले. प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं. उन्हें शरीर की सुध न रही.
हनुमानजी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो. श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो. राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं. हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो. श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते. हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहां रह सकता है? हे माता! मैं आपको अभी यहां से लिवा जाऊं, पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है. (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो. श्री रामचंद्रजी वानरों सहित यहां आएंगे. और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएंगे. नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएंगे. सीताजी ने कहा- हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं. अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!. यह सुनकर हनुमानजी ने अपना शरीर प्रकट किया. सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यंत विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान् और वीर था. तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ. हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया. हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है. भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ. उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमानजी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ.
हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ. श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें. 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए. हनुमानजी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया. आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है. हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है. सीताजी ने कहा- हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं. हनुमानजी ने कहा- हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है.
हनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ. हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ. वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए. फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे. वहां बहुत से योद्धा रखवाले थे. उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की और कहा- हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है. उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली. फल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया. यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे. उन्हें देखकर हनुमानजी ने गर्जना की. हनुमानजी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए. फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा. वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला. उसे आते देखकर हनुमानजी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर) से गर्जना की. उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया. कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान है. पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र बलवान मेघनाद को भेजा. उससे कहा कि- हे पुत्र! मारना नहीं उसे बांध लाना. उस बंदर को देखा जाए कि कहां का है.
इंद्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला. भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया. हनुमानजी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है. तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े. उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया. रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया. उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमानजी अपने शरीर से मसलने लगे. उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे. लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों. हनुमानजी उसे एक घूंसा मारा और वृक्ष पर जा चढ़े. उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई. फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परंतु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते. अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी.
उसने हनुमानजी को ब्रह्म बाण मारा, जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े, परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली. जब उसने देखा कि हनुमानजी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बांधकर ले गया. जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमानजी ने स्वयं अपने को बंधा लिया. बंदर का बांधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए. हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी. उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती. देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं. उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमानजी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ. वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं.
हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा. फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया. लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मेरा नाम और यश कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूं. तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? हनुमानजी ने कहा- हे रावण! सुन, जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है, जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं, जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया. जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान थे, जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूं. मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूं सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था. हनुमानजी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हंसकर बात टाल दी.
हे राक्षसों के स्वामी मुझे भूख लगी थी, इसलिए मैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े. हे निशाचरों के मालिक! देह सबको परम प्रिय है. कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे. तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा. उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बांध लिया (किंतु), मुझे अपने बांधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है. मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूं. हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूं, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो. तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान को भजो. जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो. खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं. शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे. तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो. ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है. उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो. राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो. हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ों के बिना शोभा नहीं पाती.
रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है. जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है. (अर्थात् जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं. हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूं कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है. हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते. मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करो. यद्यपि हनुमानजी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण बहुत हंसकर बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला! रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है. अधम! मुझे शिक्षा देने चला है.
हनुमानजी ने कहा- इससे उलटा ही होगा. हनुमानजी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया. और बोला- अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े उसी समय मंत्रियों के साथ विभीषणजी वहां आ पहुंचे. उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है. हे गोसाईं. कोई दूसरा दंड दिया जाए. सबने कहा- भाई! यह सलाह उत्तम है. यह सुनते ही रावण हंसकर बोला- अच्छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए. मैं सबको समझाकर कहता हूं कि बंदर की ममता पूंछ पर होती है. अतः तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूंछ में बांधकर फिर आग लगा दो.
जब बिना पूंछ का यह बंदर वहां अपने स्वामी के पास जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा. जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूं. यह वचन सुनते ही हनुमानजी मन में मुस्कुराए और मन ही मन बोले कि मैं जान गया, सरस्वतीजी इसे ऐसी बुद्धि देने में सहायक हुई हैं. रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस पूंछ में आग लगाने की तैयारी करने लगे. पूंछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया. हनुमानजी ने ऐसा खेल किया कि पूंछ बढ़ गई (लंबी हो गई). नगरवासी लोग तमाशा देखने आए. वे हनुमानजी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हंसी करते हैं. ढोल बजते हैं, सब लोग तालियां पीटते हैं. हनुमानजी को नगर में फिराकर, फिर पूंछ में आग लगा दी. अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमानजी तुरंत ही बहुत छोटे रूप में हो गए. बंधन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढ़े. उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियां भयभीत हो गईं. उस समय भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे. हनुमानजी अट्टहास करके गर्जे और बढ़कर आकाश से जा लगे. देह बड़ी विशाल, परंतु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है. वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं. नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं. आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं.
हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा? चारों ओर यही पुकार सुनाई पड़ रही है. हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है! साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है. हनुमानजी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला. एक विभीषण का घर नहीं जलाया. जिन्होंने अग्नि को बनाया, हनुमानजी उन्हीं के दूत हैं. इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले. हनुमानजी ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लंका जला दी. फिर वे समुद्र में कूद पड़े.
पूंछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमानजी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए. हनुमानजी ने कहा- हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था. तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी. हनुमानजी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया. जानकीजी ने कहा- हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूं) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए. हे तात! इंद्रपुत्र जयंत की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना). यदि महीने भर में नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएंगे. हे हनुमान्! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूं! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो. तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी. फिर मुझे वही दिन और वही रात! हनुमानजी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री रामजी के पास गमन किया.
चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे. समुद्र लांघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया. हनुमानजी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा. हनुमानजी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, जिससे उन्होंने समझ लिया कि ये श्री रामचंद्रजी का कार्य कर आए हैं. सब हनुमानजी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो. सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास (वृत्तांत) पूछते- कहते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले. तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाए. जब रखवाले बरजने लगे, तब घूंसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे. उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं. यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं.
यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर आ गए. सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया. कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले. उन्होंने कुशल पूछी, तब वानरों ने उत्तर दिया- आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है. श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ. हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए. यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमानजी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले. श्री रामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ. दोनों भाई स्फटिक शिला पर बैठे थे. सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े. दया की राशि श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी. वानरों ने कहा- हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है.