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रामचरितमानस: जब राम और भरत मिलाप देखकर भयभीत हो गए स्वर्ग में देवता

रामचरितमानस: सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्रीरामचंद्र धर्मधुरन्धर और स्वतन्त्र भगवान हैं, वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं. श्रीरामजी का अवतार ही जगत के कल्याण के लिए हुआ है. वे गुरु, पिता और माता के वचनों के पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं.

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aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 17 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 5:01 PM IST

सबके मन में यह सन्देह हो रहा था कि हे विधाता! श्रीरामचंद्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं. भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है. वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है. भरतजी सोचते हैं कि माता के मिस से काल ने कुचाल की है. जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो. अब श्रीरामचंद्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता. गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे. परंतु मुनि वसिष्ठजी तो श्रीरामचंद्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे. माता कौशल्याजी के कहने से भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजी को जन्म देने वाली माता क्या कभी हठ करेगी? मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है और विधाता प्रतिकूल है. यदि मैं हठ करता हूं तो यह घोर कुकर्म होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी है. एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी. सोचते-ही-सोचते रात बीत गई. भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्रीरामचंद्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वसिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा. भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए. उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मन्त्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए.

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श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदो! हे सुजान भरत! सुनो. सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्रीरामचंद्र धर्मधुरन्धर और स्वतन्त्र भगवान हैं, वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं. श्रीरामजी का अवतार ही जगत के कल्याण के लिए हुआ है. वे गुरु, पिता और माता के वचनों के पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं. दुष्टों के दल का नाश करने वाले और देवताओं के हितकारी हैं. नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्रीरामजी के समान यथार्थ कोई नहीं जानता. ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चंद्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल. शेषजी और राजा आदि जहां तक प्रभुता है, और योग की सिद्धियां, जो वेद और शास्त्रों में गाई गई हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि श्रीरामजी की आज्ञा इन सभी के सिर पर है. अतएव श्रीरामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा. इस तत्त्व और रहस्य को समझकर अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो. श्रीरामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है. मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है. अब श्रीरघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया जाए. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ लौकिक हित में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक सुनी. पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले हो गए. तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े और कहा- सूर्यवंश में एक-से-एक अधिक बड़े बहुत से राजा हो गए हैं. सभी के जन्म के कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों का फल विधाता देते हैं.

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आपकी आशीष ही एक ऐसी है जो दुखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है; यह जगत जानता है. हे स्वामी! आप वही हैं जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी रोक दिया. आपने जो निश्चय कर दिया उसे कौन टाल सकता है? अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है. भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया. वे बोले- हे तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही. रामविमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती. हे तात! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूं. बुद्धिमान लोग सर्वस्व जाता देखकर आधे की रक्षा के लिए आधा छोड़ दिया करते हैं. अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्रीरामचंद्र को लौटा दिया जाए. ये सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गए. उनके सारे अंग परमानन्द से परिपूर्ण हो गए. उनके मन प्रसन्न हो गए. शरीर में तेज सुशोभित हो गया. मानो राजा दशरथ जी उठे हों और श्रीरामचंद्रजी राजा हो गए हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई. परंतु रानियों को दुख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं. भरतजी कहने लगे- मुनि ने जो कहा, वह करने से जगत भर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा. चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं, मैं जन्मभर वन में वास करूंगा. मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है.

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श्रीरामचंद्रजी और सीताजी हृदय की जानने वाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं. यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनों को प्रमाण कीजिए. भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभासहित मुनि वसिष्ठजी विदेह हो गए. भरतजी की महान महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तटपर अबला स्त्री के समान खड़ी है. वह उस समुद्र के पार जाना चाहती है, इसके लिए उसने हृदय में उपाय भी ढूंढ़े! पर उसे पार करने का साधन नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती. भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है? मुनि वसिष्ठजी के अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाजसहित श्रीरामजी के पास आए. प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया. सब लोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गए.श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण और ज्ञानके भंडार राम! सुनिए- आप सबके हृदय के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं. जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए.दुखी लोग कभी विचारकर नहीं कहते. जुआरी को अपना ही दांव सूझता है.

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मुनि के वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है. आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नता पूर्वक पालन करने में ही सबका हित है. पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूं. फिर हे गोसाईं! आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा. मुनि वसिष्ठजी कहने लगे- हे राम! तुमने सच कहा. पर भरत के प्रेम ने विचार को नहीं रहने दिया. इसीलिए मैं बार-बार कहता हूं, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है. मेरी समझ में तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही होगा. पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उसपर विचार कीजिए. तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही उसी के अनुसार कीजिए. भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्रीरामचंद्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ. भरतजी को धर्मधुरन्धर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर श्रीरामचंद्रजी गुरु की आज्ञा के अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले- हे नाथ! आपकी सौगन्ध और पिताजी के चरणों की दुहाई है मैं सत्य कहता हूं कि विश्वभर में भरत के समान भाई कोई हुआ ही नहीं, जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में भी और वेद में पारमार्थिक दृष्टि से भी बड़भागी होते हैं! फिर जिसपर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?

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छोटा भाई जानकर भरत के मुंह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है. फिर भी मैं तो यही कहूंगा कि भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है. ऐसा कहकर श्रीरामचंद्रजी चुप हो रहे. तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो. मुनि के वचन सुनकर और श्रीरामचंद्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते. वे विचार करने लगे. शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए. कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई. वे बोले- मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निभा दिया. इससे अधिक मैं क्या कहूं? अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूं. वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते. मुझपर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है. मैंने खेल में भी कभी उनकी अप्रसन्नता नहीं देखी. बचपन से ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा. मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभांति देखा है. मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं. मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुंह नहीं खोला. प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आजतक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए.

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परंतु विधाता मेरा दुलार न सह सका. उसने नीच माता के बहाने मेरे और स्वामी के बीच अन्तर डाल दिया. यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता. क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? माता नीच है और मैं सदाचारी और साधु हूं, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ दुराचारों के समान है. क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती उत्पन्न कर सकती है? स्वप्न में भी किसी को दोष का लेश भी नहीं है. मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है. मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया. मैं अपने हृदय में सब ओर खोजकर हार गया. एक ही प्रकार भले ही मेरा भला है. वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ हैं और श्रीसीतारामजी मेरे स्वामी हैं. इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है. साधुओं की सभा में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ-स्थान में मैं सत्य भाव से कहता हूं. यह प्रेम है या प्रपंच? झूठ है या सच? इसे सर्वज्ञ मुनि वसिष्ठजी और अन्तर्यामी श्रीरघुनाथजी जानते हैं. प्रेम के प्रण को निभाकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा संसार साक्षी है. माताएं व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं. अवधपुरी के नर-नारी ताप से जल रहे हैं.

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मैं ही इन सारे अनर्थों का मूल हूं, यह सुन और समझकर मैंने सब दुख सहा है. श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का-सा वेष धारणकर बिना जूते पहने पांव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकरजी साक्षी हैं, इस घाव से भी मैं जीता रह गया! फिर निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ. अब यहां आकर सब आंखों देख लिया. यह जड़ जीव जीता रहकर सभी सहावेगा. जिनको देखकर रास्ते की सांपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं. वे ही श्रीरघुनन्दन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेई के पुत्र मुझ को छोड़कर देव दुख और किसे सहावेगा? अत्यंत व्याकुल तथा दुख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए, सारी सभा में विषाद छा गया. मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया हो. तब ज्ञानी मुनि वसिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी कथाएं कहकर भरतजी का समाधान किया. फिर सूर्यकुलरूपी कुमुदवन के प्रफुल्लित करने वाले चंद्रमा श्रीरघुनन्दन उचित वचन बोले- हे तात! तुम अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो. जीव की गति को ईश्वर के अधीन जानो. मेरे मत में भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों और स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं. हृदय में भी तुम पर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक यहां के सुख, यश आदि बिगड़ जाता है और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती). माता कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा का सेवन नहीं किया है.

हे भरत! तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच (अज्ञान) और समस्त अमंगलों के समूह मिट जाएंगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त होगा. हे भरत! मैं स्वभाव से ही सत्य कहता हूं, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी रह रही है. हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो. वैर और प्रेम छिपाए नहीं छिपते. पक्षी और पशु मुनियों के पास बेधड़क चले जाते हैं, पर हिंसा करने वाले बधिकों को देखते ही भाग जाते हैं. मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं. फिर मनुष्य शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार ही है. हे तात! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूं! क्या करूं? जी में बड़ा असमंजस है. राजा ने मुझे त्यागकर सत्य को रखा और प्रेम प्रण के लिए शरीर छोड़ दिया. उनके वचन को मेटते मन में सोच होता है. उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है. उसपर भी गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है. इसलिए अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही करना चाहता. तुम मन को प्रसन्न कर और संकोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूं. सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया. देवगणों सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता है. कुछ उपाय करते नहीं बनता. तब वे सब मन-ही-मन श्रीरामजी की शरण गए.

फिर वे विचार करके आपस में कहने लगे कि श्रीरघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं. अम्बरीष और दुर्वासा की घटना याद करके तो देवता और इन्द्र बिलकुल ही निराश हो गए. पहले देवताओं ने बहुत समय तक दुख सहे. तब भक्त प्रह्लाद ने ही नरसिंह भगवान को प्रकट किया था. सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब इस बार देवताओं का काम भरतजी के हाथ है. हे देवताओ! और कोई उपाय नहीं दिखाई देता. श्रीरामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को मानते हैं. अतएव अपने गुण और शील से श्रीरामजी को वश में करने वाले भरतजी का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेमसहित स्मरण करो. देवताओं का मत सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य हैं. भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है. सीतानाथ श्रीरामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है. तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो. विधाता ने बात बना दी. हे देवराज ! भरतजी का प्रभाव तो देखो. श्रीरघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से वश में हैं. हे देवताओ! भरतजी को श्रीरामचंद्रजी की परछाईं जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है. देवगुरु बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति और उनका सोच सुनकर अन्तर्यामी प्रभु श्रीरामजी को संकोच हुआ. भरतजी ने अपने मन में सब बोझा अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोड़ों प्रकार के अनुमान करने लगे.

सब तरह से विचार करके अन्त में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्रीरामजी की आज्ञा में ही अपना कल्याण है. उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा. यह कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया. श्रीजानकीनाथजी ने सब प्रकार से मुझपर अत्यंत अपार अनुग्रह किया. तदंतर भरतजी दोनों कर-कमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले- हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं अधिक क्या कहूं और क्या कहाऊं? गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित पीड़ा मिट गई. मैं मिथ्या डर से ही डर गया था. मेरे सोच की जड़ ही न थी. दिशा भूल जाने पर हे देव! सूर्य का दोष नहीं है. मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और काल की कठिनता, इन सबने मिलकर पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था. परंतु शरणागत के रक्षक आपने अपना प्रण निभाया. यह आपकी कोई नई रीति नहीं है. यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है. सारा जगत बुरा करने वाला हो; किन्तु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर कहिए, किसकी भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह न कभी किसी के सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल).

उस वृक्ष (कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसकी छाया ही सारी चिन्ताओं का नाश करने वाली है. राजा-रंक, भले-बुरे, जगत में सभी उससे मांगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं. गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी सन्देह नहीं रहा. हे दया की खान! अब वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त में क्षोभ न हो, जो सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है. सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही करे. हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है, और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण है. यही स्वार्थ और परमार्थ का सार (निचोड़) है, समस्त पुण्यों का फल और सम्पूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है. हे देव! आप मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए. राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लाई गई है, जो प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिए. छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिए और अयोध्या लौटकर सबको सनाथ कीजिए. हे नाथ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूं अथवा हम तीनों भाई वन चले जाएं और हे श्रीरघुनाथजी! आप श्रीसीताजी सहित अयोध्या को लौट जाइए. हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए.

हे देव! आपने सारा भार (जिम्मेवारी) मुझपर रख दिया. पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न धर्म का. मैं तो अपने स्वार्थ के लिए सब बातें कह रहा हूं. दुखी मनुष्य के चित्त में चेत (विवेक) नहीं रहता. स्वामी की आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है. मैं अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूं कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूं. किन्तु स्वामी आप स्नेहवश साधु कहकर मुझे सराहते हैं! हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे. प्रभु के चरणों की शपथ है, मैं सत्य भाव से कहता हूं, जगत के कल्याण के लिए एक यही उपाय है. प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा-चढ़ाकर पालन करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जाएंगी. भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए. अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गए कि देखें अब श्रीरामजी क्या कहते हैं. तपस्वी तथा वनवासी लोग श्रीरामजी के वन में बने रहने की आशा से मन में परम आनन्दित हुए. किन्तु संकोची श्रीरघुनाथजी चुप ही रह गए. प्रभु की यह स्थिति (मौन) देख सारी सभा सोच में पड़ गई. उसी समय जनकजी के दूत आए, यह सुनकर मुनि वसिष्ठजी ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया.

उन्होंने प्रणाम करके श्रीरामचंद्रजी को देखा. उनका मुनियों का सा वेष देखकर वे बहुत ही दुखी हुए. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने दूतों से बात पूछी कि राजा जनक का कुशल समाचार कहो. मुनि का कुशलप्रश्न सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले- हे स्वामी! आपका आदर के साथ पूछना, यही हे गोसाईं! कुशल का कारण हो गया. नहीं तो हे नाथ! कुशल-क्षेम तो सब कोसलनाथ दशरथजी के साथ ही चली गई. यों तो सारा जगत ही अनाथ हो गया, किन्तु मिथिला और अवध तो विशेषरूप से अनाथ हो गए. अयोध्यानाथ की गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुरवासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए. उस समय जिन्होंने विदेह को शोकमग्न देखा, उनमें से किसी को ऐसा न लगा कि उनका विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य है! क्योंकि देहाभिमान से शून्य पुरुष को शोक कैसा? रानी की कुचाल सुनकर राजा जनकजी को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना सांप को नहीं सूझता. फिर भरतजी को राज्य और श्रीरामचंद्रजी को वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजी के हृदय में बड़ा दुख हुआ. राजा ने विद्वानों और मन्त्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिए, आज क्या करना उचित है? अयोध्या की दशा समझकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर ‘चलिए या रहिए?’ किसी ने कुछ नहीं कहा. [जब किसी ने कोई सम्मति नहीं दी तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर अयोध्या को भेजे और उनसे कह दिया कि तुमलोग श्रीरामजी के प्रति भरतजी के सद्भाव या दुर्भाव का पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पावे.

गुप्तचर अवध को गए और भरतजी का ढंग जानकर और उनकी करनी देखकर, जैसे ही भरतजी चित्रकूट को चले, वे तिरहुत (मिथिला) को चल दिए. गुप्त दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया. उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मन्त्री और राजा सभी सोच और स्नेह से अत्यंत व्याकुल हो गए. फिर जनकजी ने धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहनियों को बुलाया. घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत-सी सवारियां सजवायीं. वे दुघड़िया मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े. राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं किया. आज ही सबेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं. जब सब लोग यमुनाजी उतरने लगे, तब हे नाथ! हमें खबर लेने को भेजा. दूतों ने ऐसा कहकर पृथ्वीपर सिर नवाया. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने कोई छह-सात भीलों को साथ देकर दूतों को तुरंत विदा कर दिया. जनकजी का आगमन सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया. श्रीरामजी को बड़ा संकोच हुआ और देवराज इन्द्र तो विशेषरूप से सोच के वश में हो गए. कुटिल कैकेयी मन-ही-मन ग्लानि (पश्चात्ताप) से गली जाती है. किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचारकर प्रसन्न हो रहे हैं कि अच्छा हुआ, जनकजी के आने से कुछ दिन और रहना हो गया.

इस तरह वह दिन भी बीत गया. दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे. स्नान करके सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्यभगवान की पूजा करते हैं. फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के चरणों की वन्दना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आंचल पसारकर विनती करते हैं कि श्रीरामजी राजा हों, जानकीजी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या आनंद की सीमा होकर फिर समाजसहित सुखपूर्वक बसे और श्रीरामजी भरतजी को युवराज बनावें. गुरु, समाज और भाइयों समेत श्रीरामजी का राज्य अवधपुरी में हो और श्रीरामजी के राजा रहते ही हम लोग अयोध्या में मरें. अयोध्यावासियों की प्रेममई वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निन्दा करते हैं. अवधवासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्रीरामजी को पुलकित शरीर हो प्रणाम करते हैं. ऊंच, नीच और मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने-अपने भाव के अनुसार श्रीरामजी का दर्शन प्राप्त करते हैं. श्रीरामचंद्रजी सावधानी के साथ सबका सम्मान करते हैं और सभी कृपानिधान श्रीरामचंद्रजी की सराहना करते हैं. श्रीरामजी की लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं. श्रीरघुनाथजी शील और संकोच के समुद्र हैं. वे सुंदर मुख के, सुंदर नेत्रवाले और सरलस्वभाव हैं.

श्रीरामजी के गुणसमूहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम में भर गए और अपने भाग्य की सराहना करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूंजीवाले थोड़े ही हैं; जिन्हें श्रीरामजी अपना करके जानते हैं. उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं. इतने में ही मिथिलापति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य श्रीरामचंद्रजी सभासहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए. भाई, मन्त्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्रीरघुनाथजी आगे जनकजी की अगवानी में चले. जनकजी ने ज्यों ही पर्वतश्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्यों ही प्रणाम करके उन्होंने रथ छोड़ दिया और पैदल चलना शुरू कर दिया. श्रीरामजी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण किसी को रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी नहीं है. मन तो वहां है जहां श्रीराम और जानकीजी हैं. बिना मन के शरीर के सुख- दुख की सुध किसको हो? जनकजी इस प्रकार चले आ रहे हैं. समाजसहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है. निकट आए देखकर सब प्रेम में भर गए और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे. जनकजी वसिष्ठ आदि अयोध्यावासी मुनियों के चरणों की वन्दना करने लगे और श्रीरामचंद्रजी ने शतानन्द आदि जनकपुरवासी ऋषियों को प्रणाम किया. फिर भाइयों समेत श्रीरामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाजसहित अपने आश्रम को लिवा चले. श्रीरामजी का आश्रम शान्तरसरूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है. जनकजी की सेना मानो करुणा की नदी है, जिसे श्रीरघुनाथजी उस आश्रमरूपी शान्तरस के समुद्र में मिलाने के लिए लिए जा रहे हैं.

यह करुणा की नदी इतनी बढ़ी हुई है कि ज्ञान-वैराग्यरूपी किनारों को डुबाती जाती है. शोकभरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं; और सोच की लम्बी सांसें ही वायु के झकोरों से उठने वाली तरंगें हैं, जो धैर्यरूपी किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं. भयानक विषाद ही उस नदी की तेज धारा है. भय और भ्रम ही उसके असंख्य भंवर और चक्र हैं. विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है. परंतु वे उसे खे नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं), किसी को उसकी अटकल ही नहीं आती है. वन में विचरने वाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर थक गए हैं. यह करुणा नदी जब आश्रम समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र अकुला उठा. दोनों राजसमाज शोक से व्याकुल हो गए. किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही. राजा दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोकसमुद्र में डुबकी लगा रहे हैं. शोकसमुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच कर रहे हैं. वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके.

जहां-तहां श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वसिष्ठजी ने विदेह (जनकजी) से कहा- हे राजन! आप धैर्य धारण कीजिए. जिन राजा जनक का ज्ञानरूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है, और जिनकी वचनरूपी किरणें मुनिरूपी कमलों को खिला देती हैं, क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्रीसीतारामजी के प्रेम की महिमा है! विषई, साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष- जगत में ये तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं. इन तीनों में जिसका चित्त श्रीरामजी के स्नेह से सरस रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है. श्रीरामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज. वसिष्ठजी ने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकार से समझाया. तदनन्तर सब लोगों ने श्रीरामजी के घाट पर स्नान किया. स्त्री-पुरुष सब शोक से पूर्ण थे. भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया. पशु, पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं किया. तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियों का तो विचार ही क्या किया जाय? निमिराज जनकजी और रघुराज रामचंद्रजी तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे. सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं. 

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