
धर्म, आस्था और रोमांच... अमरनाथ यात्रा इन तीनों की न सिर्फ अनुभूति कराती है, बल्कि आपको एक अलग संसार में होने का अहसास भी दिलाती है. कोरोना काल में तमाम ऊहापोह के बाद अमरनाथ यात्रा (Amarnath Yatra 2020) शुरू होने जा रही है.
अमरनाथ यात्रा अपने अनूठे भौगोलिक स्वरूप के चलते न सिर्फ बेहद रोमांचकारी है, बल्कि गुफा में हर साल विशेष परिस्थितियों में बनने वाला हिमलिंग आस्था का केंद्र रहता है. इस गुफा को लेकर तमाम किवदंतियां हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होने वाली यह यात्रा श्रावण पूर्णिमा तक चलती है. मान्यता है कि श्रावण पूर्णिमा के दिन ही भोले शंकर इस गुफा में आए थे.
12वीं सदी के ग्रंथों में जिक्र
कश्मीर पर केंद्रित 12वीं सदी में लिखी गई कल्हण की राजतरंगिणी से लेकर नीलमत पुराण तक में अमरनाथ गुफा का जिक्र मिलता है, जिससे साफ है कि इस पवित्र गुफा का अस्तित्व सदियों पुराना है. अमरनाथ गुफा को लेकर कई किवदंतियां हैं. उन्हीं में से एक यह है कि इस पवित्र गुफा को सबसे पहले गुज्जर समाज के एक मुस्लिम गड़रिए बूटा मलिक ने उस समय देखा था, जब वह अपनी बकरियां चराते हुए वहां तक पहुंच गया.
गुफा कितनी पुरानी है, इसका कोई ठोस जवाब तो नहीं है, लेकिन कहा जाता है कि बूटा मलिक के जरिए 18वीं सदी में इस गुफा के अस्तित्व का पता चला. बाद में काफी समय तक अमरनाथ गुफा के चढ़ावे का कुछ हिस्सा बूटा मलिक के परिवार को भी दिया जाता रहा. एक और किवदंति यह भी है कि इस गुफा को सबसे पहले भृगु ऋषि ने देखा था.
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अमरत्व की कथा और कबूतरों का जोड़ा
पुराणों के मुताबिक भगवान शिव माता पार्वती को अमरत्व की कहानी सुनाने के लिए वीरान इलाके में मौजूद इसी गुफा में लेकर आए थे. कहानी सुनने के दौरान माता पार्वती को नींद आ गई, लेकिन वहां मौजूद कबूतरों का एक जोड़ा भगवान शिव के कहानी सुनाने के दौरान लगातार गूं-गूं की आवाज निकालता रहा, जिससे भगवान शिव को लगा कि पार्वती कहानी सुन रही हैं. कथा सुन लेने के चलते इन कबूतरों को भी अमरत्व प्राप्त हो गया. अचरज ही है कि जिस जगह पर 8 महीने इंसानों का वजूद नहीं रहता, भयंकर बर्फबारी के चलते किसी भी जीव-जंतु के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना नामुमकिन हो जाता है, वहां आज भी अमरनाथ गुफा के दर्शन करते वक्त कबूतर दिख जाते हैं.
हिमलिंग और चंद्रमा
गुफा में बनने वाले हिमलिंग का एक संबंध चंद्रमा से भी माना जाता है. पूर्णिमा में अपने पूर्ण आकार में आ जाने वाला चांद अमावस्या तक गायब हो जाता है. गुफा में बनने वाला हिमलिंग भी चांद के साथ ही बढ़ता जाता है और पूर्णिमा को अपने वृहद आकार में होता है. उसके बाद चांद के आकार के साथ-साथ हिमलिंग भी पिघलता जाता है और अमावस्या आते-आते यह अंतर्धान हो जाता है.
गुफा का चमत्कार और हिमलिंग
19 मीटर ऊंचे, 19 मीटर गहरे और 16 मीटर चौड़े इस दिव्य गुफा में हर सावन में हिमलिंग का बनना किसी चमत्कार से कम नहीं है. वैसे तो इस पूरे गुफा में जगह-जगह से पानी टपकता रहता है, लेकिन गुफा के भीतरी हिस्से के एक कोने में हर साल उसी स्थान पर हिमलिंग का बनना विज्ञान को भी चुनौती देता है. वहां भी पानी की बूंदें लगातार गिरती रहती हैं, जो धीरे-धीरे हिमलिंग में बदलता जाता है. यह हिमलिंग 20 से 22 फुट तक का आकार ले लेता है. यह बर्फ आम बर्फ से बिलकुल अलग होती है जो गुफा के आसपास मिलती है. हिमलिंग की बर्फ बेहद ठोस होती है, जो लंबे समय तक टिकी रहती है. वहीं गुफा के बाहर जो बर्फ रहती है वो बेहद भुरभुरी और जल्द पिघलने वाली होती है.
बताया जाता है कि इस बार जून के शुरुआती दिनों में हिमलिंग 20 फुट से भी ज्यादा का था. लेकिन अब जिस तेजी से हिमलिंग पिघल रहा, उससे माना जा रहा कि भक्तों के पहुंचने तक शिव अंतर्धान हो जाएंगे. बीते कई सालों से हिमलिंग यात्रा के संपन्न होने से पहले ही पिघल जा रहा. इसकी बड़ी वजह लगातार श्रद्धालुओं का बढ़ना और गुफा के आसपास का तापमान ज्यादा होना है. गुफा में शिव के प्रतीक हिमलिंग के साथ ही दो और हिमलिंग भी बनते हैं जिन्हें पार्वती और गणेश का प्रतिरूप माना जाता है.
अलौकिक शेषनाग झील
चंदनवाड़ी बेसकैंप से 12 किलोमीटर दूर शेषनाग बेहद खूबसूरत जगह है. इस खूबसूरती में चार चांद लगाती है यहां की शेषनाग झील. तकरीबन डेढ़ किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली यह झील तीन ओर से पहाड़ों से घिरी हुई है. ये सभी पहाड़ सर्दिंयों में बर्फ से लकदक रहते हैं. गर्मियों में यह बर्फ पिघलती है और इसका पानी झील में गिरता रहता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार इस झील में शेषनाग रहते हैं और दिन में एक बार झील से बाहर आते हैं.
अमरनाथ श्राइन बोर्ड करता है पूरे इंतजाम
अमरनाथ यात्रा का संचालन अमरनाथ श्राइन बोर्ड करता है. यह बोर्ड ही जून-जुलाई में होने वाली इस यात्रा को लेकर जनवरी से ही तैयारियों में जुट जाता है. कोरोना के चलते इस बार यात्रा के नियमों में कई बदलाव किए गए हैं. साधु-संतों को छोड़कर इस बार यात्रा के लिए 55 साल से कम उम्र के लोगों को ही अनुमति दी जाएगी. बच्चे और बुजुर्गों को इस बार यात्रा करने की मंजूरी नहीं दी गई है. हर साल यात्रा शुरू होने से पहले राज्यपाल बाबा बर्फानी की प्रथम पूजा करते हैं. छड़ी मुबारक के साथ इस यात्रा का आगाज होता है. दशनामी अखाड़ा के महंत दीपेंद्र गिरि हर वर्ष पूजा कर यात्रा की शुरुआत करते हैं. देशभर से आने वाले श्रद्धालुओं को जम्मू में भगवती नगर स्थित कैंप में ठहराया जाता है. वहां से रोजाना कड़ी सुरक्षा में उन्हें पहलगाम स्थित चंदनवाड़ी और बालटाल बेसकैंप तक पहुंचाया जाता है.
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यात्रा के दो मार्ग, दोनों की खूबियां और खतरे
पहलगाम से तीन दिन
अद्भुत, अलौकिक, अप्रतिम. इस यात्रा को करने पर बरबस ही आपको ये शब्द याद आएंगे. समुद्रतल तल से 3 हजार 888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफा तक जाने के दो रास्ते हैं. पहला पहलगाम मार्ग और दूसरा बालटाल. इन दोनों ही रास्तों की अपनी खूबियां और खतरे हैं. पहलगाम से गुफा की दूरी तकरीबन 48 किलोमीटर है. यात्रा के सबसे पुराने पहलगाम रूट पर चंदनवाड़ी बेसकैंप से अमरनाथ गुफा तक का सफर करने में तीन दिन लग जाते हैं. भले ही यह रास्ता बेहद लंबा और थका देने वाला है, लेकिन इस रास्ते पर प्रकृति की नैसर्गिक खूबसूरती आपको तरोताजा बनाए रखती है.
चंदनवाड़ी बेसकैंप से अमरनाथ गुफा तक के सफर में पिस्सूटॉप, जोजीबल, नागकोटि, शेषनाग, महागुनटॉप, पंजतरणी और फिर संगम पड़ाव आता है. संगम ही वह जगह है, जहां बालटाल वाला रास्ता आकर मिलता है. दोनों मार्गों के मिलन के चलते ही इसे संगम नाम दिया गया. संगम से ठीक तीन किलोमीटर दूर अलौकिक अमरनाथ गुफा साफ दिखने लगती है, जिसकी झलक भर से रास्ते की सारी थकान काफूर हो जाती है.
एक दिन में बालटाल रूट से दर्शन
अब बात करते हैं बालटाल मार्ग की. महज 14 किलोमीटर का यह रास्ता बेहद दुष्कर है. बालटाल बेसकैंप से शुरू होने वाले इस रूट पर दोमेल, बरारी और फिर संगम पड़ाव आता है. इस रूट से भोर में यात्रा शुरू कर देर रात बेसकैंप लौटा जा सकता है. अधिकतर सीधी चढ़ाई होने के चलते बच्चे और बुजुर्ग इस रूट से नहीं जाते.
अगर आप स्वस्थ हैं तो जीवन में कम से कम एक बार अमरनाथ यात्रा जरूर करनी चाहिए.