Advertisement

कहां विलुप्त हो गई सरस्वती नदी, क्यों आज भी धारा के बह निकलने की उम्मीद जगती है? पौराणिक ग्रंथ ब्रह्मलोक में देते हैं स्थान

जल को जीवन ऐसे ही नहीं कहा गया है. यह प्राणियों में पनपने वाली पिपासा (प्यास) नाम की अग्नि का शमन (प्यास बुझाने वाला) करने वाला प्राकृतिक पदार्थ है. महाकुंभ की मान्यता इसलिए भी अधिक है, क्योंकि प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि प्रयागराज में त्रिवेणी यानी तीन नदियों का संगम है. यह तीन नदियां गंगा, यमुना और सरस्वती हैं. जहां गंगा वर्तमान में परम पवित्र नदी है, जिसे मां का दर्जा प्राप्त है तो वहीं यमुना प्राचीन संस्कृतियों और सभ्यताओं की विरासत है.

सरस्वती नदी फोटो और एआई फोटो सरस्वती नदी फोटो और एआई फोटो
विकास पोरवाल
  • जैसलमेर,
  • 30 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 3:29 PM IST

जैसलमेर के मोहनगढ़ का एक वीडियो वायरल है. यहां ट्यूबवेल की खुदाई के दौरान जमीन से पानी का एक सोता फूट पड़ा और ये जलधारा इलाके में सैलाब बनकर बहने लगी. इस वीडियो के सामने आते ही फिर से ऐसे कयास लगने लगे हैं कि हो न हो सोते से निकला जल का ये प्रवाह भूमिगत हो चुकी सरस्वती नदी की ही जलधारा है. हालांकि इसे लेकर अभी कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है और कुछ फैक्ट चेक वेबसाइट्स ने इस दावे को भ्रामक भी करार दिया है. जैसलमेर का यह वीडियो तो पूरी तरह सही है, लेकिन क्या यह विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी का ही जल है, यह कहना जल्दबाजी होगी. भू वैज्ञानिक इस दिशा में जांच कर रहे हैं.

Advertisement

एक तरफ उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ-2025 का आगमन होने वाला है. इस महाकुंभ की मान्यता इसलिए भी अधिक है, क्योंकि प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि प्रयागराज में त्रिवेणी यानी तीन नदियों का संगम है. यह तीन नदियां गंगा, यमुना और सरस्वती हैं. जहां गंगा वर्तमान में परम पवित्र नदी है, जिसे मां का दर्जा प्राप्त है तो वहीं यमुना प्राचीन संस्कृतियों और सभ्यताओं की विरासत है. इस दोनों से ही अलग सरस्वती वह नदी है, जो सबसे प्राचीन है. यह योग, अध्यात्म, चेतना और शास्त्रों की विरासत को खुद में समेटे रखने वाली वह नदी है, जिसके किनारे सबसे पहले सभ्यता जन्मी. वेदों के सूक्त यहीं लिखे गए हैं और मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने इसी पवित्र नदी के किनारे श्लोकों के संकलन गढ़े.

ऋग्वेद में सरस्वती

Advertisement

किसी भी सभ्यता के पनपने, फलने-फूलने और विकसित होने में जल का बहुत बड़ा महत्व है. जल को जीवन ऐसे ही नहीं कहा गया है. यह प्राणियों में पनपने वाली पिपासा (प्यास) नाम की अग्नि का शमन (प्यास बुझाने वाला) करने वाला प्राकृतिक पदार्थ है. यह यज्ञ, शुचिता, भोजन, प्रवाह, गमन और ऊर्जा सभी की पूर्ति करने वाला है. ऐसे में जब वैदिक सभ्यता अभी पनप रही थी तो इसने सरस्वती नदी के तट को अपने अनुकूल पाया. यह तट हरा-भरा था. जीवन की जरूरत के सभी तत्व, पदार्थ और अवस्थाएं यहां मौजूद थीं. ऐसे में ऋषियों ने यहीं अपने आश्रम बसाए और फिर बाद में इसे सामाजिक व्यवस्था और ढांचे में बांटा. 

यह सब कुछ सरस्वती नदी की ही वजह से संभव हो पाया इसलिए वशिष्ठ, अत्रि, दीर्घतमस, अंगिरस, मधुच्छन्दा आदि सभी ऋषियों ने सरस्वती नदी को माता कहा और इसे देवी कहकर संबोधित किया गया. ऋग्वेद के नदी सूक्त में कई नदियों का वर्णन हैं, लेकिन इसके एक सूक्त में सरस्वती नदी को नदीतमा कहा गया है. नदीतमा का अर्थ है, नदियों में सबसे उच्च और पवित्र. 

ऋग्वेद के सातवें मंडल में सरस्वती नदी का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है. ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती को न केवल भौगोलिक नदी के रूप में, बल्कि एक दैवी शक्ति और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित किया है. 

Advertisement

"प्र सरस्वती धारया परावतु सनेमि यज्ञं प्रतिदोषमूर्जम्।
होतर्यज्ञं सरस्वत्याविष्कृतं वचो यत्सत्यं वि वदन्ति देवाः।" (ऋग्वेद 7.96.2)

" इस सूक्ति श्लोक में कहा गया है कि, हे सरस्वती! आपकी दिव्य धारा के द्वारा मैं यज्ञ को संपन्न करता हूं, जो प्रतिदिन ऊर्जा प्रदान करता है. हे होता (यज्ञ करने वाले पुरोहित), उस यज्ञ को संपन्न करें जिसे सरस्वती प्रकट करती हैं और देवता सत्य वचन के रूप में प्रकट करते हैं."

ऋग्वेद ही वह पहली जगह है, जहां सरस्वती को ध्वनि उत्पन्ना कहकर पुकारा गया है. एक सूक्ति में कहा गया है कि सरस्वती नदी के कल-कल प्रवाह में सात तरह के सुरों को प्रकट करने की क्षमता है. इसी सूक्त के जरिए पहली बार देवी सरस्वती को सुरदेवी कहा गया है. बाद में यही सुरदेवी विशेष, आगे चलकर वाग्देवी, संगीत की देवी, सुरदायिनी जैसे विशेषणों में भी बदलता चला गया है.

"सप्त स्वसारः सरथं तासां सरस्वती वयः।
पतिं वहन्त्यायुंषि कवये कृताद्रयः।" (ऋग्वेद 7.95.2)

(भाव- कल-कल ध्वनि ऐसी है कि सरस्वती नदी अपने सात सुरों के रथ पर सवार हैं और यह जीवन में प्राण और चेतना का प्रवाह बना रहे हैं. शुभ फल और आयुष्मान बनाने वाली यह नदी माता, कवियों को काव्य, ऋषि को ऋचा और पंडित का पांडित्य और ज्ञानी को ज्ञान के रूप में कृपा देती हैं. सरस्वती का आशीर्वाद केवल विद्वान और कवियों को ही नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को आयु, जीवन के मार्ग पर चलने की शक्ति और सत्य की दिशा प्रदान करता है.)

Advertisement

ऋषि वशिष्ठ ने नदी सूक्त में जिन सभी नदियों का वर्णन किया है, उनमें सरस्वती प्रमुख हैं. ऋषि वशिष्ठ ने सरस्वती को न केवल भौगोलिक नदी के रूप में, बल्कि एक दैवी शक्ति और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित किया है.
इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तया-र्जीकिये शृणुह्या सुषोमया

नदी सूक्त में उल्लिखित प्रमुख नदियाँ:
सिंधु (इंद्र की प्रिय नदी, सबसे महत्वपूर्ण और महान मानी गई.)
सरस्वती (ज्ञान और वैदिक सभ्यता की केंद्रबिंदु.)
गंगा (पतित पावनी)
यमुना (कृष्णप्रिया)
सतलज (शुतुद्रि)
विपासा (ब्यास)
परुष्णी (रावी)
अस्किनी (चेनाब)
वितस्ता (झेलम)
कुभा (काबुल नदी)
गोमती
कृष्णावेणी
सरयू (तमसा)

पौराणिक काल में सरस्वती
वैदिक काल के बाद जब पौराणिक युग आता है, जिनमें पुराणों की रचना हुई और पुराण कथाएं लिखी गईं, तब तक सरस्वती के किनारे पनपी सभ्यता का फैलाव अन्य मैदानी इलाकों में हो चुका था. लिहाजा यह प्राचीन समय जैसे-जैसे लुप्त होता गया, सरस्वती नदी भी लुप्त होने की ओर बढ़ चली. पुराण कथाओं में सरस्वती के नदी रूप से अधिक उनकी चर्चा त्रिदेवियों में पहली देवी के रूप में अधिक होती है. जिसमें वह कई जगहों पर ब्रह्मा की ब्राह्मी शक्ति सरस्वती के रूप में सामने आती हैं. 

इनका स्थान ब्रह्मलोक में हैं. वह वीणा वादिनी हैं. शु्भ्र सफेद हंस उनका वाहन है, जो कि ज्ञान का प्रतीक है. स्फटिक की माला धारण करती हैं. ज्ञान की देवी होने के कारण वेदों की वाणी भी वही हैं और सुर की देवी भी हैं. बल्कि ब्रह्मा उनकी ही सहायता से संसार की रचना करते हैं और देवी सरस्वती के कारण ही इस संसार में स्वर हैं, गूंज है. ध्वनि का प्रवाह है. जब तक देवी नहीं थीं तो यह संसार रंग-बिरंगा तो था, लेकिन शांत था. 

Advertisement

ऐसी हुई देवी सरस्वती की उत्पत्ति
इस बारे में एक जैसी ही कथा, विष्णु पुराण, वामन पुराण और नारद पुराण में मिलती है. कथा का सार कुछ यूं है कि, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की, लेकिन वह प्रसन्न नहीं थे. सृष्टि मौन थी और ब्रह्मा रिक्तता (खालीपन) का अनुभव कर रहे थे. इस रिक्तता (खालीपन) की प्रेरणा से उन्होंने एक स्त्री देवी की कल्पना की और उनका सृजन किया. जब देवी ने अपनी वीणा की तान छेड़ी तो झरनों में शोर आया. नदियां कल-कल करने लगीं. पक्षी चहचहाने लगे. यानी सृष्टि रस से भर गई. यह देख ब्रह्मा भी प्रसन्न हुए.

चूंकि देवी के आने से सृष्टि से सरस हुई थी, इसलिए इन्हें सरस्वती का नाम दिया गया. शब्द और नाद की उत्पत्ति को स्वर देने के कारण वह वाणी की देवी भी कहलाईं और श्रुतियों के संकलन के कारण वेदों का ज्ञान भी उन्हीं से प्राप्त हुआ. ब्रह्मदेव ने जिस पावन दिन देवी की उत्पत्ति की कल्पना की वह समय माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि का था. इसी कारण इस दिन को वसंत पंचमी कहते हैं और देवी सरस्वती की पूजा करते हैं. पंचमी होने के कारण इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है. बहुत शुभ तिथि होने के कारण यह दिन अबूझ तिथि कहलाता है. यानि कि इस दिन किसी शुभ कार्य को करने के लिए ग्रह-नक्षत्र का विचार नहीं करना पड़ता है.

Advertisement

इस तरह पुराणों में सरस्वती अपने नदी रूप से उठकर देवी के रूप में स्थापित हुई हैं. बल्कि पुराणों में तो यह भी कथा कही गई है कि देवी सरस्वती जो कि ब्रह्मलोक में ब्रह्मदेव के साथ निवास करती हैं, एक श्राप के कारण उन्हें ही धरती पर नदी रूप में आना पड़ा था. 

जब ऋषि दुर्वासा से श्रापित हुईं सरस्वती

श्राप की यह कथा ऋषि दु्र्वासा से जुड़ी हुई है. इसके अनुसार एक बार ऋषि दु्र्वासा वेद ज्ञान के लिए ब्रह्मलोक गए. वहां वह ब्रह्मदेव से वेद की ऋचाएं सीख रहे थे. वेद की ऋचाएं गायन के पद में थीं. ब्रह्मदेव तो उन ऋचाओं को गाकर सुना रहे थे, लेकिन जब ऋषि दुर्वासा उन्हें दुहरा रहे थे तो वह अपनी मोटी आवाज में उन्हें स्वर में नहीं गा पा रहे थे. इस वजह से श्लोक के अक्षर और श्रुतियों में भी त्रुटि हो रही थी. बार-बार एक ही गलती के कारण और उनकी मोटी आवाज वाले स्वर सुनकर पास बैठीं सरस्वती नदी खिलखिला कर हंस पड़ी. 

पल में क्रोधित हो जाने वाले ऋषि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और देवी सरस्वती को अहंकारी बता दिया. तब उन्होंने देवी सरस्वती को श्राप दिया कि जिस स्वर और वाणी के कारण आपको अहंकार हो गया है, अब वही स्वर और वाणी स्थल पर पानी की तरह बिखर जाएगा. जो दिव्य स्वर और वाणी अभी हर किसी के लिए दुर्लभ है, वह धरती पर सहज और सुलभ होकर बहेगा. उनके इस श्राप के कारण ही सरस्वती अगले ही पल जलधारा में बदल गईं और ब्रह्नलोक से गिरकर धरती पर आ गईं.

Advertisement

इस कथा को न सिर्फ सरस्वती के श्राप से जोड़कर देखा जाता है, बल्कि इसे पुराणों में धरती पर जल के आगमन की पहली कथा के तौर पर भी देखा जाता है. इसी कथा के अनुसार धरती पर सरस्वती नदी का प्रवाह आया. 

नदी के लुप्त होने की वजह भी एक श्राप

देवी सरस्वती का नदी रूप में आना ही नहीं, बल्कि यहां लुप्त हो जाने की भी वजह एक श्राप ही है. अभी आप चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम जाते हैं तो यहां माणा गांव के समीप पहाड़ी सोतों से गर्जना के साथ सरस्वती नदी का उद्गम होता हुआ देखा जा सकता है. हालांकि कुछ दूर चलने के बाद ही यह नदी उसी गांव की सीमा से भूमिगत हो जाती है. इसकी कई सारी वीडियो इंटरनेट और सोशल मीडिया पर मौजूद हैं. सरस्वती नदी का जल यहां क्यों विलुप्त हो जाता है, इसके पीछे भी एक कथा है, जो कि महाभारत काल से जुड़ती है. 

इसके अनुसार, महर्षि वेदव्यास के आग्रह पर विनायक श्रीगणेश ने महाभारत कथा का लेखन यहीं बद्रीनाथ धाम के पास स्थित एक गुफा में किया था. जिस समय गणेश जी व्यास जी से सुनकर श्लोक लिखते तब सरस्वती नदी अपनी तेज गर्जना के साथ उन्हें परेशान करतीं. इससे वह सही श्लोक नहीं सुन पा रहे थे. उन्होंने देवी से अपने वेग और प्रवाह को मंद करने के लिए कहा, लेकिन देवी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. तब क्रोध में आए गणेश जी ने उन्हें भूमिगत हो जाने का श्राप दिया. इसके कारण ही हिमालय की कंदराओं से निकलती सरस्वती नदी माणा गांव की ही सीमा पर धरती के भीतर लुप्त होती दिखाई देती हैं. 

कहते हैं कि प्राचीन काल में तीर्थराज प्रयाग में तीनों नदियों का संगम होता था, लेकिन जब श्राप के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गईं तब यहां गंगा-यमुना का संगम होता तो दिखता है, लेकिन मान्यता है कि आज भी सरस्वती नदी की एक धारा भूमिगत होकर ही इन नदियों के साथ मिलती है और यहां अदृश्य त्रिवेणी का निर्माण करती हैं. 

रामायण काल में सरस्वती
वाल्मीकि रामायण में जब भरत कैकय देश से अयोध्या पहुंचते हैं तब उनके आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है. आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं कि 'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्' यानी भरत ने सरस्वती, के साथ गंगा और यमुना के युग्म वाले विशाल जल भंडार को पार किया.

महाभारत में सरस्वती 
सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है. इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी. जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे 'विनशन' कहते थे. महाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है. सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किये थे. वर्णन है कि कर्ण ने भी जीवन का अंतिम दान सरस्वती के तट पर ही किया था. महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है.

भागवत और अवेस्ता में सरस्वती
श्रीमद्भागवत "श्रीमद् भागवत (5,19,18)" में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है. "मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" "मेघदूत पूर्वमेघ" में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है. वह लिखते हैं कि "कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर 'सरस्वती' कहा जाने लगा. यहां तक कि पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है.

सरस्वती सिर्फ एक देवी नहीं, एक नदी नहीं, जल का मात्र एक प्रवाह नहीं बल्कि युगों और सदियों से हमारी सभ्यता और विरासत को अपने में समेटने वाली धरोहर है. वह है या नहीं है, फिर भी अगर हिमालय से लेकर दक्षिण में सागर तट तक फैले भू-भाग का इतिहास लिखा जाएगा और भूगोल मापा जाएगा को सरस्वती इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर सामने आएगी.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement