Advertisement

साइंस न्यूज़

क्या गायब हो गए कच्छ के रण में खिचड़ी खाने वाले सियार, हैरान करने वाली है कहानी

आदित्य बिड़वई
  • नई दिल्ली,
  • 06 जून 2021,
  • अपडेटेड 5:16 PM IST
  • 1/8

मांस खाने वाले जीव अगर शाकाहारी खाने लगे तो हैरानी होती है. लेकिन गुजरात के कच्छ के रण में एक ऐसी जगह है जहां पर सदियों से सियार खिचड़ी खाने आते हैं. कच्छ के रण से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित है काला डूंगर पहाड़. दुनिया भर से पर्यटक यहां रण ऑफ कच्छ का नजारा ऊंचाई से देखने के लिए आते हैं. लेकिन यहां आते ही उन्हें एक अलग नजारा देखने को मिलता है, जो प्राकृतिक नियमों के खिलाफ जाता है. यहां सियार खिचड़ी खाते हुए दिख जाते हैं. (फोटोः  हीरालाल राजदे खावड़ा )

  • 2/8

काला डूंगर पहाड़ पर दत्तात्रेय मंदिर है. यहां सैकड़ों सालों से सियार रोजाना शाम को मंदिर में मिलने वाला खिचड़ी का प्रसाद खाने के लिए आते रहे हैं, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि पिछले 8 -10 वर्षों से यह सिलसिला थम गया है. अब उतनी मात्रा में सियार नहीं आते जितना पहले आते थे. एक तो पर्यटकों का बढ़ना, दूसरा आसपास के इलाकों में इंसानी बस्तियों का आकार लेना. इसकी वजह से ये सियार अब आवाज लगाने पर भी खिचड़ी खाने नहीं आते. (फोटोः हीरालाल राजदे खावड़ा)

  • 3/8

इस बारे में दत्तात्रेय मंदिर के प्रमुख हीरालाल राजदे खावड़ा ने आजतक को बताया कि पहले 60-70 के झुंड में सियार यहां खिचड़ी प्रसाद खाने आते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अब सियार यहां आते नहीं है. यदि आते भी हैं तो केवल इक्का-दुक्का. जो कि चिंताजनक है. सियारों को खिचड़ी खिलाने की परंपरा यहां पिछले 200-300 सालों से चली आ रही है. वे रोजाना शाम को मंदिर के पास बने चबूतरे ‘लोंग प्रसाद ओटलो’ पर आवाज देने पर आते थे, अब वो दिखाई तक नहीं देते. (फोटोः  हीरालाल राजदे खावड़ा)

Advertisement
  • 4/8

हीरालाल राजदे खावड़ा ने आगे बताया कि मैं 72 साल का हूं बचपन से मंदिर पर सियारों का झुंड देखता आया हूं. मेरे पूर्वज भी यहां सियारों के झुंड के खिचड़ी खाने की बातें बताते आए हैं. लेकिन पिछले 8-10 साल में टूरिस्ट यहां काफी बढ़ गए हैं. लोग यहां सियारों की फोटो खींचने चले जाते हैं जिससे सियार डर जाते हैं. अब उन्होंने यहां आना कम कर दिया है. (फोटोः  हीरालाल राजदे खावड़ा )

  • 5/8

क्या सियारों की संख्या कम होने के पीछे कोई बीमारी तो नहीं ?

वहीं, सियारों पर रिसर्च कर चुकी निमिषा श्रीवास्तव का कहना है कि काला डूंगर इलाके में सियारों की अच्छी खासी तादाद है. लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि साल 2003 में भुज में आए भूकंप के बाद यहां सियारों की संख्या कम हो गई. निमिषा ने बताया कि जब वो काला डूंगर में सियारों पर रिसर्च करने गई तो उन्हें भी एक या दो सियार ही नजर आए. (फोटोः हीरालाल राजदे खावड़ा)

  • 6/8

निमिषा ने स्थानीय मालधारी समुदाय के लोगों से जब बात की तो उन्होंने भी भूकंप के बाद यहां सियारों की संख्या में कमी होने की बात कही.  साथ ही यह भी शंका जताई कि सियारों की संख्या में कमी आने के पीछे कोई बीमारी भी हो सकती है. हालांकि, उनका कहना है कि बीमारी को लेकर अब तक कोई रिसर्च सामने नहीं आई है. (प्रतीकात्मक फोटोः गेटी)

Advertisement
  • 7/8

कच्छ ईस्ट फ़ॉरेस्ट डिविजन के डिप्टी कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट हर्ष ठक्कर ने बताया कि सियारों की संख्या क्यों कम हुई जब हमने इस बात का पता लगाया तो इसके पीछे कई बातें सामने आई. उन्होंने बताया कि सियार काला डूंगर इलाके में अच्छी तादाद में पहले मौजूद थे लेकिन जंगली सूअरों की संख्या बढ़ने की वजह से सियारों ने मंदिर की तरफ आना कम कर दिया है. इसके अलावा टूरिस्ट बढ़ने की वजह से भी सियार अब मंदिर में नहीं आते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सियारों की संख्या कम हुई है. आज भी काला डूंगर पहाड़ के आसपास अच्छी खासी तादाद में सियार हैं. (प्रतीकात्मक फोटोः  गेटी)

  • 8/8

सियारों को खिचड़ी खिलाने की परंपरा कब से शुरू हुई....

दत्तात्रेय मंदिर के प्रमुख हीरालाल राजदे खावड़ा बताते हैं कि ऐसी मान्यता है कि गुरु दत्तात्रेय घूमते हुए काला डूंगर पहाड़ की ओर पहुंचे थे. यहां उन्होंने एक सियार को भोजन के लिए तड़पते देखा. उनके पास सियार को खाने में देने के लिए कुछ नहीं था इसलिए गुरु दत्तात्रेय ने 'ले अंग' कहकर अपनी उंगली सियार को खाने के लिए दी. लेकिन सियार ने उसे खाने से मना कर दिया. इससे प्रसन्न होकर गुरु दत्तात्रेय ने सियारों को वरदान दिया कि वो कच्छ में कभी भूखे नहीं मरेंगे. कहते हैं उसके बाद से काला डूंगर में मंदिर बना. यहां सैकड़ों वर्षों से सियारों को गुड़ से बनी खिचड़ी खिलाई जाती है. (फोटोः हीरालाल राजदे खावड़ा)
 

Advertisement
Advertisement