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साइंस न्यूज़

Mt. Everest Ice Loss: दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ से 32 साल में इतना ग्लेशियर पिघला जितना 2000 साल में बनता

ऋचीक मिश्रा
  • रूड़की/नई दिल्ली,
  • 08 फरवरी 2022,
  • अपडेटेड 5:02 PM IST
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माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) के ग्लेशियर के पिघलने के दर को समझने के लिए अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने साल 2019 में माउंट एवरेस्ट पर चढाई की. ताकि सही अंदाजा लगाया जा सके. वैज्ञानिक 8000 मीटर यानी 26 हजार फीट की ऊंचाई तक साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) तक गए. ताकि जलवायु परिवर्तन की वजह से हुए बर्फ के नुकसान का सटीक अंदाजा लगा सके. (फोटोः मॉरिज पोटोकी/नेचर)

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स्टडी में शामिल  IIT रूड़की के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट के पीएचडी स्कॉलर और काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के सदस्य प्रवीण कुमार सिंह ने aajtak.in से बातचीत में बताया कि हमने एवरेस्ट पर दो वेदर स्टेशन तैनात किए. ताकि ग्लेशियर के केंद्र से बर्फ का सैंपल जमा कर सकें. जांच में पता चला साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) 80 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहा है. यह स्टडी हाल ही में जर्नल npj Climate and Atmospheric Science में प्रकाशित हुई है. (फोटोः गेटी)

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साल 1990 से अब तक एवरेस्ट के साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) से इतनी बर्फ पिघली जितनी जमने में 2000 साल लगते. यह ग्लेशियर हर साल इतनी बर्फ खो रहा है जितनी बनने में एक दशक लगता. प्रवीण सिंह ने बताया कि हमारी टीम यह जानना चाहती थी कि क्या एवरेस्ट जैसी ऊंचाई वाले इलाकों पर मौजूद ग्लेशियरों पर भी इंसानी गतिविधियों का असर है. क्या वहां भी क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग का असर होता है. जवाब मिला- हां. होता है. कम से कम 1990 के बाद से तो स्थितियां लगातार बिगड़ती जा रही हैं.  (फोटोः गेटी)

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अगर एवरेस्ट के ग्लेशियर इतनी तेजी से पिघलते रहे तो इसका नुकसान पूरी इंसानियत को होगा. कमजोर ग्लेशियरों की वजह से ज्यादा हिमस्खलन हो सकता है. ग्लेशियर के नीचे जमे पत्थरों को बाहर आने से पर्वतारोहियों के लिए रास्ता और दूभर हो जाएगा. फिर एवरेस्ट पर चढ़ाई करना आसान नहीं होगा.  (फोटोः गेटी)

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इस स्टडी को करने के लिए 10 वैज्ञानिक साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) के बेस तक पहुंचे. फिर वहां पर उन्होंने दो वेदर डिटेक्शन स्टेशन लगाए. पहला 27,600 फीट और दूसरा 26,200 फीट पर. इसके अलावा टीम ने ग्लेशियर के बीच से बर्फ निकालने के लिए 10 मीटर गहरी ड्रिलिंग भी की. जिससे पता चला कि समय के साथ ग्लेशियर की बर्फ की परतों को मोटाई कम होती जा रही है. ये समय के साथ लगातार बदल रही है.  (फोटोः गेटी)

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जब डेटा हाथ में आ गया तब वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर मॉडल्स पर ग्लेशियर के पिघलने और जमने का सिमुलेशन चलाया. जिससे पता चला कि साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) ने पिछले 25 साल में 180 फीट बर्फ खो दी है. हालांकि इसमें सिर्फ इंसानी गतिविधियां ही जिम्मेदार नहीं है. इसके साथ तेज हवाएं, आद्रता में बदलाव भी बर्फ पिघलने में मदद करते हैं. लेकिन इंसानों द्वारा किया जा रहा जलवायु परिवर्तन सबसे ज्यादा असरदार है.  (फोटोः गेटी)

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प्रवीण कुमार सिंह ने बताया कि साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) पर क्लाइमेट चेंज के असर का सबूत मिला है. ये ग्लेशियर 1950 के दशक से ही पतला होने लगा था. 1990 के दशक तक आते-आते बर्फ पिघलने की दर बहुत ज्यादा बढ़ गई. जब ग्लेशियर बर्फ से ढंकी होती है, तब उसकी ऊपरी परत धीरे-धीरे बनती है. यानी जब गिरी बर्फ जमेगी और लंबे समय तक तापमान सही रहेगा, तब ही वह ग्लेशियर के साथ जुड़ती है.  (फोटोः गेटी)

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लेकिन होता ये है कि गिरी हुई बर्फ तेजी से पिघल जा रही है. जिससे ग्लेशियर की परत सूरज की रोशनी के सीधे संपर्क में आ रहा है. सफेद बर्फ की परत जो ग्लेशियर को सूरज से बचाती थी, अब वह नहीं बचा पा रही है. नतीजा सूरज की तेज रोशनी और बढ़ती वैश्विक गर्मी की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) तेजी से पिघल रही है. यह अंदाजा आप वहां की तस्वीरों में भी देखकर लगा सकते हैं.  (फोटोः गेटी)

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हिमालय में साउथ कोल ग्लेशियर (South Col Glacier) की स्टडी की गई है. जबकि यहां ऐसे कई ग्लेशियर होंगे जो तेजी से पिघल रहे हैं. जब एवरेस्ट जितनी ऊंचाई पर मौजूद ग्लेशियर की ऐसी हालत है तो सोचिए उससे नीचे के स्तर पर मौजूद ग्लेशियरों की क्या ही हालत होगी. हिमालय पर मौजूद ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों से 100 करोड़ लोगों को पीने और सिंचाई के लिए पानी मिलता है. (फोटोः गेटी)

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इससे पहले भी आई एक स्टडी में ऐसी ही चेतावनी दी गई थी. जिसमें कहा गया था कि ग्लोबल वॉर्मिंग से हिमालय के ग्लेशियर असाधारण गति से पिघल रहे हैं. पिघलने की गति इतनी ज्यादा है कि इससे भारत, नेपाल, चीन, बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान समेत कई देश अगले कुछ सालों में पानी की भयानक किल्लत से जूझने वाले हैं. क्योंकि इन देशों की ज्यादातर नदियां तो हिमालय के ग्लेशियर से निकली हैं. चाहे वह गंगा, सिंध हो या फिर ब्रह्मपुत्र. (फोटोः गेटी)

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वैज्ञानिकों ने स्टडी के दौरान देखा कि हिमालय के ग्लेशियर पिछले कुछ दशकों में 10 गुना ज्यादा गति से पिघले हैं. जबकि, छोटा हिमयुग (Little Ice Age) यानी 400 से 700 साल पहले ग्लेशियरों के पिघलने की गति का औसत बेहद कम था. जबकि पिछले कुछ दशकों में यह बेहद तेजी से बढ़ा है. जिसकी मुख्य वजह ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज है.  (फोटोः गेटी)

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यह स्टडी Nature जर्नल में 20 दिसंबर को प्रकाशित हुई है. जिसमें स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि कैसे हिमालय के ग्लेशियर दुनिया के अन्य ग्लेशियरों की तुलना में ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं. इंग्लैंड में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के वैज्ञानिकों ने यह स्टडी की है. इन वैज्ञानिकों ने छोटा हिमयुग (Little Ice Age) के बाद से अब तक हिमालय के 14,798 ग्लेशियरों का अध्ययन किया. उनकी सतह, बर्फ का स्तर, मोटाई, चौड़ाई और पिघलने के दर की स्टडी की गई.  (फोटोः गेटी)

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वैज्ञानिकों ने अपनी स्टडी में पाया कि इन ग्लेशियरों ने अपना 40% हिस्सा खो दिया है. ये 28 हजार वर्ग किलोमीटर से घटकर 19,600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर आ गए हैं. इस दौरान इन ग्लेशियरों ने 390 क्यूबिक किलोमीटर से 590 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ खोया है. इनके पिघलने की वजह से जो पानी निकला है, उससे पूरी दुनिया के समुद्री जलस्तर में 0.92 मिलीमीटर से 1.38 मिलीमीटर की बढ़ोतरी हुई है.  (फोटोः गेटी)

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यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के साइंटिस्ट और इस स्टडी के लेखक जोनाथन कैरिविक ने बताया कि हमारी स्टडी में यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि पिछली कुछ सदियों की तुलना में वर्तमान कुछ सालों में हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने का दर 10 गुना ज्यादा है. इंसानों द्वारा किए जा रहे जलवायु परिवर्तन और वैश्विक गर्मी की वजह से पिछले कुछ दशकों में हिमालय के ग्लेशियर ज्यादा तेजी से पिघले हैं.  (फोटोः गेटी)

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आर्कटिक और अंटार्कटिका के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा ग्लेशियर वाला बर्फ हिमालय पर है. इसलिए इसे कई बार तीसरा ध्रुव (Third Pole) भी कहा जाता है. जिस गति से हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उससे भविष्य में कई एशियाई देशों में पीने के पानी की किल्लत होगी. क्योंकि एशिया की कई प्रमुख नदियों की प्रणाली इन्हीं ग्लेशियरों से निकली है. इनमें सबसे प्रमुख हैं ब्रह्मपुत्र, सिंधु और गंगा नदी. (फोटोः रॉयटर्स)

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