आपने अक्सर देखा होगा कि जब किसी बंदर का बच्चा मर जाता है तो उसकी मां यानी बंदरिया उसके शव को लेकर कई घंटों या दिनों तक घूमती रहती है. उस शव को संभालती रहती है, उसका ख्याल रखती है. ये काम वो तब तक करती है, जब तक बच्चे का शव सड़ने नहीं लगता या फिर वह ममी नहीं बन जाता. कई दशकों से इस पहेली का राज खुल नहीं रहा था लेकिन अब जीव विज्ञानियों ने स्टडी करके इसका जवाब खोज लिया है. (फोटोःगेटी)
इस स्टडी में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 400 से ज्यादा पूर्व अध्ययनों का विश्लेषण किया गया है. इन अध्ययनों में बंदरों की अलग-अलग प्रजातियों के बंदरों की इस हरकत को शामिल किया गया था. इन अध्ययनों में इस बात का जिक्र किया गया था कि कैसे मादा बंदर अपने मृत बच्चे के शव के साथ व्यवहार करती है. ये 400 अध्ययन कई सदियों में जुटाए गए डेटा के आधार पर किए गए थे. अब वैज्ञानिकों के पास बंदरों की 50 प्रजातियों में इस तरह के व्यवहार का दस्तावेज है. (फोटोःगेटी)
इस नई स्टडी में यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मादा बंदर अक्सर ऐसा क्यों करती हैं. हालांकि इसमें कई तरह के फैक्टर्स लागू होते हैं. जैसे मादा बंदर और बच्चे की उम्र, युवा या नवजात बच्चे की मौत की वजह और मादा बंदर का सामान्य व्यवहार. मादा बंदर अपने बच्चे के मरने के बाद मानसिक रूप से इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती कि अब जिस शरीर को लेकर वह घूम रही है, उसमें जान नहीं है. (फोटोःगेटी)
इंग्लैंड के यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ एंथ्रोपोलॉजी की प्राइमेटोलॉजिस्ट यानी बंदरों की विशेषज्ञ और इस स्टडी की प्रमुख लेखक एलिसा फर्नाडेंज फुयो ने कहा कि हमनें 20वीं सदी की शुरुआत से अपनी स्टडी को शुरु किया है. इसमें पहली स्टडी 1915 की है. जिसके बारे में जर्नल ऑफ एनिमल बिहेवियर में रिपोर्ट प्रकाशित हुई है. इसमें भी इस बात का जिक्र किया गया था कि कैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चों के शव को लेकर घूमते रहती है. (फोटोःगेटी)
1915 की स्टडी में प्राइमेटोलॉजिस्ट और साइकोलॉजिस्ट रॉबर्ट यर्क्स ने लिखा है कि रीसस मकाऊ बंदर यानी लाल मुंह वाले बंदर कई बार अपने मृत बच्चों को लेकर पांच हफ्ते तक घूमते रहते हैं. रॉबर्ट ने लिखा था कि यह व्यवहार मादा बंदर की ममता की एक पराकाष्ठा है यानी एक गंभीर स्तर की मानसिक सीमा जो उसे अपने बच्चे को छोड़ने से रोकती है. नई स्टडी में 1915 से लेकर 2020 तक की ऐसी घटनाओं का विश्लेषण किया गया है. (फोटोःगेटी)
एलिसा की स्टडी में सामान्य लाल मुंह के बंदरों, एप्स, बुशबेबीज और लेमूर्स समेत 50 प्रजातियों के बंदरों का अध्ययन किया गया है. ये सभी अपने मृत बच्चों के शवों को लेकर कई घंटों, दिनों या हफ्तों तक घूमते रहते हैं. उनका ख्याल रखते हैं. बंदरों की प्रजातियों में से 80 फीसदी ऐसे हैं जो इस व्यवहार को सामान्य तौर पर करते हैं. हालांकि, ये हरकत सबसे ज्यादा ग्रेट एप्स (Great Apes) करते हैं. क्योंकि ये दुनिया के सबसे पुराने बंदर हैं. (फोटोःगेटी)
एलिसा ने अपनी स्टडी में बताया है कि मार्च 2020 में मादा बबून बंदरों ने अपने बच्चों के शवों को 10 दिनों तक अपने साथ रखा. साल 2017 में मादा मकाऊ बंदर ने अपने मरे हुए बच्चे को चार हफ्तों तक अपने साथ घुमाया. हालांकि बाद में इस बच्चें के सड़े हुए शव को बंदरों के समूह ने खा लिया. साल 2003 में दो चिम्पैंजी नवजात फेफड़ों से संबंधित बीमारी से मर गए. उनकी मांओं ने उनके शवों को कई महीनों तक अपने साथ रखा, जब तक वो पूरी तरह से सड़ नहीं गए. (फोटोःगेटी)
बंदरों की प्रजाति में लैमूर (Lemurs) इकलौते ऐसे बंदर हैं जो अपने मृत बच्चों को साथ लेकर नहीं घूमते. ऐसा नहीं है कि मादा लैमूर बंदर दुख प्रकट नहीं करती. लेकिन उसका तरीका अलग होता है. ये बार-बार अपने बच्चे के शव के पास आती है. उसके पास समय बिताती है फिर वापस चली जाती है. इसे वैज्ञानिक मदर-इन्फैंट कॉन्टैक्ट कॉल्स (Mother-infant contact calls) कहते हैं. (फोटोःगेटी)
एलिसा कहती हैं कि बंदरों की कुछ प्रजातियां तो इतनी ज्यादा गंभीर होती हैं कि वो अपने मरे हुए बच्चों के शवों को छोड़ना पसंद ही नहीं करती. ये आमतौर पर तब होता है जब बच्चे की मौत किसी बीमारी से हो. अगर उसकी मौत एक्सीडेंट या किसी हादसे में होती है तो वो उसे कुछ दिन में छोड़ देती हैं. हां एक स्थिति और होती है जब मादा बंदर अपने मृत बच्चों को जल्दी छोड़ देती है. वो तब होता है जब मादा बंदर बेहद युवा हो. (फोटोःगेटी)
कुछ बंदरों की प्रजातियों में तो मादा बंदर से अगर उसके मृत बच्चे का शव कहीं खो जाए, गिर जाए या कोई शिकारी छीन ले तो वह पूरे समूह को अलर्ट कर देती हैं. एलिसा कहती हैं कि इसका सीधा जवाब ये है कि मादा बंदर अपने दुख को कम करने के लिए उस शव को लेकर तब तक घूमती रहती है, जब तक उसका दर्द कम नहीं हो जाता. ये दर्द मानसिक होता है. क्योंकि उन्हें इस चीज का पता नहीं होता कि मौत क्या होती है, जैसे इंसान इसे समझते हैं. यह स्टडी 15 सितंबर को प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसाइटी बीः बायोलॉजिकल साइंसेज में प्रकाशित हुई है. (फोटोःगेटी)