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गर्मी से पिघलते ग्लेशियरों के बीच उत्तराखंड में मिला तेजी से बढ़ता हुआ बेनाम ग्लेशियर

उत्तराखंड में जहां सारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वहीं एक ग्लेशियर तेजी से बढ़ रहा है. इस ग्लेशियर का फिलहाल कोई नाम तो नहीं है. लेकिन ये रांडोल्फ-रेकाना ग्लेशियर के पास मौजूद है, जो चमोली जिले के धौलीगंगा घाटी में मौजूद हैं. इस ग्लेशियर की स्टडी से भविष्य में आने वाली अप्रत्याशित घटनाओं पर नजर रखी जा सकेगी.

इस तस्वीर में जूम करके उस ग्लेशियर को दिखाया जा रहा है जिसका आकार हैरतअंगेज तरीके से बढ़ रहा है. इस तस्वीर में जूम करके उस ग्लेशियर को दिखाया जा रहा है जिसका आकार हैरतअंगेज तरीके से बढ़ रहा है.
ऋचीक मिश्रा/अंकित शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 05 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 3:07 PM IST

उत्तराखंड के चमोली जिले के धौलीगंगा घाटी में दो ग्लेशियरों के पास एक नया ग्लेशियर मिला है, जो तेजी से बढ़ रहा है. ये भारत और तिब्बत की सीमा यानी LAC के नजदीक है. इस ग्लेशियर का आकार है 48 वर्ग किलोमीटर है. ये नया ग्लेशियर नीति वैली में मौजूद रांडोल्फ और रेकाना ग्लेशियर के पास है. 

यह बेनाम ग्लेशियर 7354 मीटर ऊंचे अबी गामी और 6535 मीटर ऊंचे गणेश पर्वत के बीच 10 किलोमीटर लंबाई में फैला है. इसकी स्टडी की है ग्लेशियोलॉजिस्ट और हिमालयन एक्सपर्ट डॉ. मनीष मेहता, विनीत कुमार, अजय राणा और गौतम रावत ने. इनकी स्टडी में यह बात स्पष्ट हुई है कि यह ग्लेशियर तेजी से फैला है. बढ़ा है. 

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इन चारों की स्टडी का नाम है- Manifestations of a glacier surge in central Himalaya using multi‑temporal satellite data. जिसमें ग्लेशियर सर्ज की बात कही गई है. aajtak.in से बात करते हुए डॉ. मनीष मेहता ने बताया कि ग्लेशियर सर्ज का मतलब है कि उसके आकार का बढ़ना. 

तीन वजहों से बढ़ सकता है ग्लेशियर का आकार

जब उनसे पूछा गया कि ये कैसे हुआ तो उन्होंने कहा कि यह जिस जगह पर मौजूद है, वहां जाना संभव नहीं है. स्टडी सैटेलाइट डेटा के आधार पर किया गया है. इसकी तीन वजह हो सकती है- पहली हाइड्रोलॉजिकल इम्बैलेंसिंग. यानी पानी की पोरोसिटी से बर्फ की लेयरिंग बनती है. इससे कोहिसन कम हो जाता है. यानी बर्फ की परत की स्थिरता. इससे ये नीचे की ओर स्लिप करता रहता है. 

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देखिए कैसे 2001 से 2022 तक यह ग्लेशियर बढ़ता चला गया. 

डॉ. मेहता ने बताया कि दूसरी वजह हो सकती है थर्मल कन्ट्रॉस्ट यानी ग्लेशियर के नीचे का सरफेस स्लिपरी हो जाता है. यानी ऊपरी और निचली लेयर के बीच लुब्रीकेशन बढ़ जाता है. तीसरी वजह है सेडीमेंट्री टरे में पानी का लसलसा बन जाना. यानी चिकनाई आ जाना. इससे ऊपर परत नीचे सरकती है.  अगर ग्लेशियोलॉजिकल स्टडी मौके से करने को मिले तो ज्यादा बेहतर डेटा के साथ और बेहतर परिणाम हासिल कर सकते हैं. 

ग्लेशियोलॉजिकल डेटा की कमी है

वैज्ञानिकों का कहना है की ग्लेशियर सर्ज के संबंध में हमारे ज्ञान का सीमित होने का मुख्य कारण ग्लेशियोलॉजिकल डेटा की कमी है. सर्जिंग ग्लेशियर और जलवायु परिवर्तन के बीच के जटिल संबंध को पूरी तरह समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है. ग्लेशियरों का आकार बढ़ने से हमे उसके आसपास की वातवारण की नई जानकारी मिलती है. इससे नई पर्यावरण नीतियां बन सकती हैं. पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है. 

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किस काम आएगी यह स्टडी?

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यह शोध जलवायु परिवर्तन की वजह से भविष्य में ग्लेशियर के पैटर्न या बदलाव की निरंतर निगरानी के लिए उपयोगी हो सकता है. इसके अलावा, यदि इस ग्लेशियर के सर्जिंग के कारण कोई खतरनाक झील या GLOFs की स्थिति बनती है, तो साइंटिस्ट उससे पहले ही चेतावनी जारी कर सकेंगे.  

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