
वायरस (Virus) का रिप्रोडक्शन कातिलाना क्यों होता है? बाकी जीव अपने वंश को बढ़ाने के लिए किसी की हत्या नहीं करते. किसी को मारते नहीं. किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते. लेकिन वायरस ये काम करता है. वायरस का रिप्रोडक्शन यानी ज्यादा संक्रमण. यानी वायरस का रिप्रोडक्शन बढ़ना यानी उसकी आबादी में इजाफा... सीधा नुकसान है. जितना ज्यादा रिप्रोडक्शन... उतना ज्यादा संक्रमण फैलना.
हम आपको बताएंगे कि कोरोना वायरस ही नहीं. बल्कि दुनिया में मौजूद सारे वायरस एक ही तरीके से रिप्रोडक्शन करते हैं. जैसे हम इंसान या कोई अन्य जीव करते हैं. लेकिन वायरसों के रिप्रोडक्शन का तरीका एकदम अलग है. किसी भी वायरस को रिप्रोडक्शन करने के लिए किसी साथी की जरुरत नहीं होती. यानी वायरस में न नर होते हैं. न मादा. ये अपना ही क्लोन बनाते हैं. अपने ही शरीर से जेनेटिक मैटेरियल निकाल कर कई वायरस पैदा कर देते हैं.
इनके रिप्रोडक्शन की प्रक्रिया किसी परमाणु विस्फोट के चेन रिएक्शन की तरह होती है. एक से तीन, तीन से 9 और उसके आगे... बढ़ते रहते हैं. कोई भी वायरस सबसे पहले आपके शरीर में प्रवेश करता है. फिर वह टारगेट सेल (Cell) से चिपकता है. Cell के अंदर खुद जाता है या अपना जेनेटिक मैटेरियल छोड़ता है. जेनेटिक मैटेरियल उसी कोशिका के न्यूक्लियस में जाता है. न्यूक्लियस को खाकर उसमें मौजूद जेनेटिक मैटेरियल खुद को रेप्लीकेट करता है. यानी नए जेनेटिक मैटेरियल बनाता है.
जितना ज्यादा रिप्रोडक्शन, उतनी ज्यादा कोशिकाओं की हत्या
जितना ज्यादा जेनेटिक मैटेरियल उतने ज्यादा नए वायरस. कोशिका के अंदर मौजूद छोटे अंग इस रेप्लीकेशन में मदद करते हैं. यानी वायरस उस कोशिका को खत्म कर चुका होता है. अपने रिप्रोडक्शन के लिए कोशिका को मार चुका होता है. अब एक वायरस के कई रूप तैयार हो चुके होते हैं. यानी एक वायरस के अब कई संस (Sons) बन चुके होते हैं. ये बाहर निकलते हैं, दूसरी कोशिकाओं के साथ ही ऐसा ही करते हैं. यही प्रक्रिया पूरे शरीर में चलती रहती है. आप बीमार और बहुत बीमार होते चले जाते हैं.
अलग वैरिएंट यानी शरीर में कत्ल-ए-आम का अलग तरीका
एक ही वायरस जब तक एक जैसे संस पैदा करता रहता है, तब तक उसे एक वैरिएंट बोलते हैं. लेकिन जैसे ही वो अपने स्वरूप में बदलाव करता है, उसका वैरिएंट बदल जाता है. यहीं से खेल शुरू होता है वैरिएंट्स के बनने का. वैरिएंट्स कई तरह से बन सकते हैं. इसीलिए तो अलग-अलग वैरिएंट्स के अलग-अलग नाम दिए जाते हैं. क्योंकि हर एक वैरिएंट का रिप्रोडक्शन का तरीका तो एक जैसा है, लेकिन इस प्रक्रिया में वो शरीर के अंदर कत्ल-ए-आम मचाते हैं. हत्यारे वायरसों का इसीलिए पिछले साल WHO ने अलग-अलग नाम दिया.
कैसे पड़ते हैं वैरिएंट्स के नाम, क्या है इसका प्रोसेस?
पहले तो वैज्ञानिक जब नया वैरिएंट देखते हैं, तो उसे अंग्रेजी के अक्षर, संख्याओं और दशमलव लगाकर नाम देते हैं. जैसे कोरोना वायरस का ओमिक्रॉन (Omicron) वैरिएंट के 180 सब-वैरिएंट्स हैं. जिनके नाम BA.1, BA.2, BA.5, BQ.1 और अब BF-7. लेकिन ये सब-वैरिएंट्स हैं. वैरिएंट्स में कन्फ्यूजन न हो इसलिए WHO ने सभी बड़े वैरिएंट्स का नामकरण किया. नाम वायरस में होने वाले बदलावों के हिसाब से भी दिया जाता है. यानी अलग-अलग म्यूटेशन के साथ सामने आए अलग-अलग वैरिएंट्स के अलग नाम.
WHO दुनिया भर के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर SARS-CoV-2 वायरस और उसके वैरिएंट्स पर जनवरी 2020 से नजर रख रहा है. वायरस को दो श्रेणियों में बांटा गया. पहला- वैरिएंट्स ऑफ इंट्रेस्ट (Variants of Interest - VOIs) और दूसरा - वैरिएंट्स ऑफ कंसर्न (VOCs). ताकि वैरिएंट के हिसाब से इलाज और स्वास्थ्य संबंधी प्रबंधन किया जा सके. फिर डब्ल्यूएचओ ने जो किया वो हैरान करने वाला था. कोरोना वायरस वैरिएंट को जो नाम दिए वो ग्रीक (Greek) अक्षरों से लिए. जैसे- अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा आदि.
चिंता देने वाले Virus & Sons हैं ये वैरिएंट्स
WHO ने वैरिएंट्स के नाम उनकी भयावहता के अनुरूप रखे. सिंतबर 2020 में UK में मिले B.1.1.7 वैरिएंट को अल्फा (Alpha), मई 2020 में दक्षिण अफ्रीका में मिले वैरिएंट B.1.351 को बीटा (Beta), नवंबर 2020 में ब्राजील में मिले P.1 को गामा (Gamma), अक्टूबर 2020 में भारत में मिले B.1.617.2 को डेल्टा (Delta) नाम दिया. ये सभी वैरिएंट्स ऑफ कंसर्न की कैटेगरी में थे.
ये खतरनाक हैं... लेकिन बड़ा खतरा नहीं
अब वैरिएंट्स ऑफ इंट्रेस्ट की बात करते हैं. ऐसे कोरोना वायरस जो सामुदायिक स्तर पर या बहुस्तरीय संक्रमण फैलाते हैं. लेकिन ये वैरिएंट्स गुच्छों या समूहों में संक्रमित करते हैं. एकसाथ कई देशों में मिल सकते हैं. मार्च 2020 में अमेरिका में मिले B.1.427/B.1.429 वैरिएंट को एप्सीलोन (Epsilon), दिसंबर 2020 में कई देशों में मिले कोरोना वैरिएंट B.1.525 को एटा (Eta), फिलिपींस में जनवरी 2021 में मिले P.3 को थेटा (Theta), नवंबर 2020 में अमेरिका में मिले B.1.526 को आयोटा (Iota), अक्टूबर 2020 में भारत में मिले वैरिएंट B.1.617.1 को कप्पा (Kappa) नाम दिया गया.
फिर आया कोरोना का सबसे खतरनाक बेटा
कोरोना का सबसे खतरनाक वैरिएंट रहा है ओमिक्रॉन (Omicron). इसे दुनिया में आए हुए साल भर से ज्यादा समय हो चुका है. अब तक यह नहीं पता चला कि इतनी तेजी से ये फैला कैसे? लगातार म्यूटेशन कर रहा है. अभी नया सब-वैरिएंट BF-7 निकल आया. एक अकेली वंशावली (Lineage) पर चलने के बजाय इस वायरस ने खुद सैकड़ों वंशों में बांट दिया. इसके इतने ज्यादा वैरिएंट्स हो गए कि इंसानों का इम्यून सिस्टम समझ नहीं पाया. संक्रमण तेजी से बढ़ता चला गया. इसके कई सब-वैरिएंट्स हैं. जैसे- XBB, BQ.1.1 और CH.1.
50 से ज्यादा म्यूटेशन तो शुरू में ही कर डाले
पिछले साल नवंबर में जब ओमिक्रॉन का पता चला. तभी उसने 50 से ज्यादा म्यूटेशन कर रखे थे. यह कोरोना के अन्य वैरिएंट्स से अलग था. माना जाता है कि यह किसी ऐसे एक इंसान के शरीर में विकसित हुआ होगा, जिसका इम्यून सिस्टम बहुत कमजोर था. इसलिए यह वायरस बहुत ताकतवर बनकर उभरा. ओमिक्रॉन ने म्यूटेशन करके स्पाइक प्रोटीन में ही बदलाव कर दिया था. जिससे एंटीबॉडी उससे चिपक नहीं पा रहे थे. ओमिक्रॉन तेजी से फैलता चला गया.
180 से ज्यादा सब-वैरिएंट्स बनते गए ओमिक्रॉन
पूरी दुनिया में ओमिक्रॉन (Omicron) के 180 सब-वैरिएंट्स बने थे. अब तो इससे ज्यादा हो गए होंगे. ओमिक्रॉन इवोल्यूशनरी विस्फोट के लिए ही आया है. यानी यह अपने वायरस वंश को तेजी से बढ़ाता जा रहा है. इसका हर वैरिएंट कई सब-वैरिएंट्स को पैदा कर रहा है. इसपर 40 से ज्यादा एंटीबॉडीज का प्रयोग किया गया, लेकिन कोई असर नहीं हुआ. हर इलाज के बाद यह एक नया वैरिएंट खड़ा कर देता है. इसकी वजह भी हम इंसान और हमारी इलाज पद्धत्ति है.
चार्ल्स डार्विन ने इसे 160 साल पहले समझाया था
कोरोना काल के पहले साल दुनिया के ज्यादातर लोगों में कोरोनावायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज नहीं थे. लेकिन ओमिक्रॉन के समय कई लोगों की इम्यूनिटी बन चुकी थी. एंटीबॉडीज बन चुके थे. ओमिक्रॉन के पास सिवाय म्यूटेशन के कोई चारा नहीं था. इसलिए यह लगातार तेजी से अपना स्वरूप बदल रहा था. ये वायरस उसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, जिसे 160 साल पहले चार्ल्स डार्विन ने समझाया था. उन्होंने इसे कन्वर्जेंस (Convergence) नाम दिया था.
कन्वर्जेंस यानी एक वैरिएंट दूसरे के साथ म्यूटेट करके नया सब-वैरिएंट बना रहा था. इस समय सब-वैरिएंट्स के बीच संक्रमण फैलाने और म्यूटेशन की प्रतियोगिता चल रही है. ओमिक्रॉन के सब-वैरिएंट्स किसी भी वैक्सीन को पूरी तरह से धोखा नहीं दे सकते. न ही उसके सब-वैरिएंट्स. वो कमजोर होते हैं. लेकिन ओमिक्रॉन के कन्वर्जेंस पर लगातार स्टडी जारी है. ताकि इस वायरस के इवोल्यूशन की कहानी को समझा जा सके.