
इम्फाल एयरपोर्ट पर 19 नवंबर 2023 यानी रविवार को दिखे UFO का वीडियो अब सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. वीडियो को ध्यान से देखने पर वह चीन के जासूसी वाले गुब्बारे (Spy Balloon) जैसा दिख रहा है. अब सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या चीन गुब्बारों के जरिए भारत की जासूसी तो नहीं कर रहा है?
चीन का ऐसा ही गुब्बारा इस साल अमेरिका ने मार गिराया था. जैसे ही इम्फाल एयरपोर्ट पर CISF के जवानों ने इस अनजान उड़ने वाली वस्तु को देखा. उन्होंने इसकी सूचना एयरपोर्ट के निदेशक को दी. निदेशक ने इसकी जानकारी वायुसेना को दी. इस रिपोर्ट के बाद तत्काल भारतीय वायुसेना ने अपने दो राफेल फाइटर जेट्स उस UFO की खोज में भेज दिए.
भारतीय वायुसेना ने तत्काल हाशीमारा एयरफोर्स बेस से एक राफेल फाइटर जेट को उस तरफ उड़ाया गया, जहां UFO दिखा था. लेकिन राफेल के राडार पर कोई अनजान विमान या यान नहीं दिखा. न ही पायलट ने आसमान में कोई ऐसी चीज देखी. जैसे ही पहला फाइटर जेट वापस लौटा.
शुरू कर दिया गया था एयर डिफेंस मैकेनिज्म
डबल चेक करने के लिए दूसरा राफेल भेजा गया. लेकिन उस इलाके और उसके आसपास कोई भी UFO या एलियनशिप नहीं नजर आया. लेकिन भारतीय वायु सेना के पूर्वी कमांड ने तत्काल अपना एयर डिफेंस रेसपॉन्स मैकेनिज्म शुरू कर दिया.
क्या होता है जासूसी गुब्बारा?
जासूसी गुब्बारा असल में गैस से भरा गुब्बारा होता है जो उस ऊंचाई पर उड़ता है जिस ऊंचाई पर आम नागरिक विमान उड़ते हैं. इसके नीचे बेहद जटिल कैमरे या इमेजिंग टेक्नोलॉजी लगी होती है. ये जमीन की तरफ देखते हुए अलग-अलग हिस्सों, इमारतों, क्लासीफाइड जगहों, खुफिया स्थानों की तस्वीरें लेते हैं. यानी तस्वीरों के जरिए जितनी ज्यादा सूचनाएं जमा हो सकें.
जासूसी सैटेलाइट के बजाय गुब्बारा क्यों?
अंतरिक्ष से जासूसी करने के लिए आमतौर पर सैटेलाइट्स का इस्तेमाल होता है. लेकिन ऐसे खुफिया गुब्बारों का इस्तेमाल कोई क्यों करना चाहता है. असल में सैटेलाइट्स को अलग-अलग ऑर्बिट में रखा जाता है. इसलिए मनाचाहा डेटा या तस्वीर नहीं मिल पाती. धरती की निचली कक्षा पर घूमने वाले सैटेलाइट बहुत क्लियर फोटो नहीं ले पाते. लेकिन विमान की ऊंचाई पर उड़ने वाले जासूसी गुब्बारे ये काम आसान से कर देते हैं.
सैटेलाइट अगर धरती का चक्कर लगा रहा है तो उसे उसी प्वाइंट पर आने में करीब 90 मिनट लगेंगे. इसलिए फोटो में दिक्कत आती है. लेकिन गुब्बारे के साथ ऐसा नहीं है. ये एक जगह पर काफी देर तक रुक सकता है. लगातार तस्वीरें ले सकता है. दूसरे सैटेलाइट्स जो जियोसिंक्रोनस ऑर्बिट में हैं. उनकी तस्वीरें बहुत कम ही स्पष्ट होती हैं.
क्या-क्या कर सकता है स्पाई बैलून?
जासूसी गुब्बारा के नीचे मेटालिक प्लेटफॉर्म पर कई तरह के कैमरे लगाए जा सकते हैं. आजकल जासूसी के लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम वाले कैमरों और राडारों की जरुरत पड़ती है. वो भी लग जाते हैं. इसमें विजिबल स्पेक्ट्रम पर फोकस ज्यादा रहता है. यानी सामान्य कैमरे जैसे. ये लगातार फोटो ले सकते हैं. जूम इन, जूम आउट कर सकते हैं. इसके अलावा इन पर नाइटटाइम, इंफ्रारेड कैमरा भी लगाए जा सकते हैं.
अपना रास्ता कैसे तय करते हैं ये गुब्बारे?
आमतौर पर जासूसी करने वाले गुब्बारे हवा के बहाव के साथ बहते हैं. लेकिन इनका नेविगेशन किसी तरह के फ्यूल इंजन से किया जा सकता है. हालांकि ये मौसम के रहमोकरम पर होते हैं. कई बार गाइडिंग यंत्र लगाए जाते हैं ताकि गुब्बारे की दिशा तय की जा सके. अमेरिकी प्रशासन ने दावा किया है कि चीन के गुब्बारे में प्रोपेलर लगे थे, ताकि उसका दिशा तय की जा सके. हालांकि अभी गुब्बारे के हिस्सों की जांच चल रही है. पूरी सच्चाई जांच के बाद ही पता चलेगी.
कैसे तय होता गुब्बारे का एयरस्पेस?
अगर कोई विमान या उड़ने वाली चीज कारमान लाइन यानी 100 किलोमीटर की ऊंचाई से नीचे उड़ रहा है तो वह उसकी नीचे मौजूद देश के एयरस्पेस में माना जाता है. चीन का यह गुब्बारा तो हवाई जहाज की ऊंचाई पर था. यानी अमेरिकी एयरस्पेस में था.
कौन से देश बदनाम हैं जासूसी गुब्बारों के लिए?
पिछले कुछ दशकों से अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन इन गुब्बारों की ताकत, क्षमता आदि पर स्टडी कर रहा है. पहले इस्तेमाल भी कर चुका है. लेकिन जो बदनाम देश हैं, उनमें सोवियत संघ है. इन्होंने ऐसे गुब्बारों का इस्तेमाल 1940 से 1960 के बीच करते था. उत्तर कोरिया और चीन भी इस तरह के काम करता आया है.