
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक हैरी हर्लो डिप्रेशन को जांचने के लिए इस हद तक चले गए कि शिशु बंदरों को अकेला कर दिया. बेबी मंकी महीनों या सालभर पिंजरे में अकेला रहता, जिसके बाद या तो उसकी मौत हो जाती, या बाहर आने के बाद वो दूसरे बंदरों से डरता. अमानवीय प्रयोगों पर सवाल उठने पर हर्लो ने कहा- 'मुझे बिल्लियों से घिन आती है. कुत्तों से नफरत होती है. बंदरों को भला मैं कैसे पसंद करूं?' उनके प्रयोग को दुनिया का सबसे विवादास्पद और भयानक साइकोलॉजिकल प्रयोग कहा गया.
हर्लो का वायर-मदर प्रयोग
20वीं सदी में दुनिया में कई नई खोजें हो रही थीं. मनोविज्ञान में भी एक्सपर्ट आने लगे थे, जो उदास इंसान को पागल नहीं, बल्कि डिप्रेस्ड बोलने लगे थे. साइकोलॉजिस्ट हर्लो तब अमेरिका का बड़ा नाम हुआ करते. उन्होंने डिप्रेशन पर प्रयोग करने की ठानी. इसके लिए कुछ दर्जन गर्भवती बंदरों को लिया गया और डिलीवरी होते ही बच्चों को मां से अलग एक पिंजरे में डाल दिया गया. पिंजरे में उनके पास सरोगेट मदर भी थी. वायरों से बनी इस मां के पास खाना-पानी रखा होता. वहीं फोम और कपड़े से बनी मां भी थी, जो नर्म थी.
दोनों मांओं के साथ ऐसा था व्यवहार
कुछ ही दिन में बेबी-बंदरों के तौर-तरीकों में एक पैटर्न दिखने लगा. वे भूख लगने पर वायर-मदर के पास जाते, लेकिन बाकी समय कपड़े की मां को गले लगाए रहते. कपड़े की मां को ही ये असल मां समझते. कुछ महीनों बाद वैज्ञानिक ने बंदरों से कपड़े की मां छीन ली. कूदते-फांदते बच्चों के व्यवहार में तुरंत बदलाव दिखा. वे रोने-चीखने लगे. यहां तक कि कई शिशुओं की मौत हो गई.
वैज्ञानिकों के सवाल उठाने पर हर्लो ने कहा कि वे साफ करना चाहते थे कि बच्चों के बढ़ने में सिर्फ खाने-पानी नहीं, बल्कि प्यार की भी जरूरत होती है. इसके बाद भी वे रुके नहीं, बल्कि कई और बर्बर प्रयोग करते रहे. एक का नाम था- पिट ऑफ डिस्पेअर. हिंदी में मोटा अर्थ है मायूसी का गड्ढा. इसमें वे जानवरों के छोटे बच्चों को पिंजरे में अकेला कर देते. कमरे में अंधेरा होता. बस उन्हें समय-समय पर खाना मिलता रहता.
लगातार तीन महीनों तक इस अकेलेपन के बाद बंदर ऐसे गहरे डिप्रेशन में चले गए कि उनमें खुद को चोट पहुंचाने की आदत आ गई. एक तरह से वे खुदकुशी करने की सोचने लगे. वहीं सालभर तक टोटल आइसोलेट्स बने बंदरों ने चलना-फिरना बंद कर दिया. वे मुश्किल से खाते और ऐसे ही उनकी मौत हो गई.
रेप-रैक एक्सपेरिमेंट
जिंदा बचे मादा बंदरों को एक बार फिर बेहद खौफनाक प्रयोग से गुजारा गया. उन्हें जबर्दस्ती नर बंदर के साथ संबंध बनाने को मजबूर किया गया. इसके बाद बंदर का व्यवहार और आक्रामक हो गया. यहां तक कि बच्चे के जन्म के बाद ये अपने ही बच्चे को खाने और पिंजरे से बाहर फेंकने की कोशिश करने लगीं.
हर्लो के इन प्रयोगों ने तहलका मचा दिया
किसी समय उनके दोस्त रह चुके वैज्ञानिकों ने आरोप लगाया कि हर्लो खुद डिप्रेशन के मरीज हैं और पशुओं के अलावा इंसानों पर भी ऐसे एक्सपेरिमेंट की इच्छा रखते हैं. उनके साथ लैब में काम करते बहुत से लोग छोड़-छोड़ भागने लगे. इन्हीं में से एक साइकोलॉजिस्ट चार्ल्स स्नोडॉन, जो बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के हेड बने, ने कहा कि लैब में रहना इतना डरावना होता था कि वहां काम करने वाले हरेक आदमी में आत्महत्या के खयाल आने लगे थे.
अमेरिका के इस साइकोलॉजिस्ट पर एक किताब भी लिखी गई है
लव एट गून पार्क- हैरी हर्लो एंड साइंस ऑफ अफेक्शन के मुताबिक, हैरी बचपन में दूसरे बच्चों जैसा ही था. हालांकि बचपन में उन्हें मां का उतना प्यार नहीं मिल सका, जितनी उन्हें जरूरत थी. हैरी का एक भाई बीमार था और मां उसकी देखभाल में लगी रहती थी. किताब के अनुसार तभी से हैरी डिप्रेशन का शिकार होने लगा और जवानी में पत्नी की मौत के बाद ये डिप्रेशन इतना बढ़ गया कि अजीबोगरीब और क्रूर प्रयोग होने लगे.
हर्लो के प्रयोगों, खासकर वायर-मदर को बहुत से मनोवैज्ञानिक बड़ा एक्सपेरिमेंट भी मानते हैं. उससे पहले माना जाता था कि मां चूंकि खाना देती है इसलिए ही बच्चे उससे प्यार करते हैं. लेकिन हर्लो ने इसे गलत साबित कर दिया. बंदर के बच्चे खाने के लिए तो वायर मदर के पास जाते, लेकिन बाकी वक्त वे कपड़े की मां से ही प्यार जताते थे.