
अमेरिका एक ऐसा रॉकेट बना रहा है जो मंगल ग्रह तक सिर्फ 45 दिन में पहुंच जाएगा. अभी कम से कम एक साल लग जाता है. असल में चीन लगातार स्पेस मिशन में अमेरिका और पूरी दुनिया को चुनौती दे रहा है. ऐसे में अमेरिका उससे आगे जाना चाहता है. नासा (NASA) ने प्लानिंग कर ली है कि वह परमाणु ईंधन से उड़ने वाला रॉकेट बनाएगा. जो सिर्फ और सिर्फ 45 दिन में स्पेसक्राफ्ट या इंसान को मंगल ग्रह तक पहुंचा देगा.
इंसान अभी तक धरती की निचली कक्षा (Lower Earth Orbit - LEO) या फिर चंद्रमा (Moon) तक पहुंच पाए हैं. लेकिन किसी अन्य ग्रह तक किसी भी देश का एस्ट्रोनॉट नहीं पहुंचा है. लेकिन मंगल ग्रह तक पहुंचने के लिए सिर्फ रॉकेट ही नहीं बल्कि कई नई टेक्नोलॉजी की जरुरत पड़ेगी. जैसे- लाइफ सपोर्ट सिस्टम, रेडिएशन शील्डिंग, पावर और प्रोप्लशन सिस्टम आदि.
जब बात आती है पावर और प्रोपल्शन सिस्टम की तब सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है परमाणु ईंधन यानी न्यूक्लियर फ्यूल (Nuclear Fuel). नासा और सोवियत स्पेस प्रोग्राम ने दशकों बिताए हैं न्यूक्लियर प्रोपल्शन सिस्टम को विकसित करने में. कुछ साल पहले ही नासा ने अपना न्यूक्लियर रॉकेट प्रोग्राम शुरू किया है. उसने बाइमोडल न्यूक्लियर थर्मल रॉकेट (Bimodal Nuclear Thermal Rocket - BNTR) पर काम शुरू किया है.
दो अलग-अलग प्रोग्राम पर काम कर रहा है नासा
BNTR में दो सिस्टम हैं, पहला है न्यूक्लियर थर्मल प्रोग्राम और दूसरा है न्यूक्लियर इलेक्ट्रिक प्रोग्राम. ये दोनों प्रोग्राम ऐसे हैं जो फिलहाल की गणित के अनुसार धरती से मंगल तक की दूरी 100 दिन में पूरा कर लेंगे. लेकिन भविष्य में इसे कम करके 45 दिन किया जा सकता है. नासा ने इस साल के लिए एक नया प्रोग्राम शुरू किया है. इसका नाम है नासा इनोवेटिव एडवांस्ड कॉन्सेप्ट्स (NIAC). इसके पहले फेज में नासा न्यूक्लियर रॉकेट बनाएगा.
लगेगा काफी दिमाग, आधुनिक तकनीक और पैसा
नासा का कहना है कि वो वेव रॉटर टोपिंग साइकिल की मदद से चलने वाला न्यूक्लियर पावर्ड रॉकेट बनाएगा. जो सिर्फ 45 दिन में मंगल तक पहुंच जाएगा. यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा में हाइपरसोनिक्स प्रोग्राम एरिया के प्रमुख प्रो. रयान गोसे कहते हैं कि यह रॉकेट अंतरिक्ष मिशन की दुनिया में चमत्कार होगा. इससे आप अंतरिक्ष की लंबी दूरियों को कम से कम समय में पूरा कर पाएंगे. लेकिन इसे बनाने में काफी दिमाग, तकनीक और पैसे की जरुरत लगेगी.
न्यूक्लियर थर्मल प्रोपल्शन (NTP) में परमाणु रिएक्टर लिक्विड हाइड्रोजन प्रोपेलेंट को गर्म करेगा. इससे आयोनाइज्ड हाइड्रोजन गैस बनेगी. यानी प्लाज्मा. जिससे प्रोपल्शन सिस्टम के जरिए चैनलाइज्ड करके नॉजल से निकाला जाएगा. जब नॉजल से यह प्लाज्मा निकलेगा तो यह रॉकेट को तेज गति प्रदान करेगा. अमेरिकी एयरफोर्स और एटॉमिक एनर्जी कमीशन ने 1955 में पहली बार प्रोजेक्ट रोवर के समय इस तरह के प्रोपल्शन सिस्टम को बनाने का प्रयास किया था.
अपोलो प्रोग्राम बंद होने के बाद रुक गया था प्रोजेक्ट
यह जब यह प्रोजेक्ट 1959 में पहुंचा तो इसे न्यूक्लियन इंजन फॉर रॉकेट व्हीकल एप्लीकेशन (NERVA) में बदल गया. यह एक सॉलिड कोर न्यूक्लियर रिएक्टर था. इसकी टेस्टिंग सफल रही थी. साल 1973 में जब अपोलो मिशनों को खत्म करने की घोषणा की गई, तब नासा की फंडिंग को बहुत कम कर दिया गया. इसकी वजह से NERVA प्रोजेक्ट बंद हो गया.
उधर, सोवियत संघ ने अपने NTP कॉन्सेप्ट बना लिया था. उसने यह तकनीक 1965 से 1980 के बीच विकसित की. लेकिन प्रोग्राम ज्यादा दिन नहीं चला. उसे एक ग्राउंड टेस्ट के बाद बंद करना पड़ा था. अब बात करते हैं दूसरे तरीके की. जिसे न्यूक्लियर इलेक्ट्रिक प्रोग्राम (NEP) कहते हैं. इसमें परमाणु ईंधन के जरिए इलेक्ट्रिसिटी पैदा करने की बात कही जाती है. जो हाल-इफेक्ट थ्रस्टर यानी आयन इंजन बनाने में मदद करेंगी.
भविष्य में न्यूक्लियर-इलेक्ट्रिक रॉकेट भी बनेंगे
NEP के तहत आयन इंजन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड बनाएगा. जो इनर्ट गैस जैसे जेनॉन को क्रिएट करके उसके जरिए रॉकेट को आगे बढ़ाने का काम करेगा. इस प्रोजेक्ट पर शुरुआती आइडियान प्रोजेक्ट प्रोमेथियस के दौरान आया था. यह प्रोजेक्ट 2003 से 2005 के बीच शुरू हुआ था. NTP और NEP दोनों ही सिस्टम आधुनिक और सुरक्षित माने जा रहे हैं. इनकी फ्यूल एफिसिएंसी बेहतर है. यानी कम ईंधन में ज्यादा दूरी तय की जा सकती है.
फिलहाल NTP और परंपरागत रॉकेटों की तुलना में NEP की ताकत थोड़ी कम है. लेकिन भविष्य में इसमें सुधार किया जा सकता है. इसे बेहतर बनाया जा सकता है. रयान गोसे के मुताबिक न्यूक्लियर रॉकेट के लिए NTP प्रोजेक्ट सबसे बेहतर है. यह पारंपरिक रॉकेट के प्रोपल्शन सिस्टम की तुलना में 30 से 40 फीसदी ज्यादा फायदेमंद होगा.