
पहले विश्व युद्ध की शुरुआत थी, जब ब्रिटिश सैनिक लगातार बीमार पड़ने लगे और पटापट मरने लगे. कमोबेश सारे सैनिकों के लक्षण एक से थे. वे पेटदर्द की शिकायत करते, सिरदर्द-बुखार होता, पेट खराब होता और फिर हालत बिगड़ते-बिगड़ते काबू से बाहर चली जाती. साल 1915 में फ्रांस के वाइमेरॉक्स शहर के स्टेशनरी अस्पताल में एक केबल आया. इसमें सैनिकों की बिगड़ती स्थिति के बारे में बताया गया था.
लड़ाई में शामिल वैज्ञानिक ने की शुरुआत
वैज्ञानिक-डॉक्टर सब मोर्चे पर तैनात थे. वहीं एक बैक्टीरियोलॉजिस्ट विलियम एलकॉक ने बीमार सैनिक के शरीर से बैक्टीरिया का सैंपल लिया और एक खास तरह की लकड़ी के डिब्बे में भरकर ऊपर से पैराफिन वैक्स से डिब्बा सील कर दिया. ये पहला सैंपल था. युद्ध खत्म होने के बाद इस समेत कई दूसरे बैक्टीरियाज को लिस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ प्रिवेंटिव मेडिसिन में रखा गया. अब तक यहां कुल 2 सौ सैंपल हो चुके थे. धीरे-धीरे दूसरे देशों से भी यहां बैक्टीरिया भेजे जाने लगे ताकि स्टडी हो सके.
तब सेफ्टी प्रोटोकॉल उतना कड़ा नहीं था
खतरनाक माने जाने बैक्टीरिया को भेजते हुए बस उसे अगारवुड के डिब्बे में रखकर पैराफिन से सीलबंद कर दिया जाता. साथ में ऊपर बैक्टीरिया के बारे में जो भी जानकारी है, वो लिख दी जाती. बैक्टीरिया पानी वाले जहाज के जरिए भेजे जाते और कप्तान से लेकर बाकी जिम्मेदार लोगों को इसकी जानकारी दे दी जाती ताकि कहीं कोई डिब्बा भूल से भी खुल न जाए.
बिल्डिंग बम हमले में तबाह हो गई
बैक्टीरिया पर शोध चल ही रहे थे कि इसी बीच दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया. इसी दौरान लंदन स्थित इस इमारत का बड़ा हिस्सा भी बम से नष्ट हो गया. तब बेहद सावधानी के साथ बैक्टीरिया कलेक्शन को लंदन के दूसरे हिस्से में भेजा गया, जिसे नाम मिला नेशनल कलेक्शन ऑफ टाइप कल्चर्स.
साइंटिस्ट रिसर्च के लिए पैसे देकर एंट्री पाने लगे
जंग खत्म होने के बाद कलेक्शन को वैज्ञानिकों के लिए खोल दिया गया. तब इसके लिए 6 पेंस (पाउंड का छोटा हिस्सा) फीस देनी होती थी. अब ये एक नॉन-प्रॉफिट की तरह काम करता है. सरकार इसके रखरखाव के लिए पैसे नहीं देती, बल्कि दुनियाभर के देश यहां से अपनी स्टडी के लिए सैंपल खरीदते हैं, जिसकी कीमत 85 डॉलर से लेकर 400 डॉलर भी हो सकती है.
दूसरी तरफ ऐसे भी देश हैं, जिनके पास बैक्टीरिया कल्चर कर सकने के लिए बढ़िया लैब नहीं. वे सैंपल यहां भेज देते हैं ताकि संरक्षित रहे. कोविड की शुरुआत से पहले साल 2019 में ही कलेक्शन से लगभग 4 हजार बैक्टीरिया स्ट्रेन 63 देशों में स्टडी के लिए भेजे गए.
कई ब्रेकथ्रू का श्रेय मिला इसे
बता दें कि इसी लाइब्रेरी के बैक्टीरिया कलेक्शन की वजह से कई जानलेवा बीमारियों का इलाज खोजा जा सका. जैसे पेनिसिलिन बनाने वाले वैज्ञानिक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने सालों तक आकर यहां से बैक्टीरिया के 16 स्ट्रेन पर काम किया, तब जाकर इलाज मिल सका.
यहां 6 हजार से ज्यादा बैक्टीरिया के जीवित स्ट्रेन रखे हैं, यानी जेनेटिक स्ट्रक्चर के फॉर्म में. लाइब्रेरी में बेहद घातक से लेकर ऐसे भी बैक्टीरिया हैं, जो छोटा-मोटा नुकसान पहुंचाते हैं. साथ ही बहुत से ऐसे भी हैं, जिनपर स्टडी बाकी है. ज्यादातर बैक्टीरिया बायोसेफ्टी लेवल 3 और 2 से हैं. यानी ऐसे बैक्टीरिया जिनके संपर्क में आने पर जान का खतरा रहता है, लेकिन जिनका इलाज खोजा जा चुका.
लाने-ले जाने के लिए अब खास सेफ्टी प्रोटोकॉल
जैसे अगर किसी देश को कोई स्ट्रेन खरीदना है तो बैक्टीरिया सीधे डिब्बे में बंद करके शिप नहीं कर दिया जाएगा, बल्कि सारी लिखा-पढ़ी होगी ताकि रिकॉर्ड रहे. ये भी बताना होगा कि मकसद क्या है और अगर कोई प्राइवेट संस्था ये चाहती है तो सरकारी इजाजत भी लेनी होगी. इसके बाद लाइब्रेरी से स्ट्रेन लेकर कांच के डिब्बे में अगरू के साथ डालकर ऊपर से डिब्बा सील किया जाता है. ये सील कई लेयर्स में होती है. बॉक्स पर अंग्रेजी और जिस देश में भेजा जा रहा है, उस भाषा में निर्देश भी होते हैं.
लेने से पहले होती है पूरी जांच
इसी तरह से दूसरे देशों से जीवित बैक्टीरिया लेना भी काफी सोच-समझकर होता है. पहले स्ट्रेन को अगरू में कल्चर किया जाता है ताकि पता लगे कि स्ट्रेन जीवित है, और किसी तरह से संक्रमित नहीं है. फिर इसे माइनस 28 डिग्री पर फ्रीज ड्राई करते हैं. 3 से 4 घंटे बाद इसे स्टेरेलाइज किए हुए उपकरणों की मदद से लेकर कांच में सुरक्षित रखते हैं. इतनी सावधानी के बाद भी ज्यादातर सैंपल सर्वाइव नहीं कर पाते. वैसे बता दें कि पहले विश्व युद्ध के दौरान जिस बैक्टीरिया का जीनोम लिया गया था, वो अब भी जिंदा है. ये डायरिया का बैक्टीरिया था, जिसके कारण अब भी जानें जा रही हैं.