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The Last Cheetah's of India: एक राजा के शिकार की आदत और नेशनल क्राइसिस, पढ़िए- भारत के आखिरी तीन चीतों की कहानी

भारत के आखिरी तीन चीतों को एक राजा ने मारा था. जरुरत थी. ताकत दिखानी थी. सनक या शौक... ये नहीं पता. लेकिन उसके बाद एक नेशनल क्राइसिस शुरू हो गई. चीते देश से विलुप्त हो गए. 74 साल बाद अब मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में चीते आ रहे हैं. पढ़िए भारत की आखिरी तीन चीतों की कहानी...

देश में आज़ादी मिलने के एक साल के अंदर ही चीतों की प्रजाति खत्म हो चुकी थी. (फोटोः फ्रांस वैन हीरडेन/पेक्सेल) देश में आज़ादी मिलने के एक साल के अंदर ही चीतों की प्रजाति खत्म हो चुकी थी. (फोटोः फ्रांस वैन हीरडेन/पेक्सेल)
ऋचीक मिश्रा
  • नई दिल्ली,
  • 15 सितंबर 2022,
  • अपडेटेड 11:36 AM IST

मुगल, राजपूत और मराठा साम्राज्य. इसके बाद ब्रिटिश शासनकाल. इनमें से किसी भी समय चीतों (Cheetah) के लिए भारत सही स्थान नहीं था. ज्यादा शिकार (Hunting). रहने की जगह की कमी (Habitat Loss). इन दोनों वजहों से चीतों की संख्या कम होती चली जा रही थी. 20वीं सदी तक एशियाटिक चीता (Asiatic Cheetah) इजरायल, अरब प्रायद्वीप से ईरान तक, अफगानिस्तान से लेकर भारत तक रहते थे. यहां तक कि दक्षिण भारत के तमिलनाडु तिरुनेलवेली जिले तक देखे जाते थे. पर जिस साल देश आज़ाद हुआ, उसके एक साल के अंदर देश के आखिरी तीन चीते भी खत्म कर दिए गए. शिकार हो गया. चीतों की हत्या छत्तीसगढ़ के एक राजा ने की थी. 

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आज़ादी से पहले ब्रिटिश काल में राजा-महाराजा चीतों को पालते थे. उनकी मदद से शिकार किया करते थे. (फोटोः गेटी)

कहा जाता है कि राजे-महाराजे चीतों को पालतू बनाकर रखते थे. उनकी मदद से शिकार करने जाते थे. आमतौर पर हिरणों का शिकार. माना जाता है कि फिरोज़ शाह तुगलक मध्यकालीन समय का पहला शासक था, जिसने चीतों को पालना शुरू किया. उनकी मदद से शिकार करना शुरू किया. कहते हैं कि मुगल शासक अकबर के पास करीब 9000 चीते थे. जो शिकार के लिए उपयोग होते थे. साल 1608 में ओरछा के महाराजा राजा वीर सिंह देव के पास सफेद चीता (Albino Cheetah) था. इस चीते के बारे में जहांगीर अपनी किताब तुज़ुक-ए-जहांगीरी में लिखते हैं कि इसके सफेद शरीर पर काले नहीं बल्कि नीले धब्बे थे. कहा जाता है कि यह इकलौता रिकॉर्डेड सफेद चीता था. 

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भारत में चीतों की संख्या कम नहीं होती अगर ज्यादा शिकार न किया जाता. (फोटोः रॉयटर्स)

औरंगज़ेब के समय भी चीतों को पकड़कर रखा जाता था. यह बात फ्रांसीसी यात्री Jean de Thevenot ने अपने दस्तावेज़ों में बताया है. चीतों का मुख्य काम शाही शिकार के समय मदद करना था. चीते जैसे जंगली जीवों को कैद करके रखना, यानी उन्हें मौत के करीब लेकर जाना. ब्रिटिश शासन काल में चीतों का शिकार होने लगा. लोग शौक में या फिर मजबूरी में शिकार करने लगे. खैर समय आया देश की आज़ादी का. देश आज़ाद हुआ. उसके एक साल के अंदर ही देश चीतों से भी आज़ाद हो गया. छत्तीसगढ़ के एक राजा ने देश में आखिरी बचे तीन चीतों को गोली मार दी. 

महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव की मारे गए चीतों के साथ. यह फोटो बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के पास जमा है. (फोटोः ट्विटर/प्रवीण कासवान)

छत्तीसगढ़ के राजा ने खत्म किए चीते

इंटरनेट पर मौजूद जानकारी के अनुसार भारत के आखिरी तीन चीते 1947 या 1948 में मारे गए थे. इनका शिकार किया था मध्यप्रदेश के सरगुजा स्टेट (Surguja) के कोरिया रियासत (Korea/Koriya) के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने. अब यह इलाका छत्तीसगढ़ में आता है. कहा जाता है कि उनके शिकार की आखिरी तस्वीर और दस्तावेज महाराजा के निजी सचिव ने जर्नल ऑफ द बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी को सौंपे थे. कहानी ये है कि कुछ ग्रामीणों ने महाराजा से कहा कि कोई जंगली जानवर उनके मवेशियों को मार रहा है. कुछ ग्रामीणों को मार चुका है. कहते हैं कि इसके बाद चीते कभी देखे नहीं गए. 

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हालांकि, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थानीय स्तर पर यह भी माना जाता है कि इन चीतों का शिकार महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने नहीं किया था. कोरिया रियासत के पास एक और रियासत थी. नाम था अंबिकापुर. इसके राजा थे रामानुज शरण सिंह देव. कहा जाता है कि इस राजा ने करीब 1100 शेर मारे थे. अब लोगों को इन दोनों राजाओं के नाम में कन्फ्यूजन होता है कि किस राजा ने चीतों को मारा था. 

सबसे ज्यादा चीतों को पाला है मुगल शासक अकबर ने. कहते हैं उसके पास 9000 चीते थे. (फोटोः ट्विटर/प्रवीण कासवान)

चीतों का भारत में सबसे पुराना जिक्र

सदियों तक चीतों के जरिए शिकार का प्रचलन रहा है भारत में. बाघ की तुलना में चीतों पर नियंत्रण करना आसान था. जो सबसे पहला रिकॉर्ड मिलता है चीतों की मौजूदगी का, वो है 12वीं सदी के संस्कृत दस्तावेज मनसोलासा. इसे सन 1127 से 1138 के बीच शासन करने वाले कल्याणी चालुक्य शासक सोमेश्वरा-तृतीय ने तैयार किया था. मुगल काल में अकबर ने शिकार के लिए चीतों का भरपूर उपयोग किया था. कहा जाता है कि उसके पास 9000 चीते थे. 

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चीते शिकार करते समय हिरण, चिंकारा, चीतल आदि को दूर भागने नहीं देते थे. इन्हें जंगल में ले जाने से शिकारी राजाओं को फायदा होता था. (फोटोः AFP)

अकबर के दरबारी अबुल फज़ल ने लिखा था कि अकबर ने चीतों को पकड़ने के लिए नया तरीका ईज़ाद किया था. छिछले गड्ढे खोदकर उसके ऊपर ऑटोमैटिक जालीदार दरवाजा लगाने का उपयोग किया था. जबकि इससे पहले चीतों को गहरे गड्ढे में गिराकर पकड़ा जाता था. लेकिन इससे उनके पैर टूट जाते थे. तब अकबर ने छिछले गड्ढे बनवाए. ऊपर से जालीदार दरवाजे लगाए. इसके बाद चीतों को शिकार के लिए तीन से चार महीने में शिकार के लिए ट्रेंड किया जाता था. 

जहांगीर ने पालम में किए थे शिकार

जहांगीर ने 1605 से 1627 के बीच चीतों की मदद से 400 एंटीलोप का शिकार किया था. इनमें से ज्यादातर शिकार पालम परगना में किए गए थे. जो आज की तारीख में नई दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के पास था. देश के कुछ राज्यों में चीतों को पकड़ने की प्रक्रिया तेजी से चल रही थी. जैसे राजस्थान का जोधपुर और झुंझुनू, पंजाब का बंठिडा और हरियाणा का हिसार. चीतों को पकड़ने के बाद उन्हें कैद में रखा जाता था. इसके बाद आना शुरू हो गया ब्रिटिश राज. 

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अब नामीबिया से एक बार फिर मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में चीते लाए जा रह हैं. उम्मीद है इससे फिर एक बार चीतों की आबादी देश में बढ़ेगी. (फोटोः AFP)

चीतों के शिकार पर मिलते थे 6 से 12 रुपये

ब्रिटिश शासकों को चीतों में कम रुचि थी. वो बड़े शिकार करते थे. शेर, बाघ, बाइसन और हाथी. चाय और कॉफी प्लांटेशन और विकास कार्यों के नाम पर ब्रिटिश राज में जंगलों को सफाया होने लगा. रहने लायक जगह की कमी और ज्यादा शिकार की वजह से चीतों की प्रजाति धीरे-धीरे विलुप्त होने लगी. चीतों की संख्या तेजी से घटने लगी. 1871 के बाद से ब्रिटिश काल में तो इस बात के भी दस्तावेज हैं जिसमें कहा गया था कि जो चीतों का शिकार करके लाएगा, उसे अवॉर्ड दिया जाएगा. सिंध में चीतों के शावकों को मारने पर छह रुपये और वयस्क चीतों को मारने के लिए 12 रुपये मिलते थे. ब्रिटिश शासन में सबसे ज्यादा चीतों की संख्या घटी. 

उधर, 1920 तक राजे-महाराजे चीतों की मदद से शिकार करने की प्रथा जारी रखे हुए थे. इस दौर में चीतों का सबसे ज्यादा शिकार कोल्हापुर और भावनगर के महाराजाओं ने किया. जंगल में इस समय चीते दिखना बंद हो गए थे. इतना ही नहीं इस दौर में अफ्रीका से चीते खरीदे जाते थे. 1918 से 1939 के बीच कोल्हापुर और भावनगर में अफ्रीका से कई चीते खरीद कर मंगवाए गए. कहा जाता है कि प्रथम विश्व युद्ध के ठीक पहले भावनगर के महाराजा भावसिंहजी द्वितीय ने केन्या से कई चीते मंगवाए थे. 30 के दशक में भावनगर में 32 इंपोर्टेड चीते थे. स्वतंत्र भारत में भी चीतों का आयात जारी था लेकिन ये सिर्फ चिड़ियाघरों में प्रदर्शन के लिए. 1949 से 1989 तक देश के सात चिड़ियाघरों में 25 चीते मौजूद थे. ये सभी विदेशों से आए थे. 

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