
अमेरिका, चीन, भारत और यूरोपीय देश इस बात को खुलकर कहते हैं कि वो अगले 5-7 दशक में कार्बन उत्सर्जन नेट जीरो कर देंगे. इनकी सेनाएं और उससे जुड़े उद्योग दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 5 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं. यानी मिलिट्री के नाम पर इन देशों के पास बहाना होता है.
इस जलवायु संकट के दौर में मिलिट्री और उससे जुड़े उद्योग लगातार कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, लेकिन इसे रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है. न ही कोई ग्रीन तकनीक जो मिलिट्री को ताकत दे सके.
अमेरिकी रक्षा विभाग जीवाश्म ईंधन का दुनिया का सबसे बड़ा संस्थागत खरीदार है. साथ ही सबसे बड़ा संस्थागत कार्बन उत्सर्जनकर्ता भी. साल 2019 में की गई एक स्टडी के मुताबिक, अगर अमेरिकी मिलिट्री को एक देश माना जाए तो वह जीवाश्म ईंधन के उपयोग में दुनिया का 47वां सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस पैदा करने वाला देश होता. यानी पेरू और पुर्तगाल के बीच में.
दूसरी भाषा में COP26 क्लाइमेट समिट में अमेरिकी सेना दुनिया भर की कई इंडस्ट्रीज में सबसे बड़ी संस्था है, जो सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है.
Scientists estimate that, together, militaries and their supporting industries might account for up to 5% of global emissions: more than civilian aviation and shipping combined. https://t.co/Shou0lFyQQ
— The Conversation (@ConversationUK) November 9, 2021दुनियाभर के लोग मिलिट्री द्वारा किए जाने वाले कार्बन उत्सर्जन के बारे में नहीं जानते. न ही किसी भी देश की मिलिट्री को संयुक्त राष्ट्र को उत्सर्जन संबंधी रिपोर्ट देनी होती है. साल 1997 क्योटो क्लाइमेट समझौते के तहत मिलिट्री को अपनी रिपोर्ट देने से छूट मिल गई. इस समय 46 देशों समेत और यूरोपीय संघ की मिलिट्री को अपनी सालाना कार्बन उत्सर्जन रिपोर्ट यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) में जमा करनी होती है. साल 2015 में हुए पेरिस समझौते ने क्योटो समझौते के नियमों को खारिज कर दिया. लेकिन कहा कि मिलिट्री अपनी तरफ से रिपोर्ट दे सकती है.
दुनिया भर की सेनाएं कभी भी किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था को यह बात नहीं बताती कि पर्यावरण को उनकी वजह से कितना नुकसान हो रहा है. क्योंकि मिलिट्री की गतिविधियां खुफिया रखी जाती हैं. उदाहरण के तौर पर कनाडा अपनी मिलिट्री से संबंधित रिपोर्ट IPCC के नियमों के तहत करती है. लेकिन वह मिलिट्री फ्लाइट्स को जनरल ट्रांसपोर्ट दिखाती है. बेस के लिए जरूरी ऊर्जा को वह कॉमर्शियल या संस्थागत जरूरत बताती है. यानी इनसे होने वाला उत्सर्जन भी सामान्य चीज हो जाती है.
किसी भी देश की मिलिट्री को हर साल UNFCCC को कार्बन उत्सर्जन संबंधी रिपोर्ट नहीं देनी होती. इनमें बड़े सैन्य बजट वाले देश जैसे चीन, भारत, सऊदी अरब और इजरायल भी शामिल हैं. हैरानी की बात ये है कि COP26 क्लाइमेट समिट के आधिकारिक एजेंडे में वायुमंडल पर मिलिट्री की वजह से पड़ने वाले दुष्प्रभावों का कोई जिक्र या एजेंडा नहीं है. ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि अगले साल होने वाले COP27 में इस बारे में कोई एक्शन लिया जाएगा. क्योंकि मिलिट्री द्वारा काफी मात्रा में कार्बन फुटप्रिंट छोड़ा जाता है.
इस साल जून में NATO ने कहा था कि वह साल 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन में महत्वपूर्ण योगदान देगा. लेकिन वह किस तरह से ऐसा करेगा...इस बात का खुलासा नहीं किया है. स्विट्जरलैंड और यूके जैसे देशों ने घरेलू स्तर पर नेट जीरो उत्सर्जन को लेकर कुछ टारगेट सेट किए हैं. लेकिन इनका भी खुलासा बहुत ज्यादा नहीं किया गया है. अब लगातार दुनिया भर के पर्यावरण संबंधी संस्थान मिलिट्री द्वारा किए जाने वाले कार्बन उत्सर्जन को गंभीरता से ले रहे हैं.
दुनियाभर में युद्ध या शांति के लिए लगातार हो रहे मिलिट्री के उपयोग की वजह से प्रदूषण हो रहा है. कार्बन उत्सर्जन हो रहा है. चाहे छिपकर हमला करना हो या जासूसी हर तरफ से मिलिट्री कार्बन उत्सर्जन करती है. लेकिन किसी को खबर नहीं होती. क्योंकि मिलिट्री की कार्यवाही अक्सर खुफिया होती है. दुनिया के लोगों को मिलिट्री और सैन्य संस्थानों से कम से कम कार्बन उत्सर्जन को लेकर पारदर्शिता की उम्मीद है.