
ये वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई की किताब लोकतंत्र XI से लिया गया हिस्सा है जिसके पहले चैप्टर में उन्होंने अपने पिता दिलीप सरदेसाई के बारे में लिखा है.
1956 की शुरुआत में एक बेहद आम इंसान की तरह अपनी आंखों में तमाम सपने और दिल में सैकड़ों प्रार्थनाएं लेकर दिलीप सरदेसाई मुंबई की चकाचौंध के बीच पहुंचे. ये वही साल था जिस साल फ़िल्म सीआईडी में जॉनी वॉकर ने मरीन ड्राइव पर मुंबई का एंथम बन चुका गाना गाया था – 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, ज़रा हटके, ज़रा बचके, ये है बॉम्बे मेरी जां!' पांच साल बाद ही वो लड़का, जिसने 15-16 साल की उम्र तक कभी भी क्रिकेट के मैदान में नहीं खेला था, देश के लिए खेलने वाला था. जबकि ये देश नेहरू की नीति से चल रहा था और यहां पंचवर्षीय योजानाओं का बोलबाला था, एक युवा चेहरे के उसके गांव से आकर भारतीय क्रिकेट के केंद्र में आ खड़े हो जाने के बारे में शायद ही कोई योजना बन सकी थी. उसके साथ कुछ था तो बस कड़ी मेहनत, निष्ठा, खूब सारा टैलेंट. और हां, ढेर सारी किस्मत. कई सालों बाद ,मैंने अपने पिता से उनकी सफलता के बारे में पूछा. उन्होंने कहा, "मैं शायद सफ़लता के लिए भूखा था. मुझे किसी भी हालत में ये सब कुछ चाहिए था,"
एलीट क्लब, राजशाही और बढ़िया लोकल नेटवर्क के दौर में दिलीप के पास न कोई गॉडफ़ादर था और न ही उनकी मदद करने के लिए आगे आने वाला. गोवा से आने वाले, कोंकणी ज़ुबान बोलने वाले एक लड़के के तौर पर नए माहौल में बसने के शुरूआती दिनों के दौरान उन्हें कुछ समस्या ज़रूर आई. "जब मैं मुंबई आया तो मैं अपने भाई सोपान के सिवा किसी को भी नहीं जानता था. वो अच्छा क्रिकेटर था और उस वक़्त तक उसने बॉम्बे यूनिवर्सिटी के लिए खेलना शुरू कर दिया था. मैं पूरी तरह से खुद के ही द्वारा बनाया गया हूं," वो गर्व से ये बात मुझसे कहा करते थे.
सरदेसाई परिवार साउथ मुंबई के भीड़ भरे चौपाटी इलाके में मौजूद मरीना मेंसन बिल्डिंग में रहने लगा. ये बेहद खूबसूरत मरीन ड्राइव के बहुत ही पास था. मरीन ड्राइव एक आंगन की तरह मालूम देता है जिसके उस छोर पर समुद्र है और वहां मुंबई के आपस में गुत्थमगुत्था होते घर कुछ वक़्त के लिए खुली सांस ले लेते हैं. इसी जगह पर बाहर से आने वाले लोग अपने शहरी सपनों को जी पाते हैं. सुपरस्टार अमिताभ बच्चन ने भी ये कहा है कि जब वो इस शहर में नए आए तो एक दफ़ा उन्हें मरीन ड्राइव की बेंच पर ही सोना पड़ा था.
15-16 साल के दिलीप के मन में मुंबई से जुड़ी हर तस्वीर मरीन ड्राइव के आस पास मौजूद जिमखानों के क्रिकेट के मैदानों से जुड़ी थी. जब 20वीं शताब्दी की शुरुआत में क्रिकेट का खेल सांप्रदायिक लकीरों से बांटा जाता था, हिन्दू, पारसी और इस्लाम जिमखाना ही इसके युद्धस्थल थे. "हर सुबह और शाम मैं समंदर के सामने वॉक करने जाता था, 5 पैसे का चना खरीदता था और क्रिकेट देखता था. मुझे जन्नत सा महसूस होता था," उन्होंने कहा.
जिस वक़्त दिलीप मुंबई आए, विजय मर्चेंट रिटायर हो चुके थे. और उनकी जगह एक और विजय (मांजरेकर) ने मुंबई की बल्लेबाज़ी की मशाल थाम ली थी. इस दौरान टेस्ट प्लेयर्स लगातार मुंबई आकर यहां के मैदानों में क्लब क्रिकेट खेला करते थे. जब दिलीप ने पहली बार मांजरेकर को बैटिंग करते हुए देखा तो वो किसी और दुनिया के सफ़र पर निकल पड़े थे. "मडगाव में मैंने इन खिलाड़ियों के बारे में बस सुना ही था. इसलिए जब मैंने मांजरेकर को बैटिंग करते हुए देखा तो मैं इतना उत्साहित था कि उस रात सो नहीं सका और अपने हाथ में बल्ला लेकर डिफे़ंसिव स्ट्रोक की प्रैक्टिस करता रहा. मैं सोच भी नहीं सकता था कि कभी उनके साथ ड्रेसिंग रूम शेयर करूंगा," दिलीप कहते थे.
दिलीप ने भवन कॉलेज में अपना नाम लिखवाया जो कि उनके घर से कुछ कदम ही दूर था. यहां अपने पहले ही कॉलेज गेम में सेंचुरी मारी. एक साल बाद वो विल्सन कॉलेज चले गए जो कि चौपाटी इलाके में ही एक बड़ा और प्रतिष्ठित संस्थान था. उसका अच्छा इतिहास था और उस वक़्त के वित्तमंत्री मोरारजी देसाई भी उसी कॉलेज के पढ़े हुए थे. ये वही जगह थी जहां दिलीप को उनका पहला ब्रेक मिला.
अगर वो कॉलेज में प्रैक्टिस नहीं कर रहे होते थे तो अपनी बिल्डिंग की छत पर बल्ला चला रहे होते थे. मानसून के दिनों में वो इधर-उधर से लड़कों को लेकर आते और उनसे गीली टेनिस बॉल फिंकवाते और खुद को तैयार करते. "देर रात तक लाइट जलाकर हम गेंद फ़ेंकते और दिलीप बैटिंग करता," मयूरेश ने बताया, जो कि उन दिनों हमारे पड़ोसी हुआ करते थे. छत पर मिली ट्रेनिंग ने मेरे पिता को बहुत मदद की. उन्हें वो सबक मिला जो उस पीढ़ी के क्रिकेटर्स के लिए आत्मसात करना ज़रूरी था – आउट होने से बचने के लिए हवा में नहीं ज़मीन पर गेंद मारो. पापा ने कहा, "छत पर ही मेरी बैटिंग परफ़ेक्ट हुई और मैं स्ट्रेट खेलने लगा क्यूंकि अगर मैं गेंद हवा में मारता तो 4 माले नीचे जाकर बॉल लानी पड़ती थी." टेनिस की गीली गेंद से की जाने वाली प्रैक्टिस भी आगे चलकर कितने ही इंडियन क्रिकेटर्स के कोचिंग मैनुअल का हिस्सा बन गई.
कड़ी ट्रेनिंग अब फल देने लगी थी. विल्सन के दो साल में दिलीप ने रनों का पहाड़ खड़ा करना शुरू कर दिया था. 1958 में उन्होंने कॉलेज टीम से एक बेहद मज़बूत हिन्दू जिमखाना टीम के ख़िलाफ़ खेला जिसमें कई मुंबई रणजी खिलाड़ी भी शामिल थे. इस टीम के कप्तान वीनू मांकड़ थे जो विजय मर्चेंट की ही तरह भारतीय क्रिकेट में बहुत बड़े नाम थे और इस देश के महानतम स्पिनर ऑल राउंडर थे. मांकड़ जिस वक़्त में क्रिकेट खेला करते थे, उनके जैसे खिलाड़ी मिलते नहीं थे. वो नौसिखियों के ज़माने में प्रोफ़ेशनल प्लेयर थे. वो अपनी गर्मियां इंग्लैंड में लंकाशायर लीग में खेलते गुज़ारते. वो पहले इंडियन क्रिकेटर थे जिसने मशहूर हेयरस्टाइलिंग प्रोडक्ट ब्रिलक्रीम का विज्ञापन किया था जिसके लिए उन्हें 300 पाउंड की एकमुश्त रकम मिली थी. जब सरदेसाई ने टीम के 120 के स्कोर में अकेले 90 नॉट आउट बनाए, मांकड़ को विश्वास हो गया था कि वो जो देख रहे थे, आम बल्लेबाज़ी नहीं थी. उस शाम मांकड़ ड्रेसिंग रूम में आए और दिलीप से बोले, "बेटा, मैं तुम्हें जिमखाना का मेंबर बना रहा हूं. आज से तुम हमारे लिए खेलोगे. फ़ीस की चिंता मत करना, मैं उसे संभाल लूंगा." विनोद भाई, जिस नाम से उन्हें मेरे पापा बुलाते थे, उस वक़्त से हमेशा के लिए प्रेरणास्रोत बन गए.
विल्सन से दिलीप सिद्धार्थ कॉलेज पहुंचे जो उस वक़्त क्रिकेट के मामले में बेहतरीन जगह थी. "मेरी फ़ीस माफ़ कर दी गई थी और वीबी प्रभुदेसाई, जो कि हमारे मैनेजर थे और किकेट के बहुत बड़े प्रेमी थे, बस एक ही बात कहते हैं – मैच जीतो और मैं सबको ग्रेजुएट करवा दूंगा," वो याद करते हुए कहते हैं. कॉलेज क्रिकेट में इतने रनों का मतलब ये था कि अब दिलीप को अगले लेवल पर जाना था. 1958 में उन्हें बॉम्बे यूनिवर्सिटी की टीम के लिए पहली बार चुना गया. अगले तीन सालों में वो यूनिवर्सिटी क्रिकेट में अपना पूरा दबदबा कायम कर ले गए. वो अपनी मर्ज़ी से सेंचुरी और डबल सेंचुरी मार रहे थे.
महाराष्ट्र के मिडल क्लास की मेहनत और लगन की बदौलत भारतीय क्रिकेट में मुंबई की टीम एक बहुत बड़ी ताकत बनकर उभर रही थी. संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन जिसमें मराठीभाषी अलग राज्य की मांग कर रहे थे, अपने चरम पर पहुंच रहा था. महाराष्ट्र समुदाय के लिए क्रिकेट पहचान बन रहा था. मांजरेकर, अजीत वाडेकर, रमाकांत देसाई और बापू नादकर्णी जैसे खिलाड़ी उस क्रांति का हिस्सा बन रहे थे जो मुंबई के मैदानों और मराठीभाषी मिडल क्लास कॉलोनियों में जागृत होकर दौड़ रही थी. 1950 के उत्तरार्ध और 60 के दशक के दौरान क्रिकेट के लिए मुंबई वही हो गया था जो फ़ुटबॉल के लिए बंगाल था – खेल की पौधशाला. इन दो दशकों में इंडिया के लिए खेलने आए 73 नए खिलाड़ियों में से 20 मुंबई से थे. 1958 से 73 के सुनहरे समय में मुंबई रणजी ट्रॉफ़ी जीतती आई. उसे कोई हरा ही नहीं सका. जब इंडिया ने पहली बार इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज़ जीती थी, टीम में 6 मुंबई के प्लेयर थे जिसमें एक मेरे पिता थे. यूनिवर्सिटी क्रिकेट लगातार मुंबई के क्रिकेट को मज़बूत बनाए जा रहा था. "उस वक़्त मुंबई की टीम के लिए खेलना इंडिया की टीम के लिए खेलने से कहीं ज़्यादा मुश्किल था. बहुत कम्पटीशन था लेकिन इसमें मज़ा भी खूब आता था. हम सभी बहुत यंग थे और देशभर में इधर-उधर खेलने के लिए जाया करते थे. हम ट्रेन से जाते थे और अधिकतर सेकंड क्लास में सफ़र करते थे. इस दौरान हम गाने गाते या ताश खेलते थे," मेरे पिता ने मुझसे कहा.
क्रिकेट सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए नहीं था. वो रोज़गार का भी एक साधन था. साल 1958 में अपने पिता की असामयिक मृत्यु के बाद दिलीप को एक नौकरी की ज़रुरत थी. उस वक़्त पब्लिक सेक्टर के बैंक और टाटा वो अकेली ऐसी संस्था थीं जो खिलाड़ियों को अपनी टीम से खेलने के एवज में पैसे दिया करती थीं. असोसिएटेड सीमेंट्स कंपनी (ACC), जो कि टाटा समूह का ही एक हिस्सा थी, के चीफ़ टैलेंट स्काउट और जनरल मैनेजर के पद पर पूर्व भारतीय टेस्ट क्रिकेटर माधव मंत्री मौजूद थे. (वो महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर के चाचा भी थे.) मंत्री ने युवा दिलीप को हिन्दू जिमखाना और अपने क्लब दादर यूनियन के बीच खेले मैच में देख लिया था और ये पहली नज़र में हुए प्रेम की एक मिसाल बन गया. माधव मंत्री ने मुझसे कहा, "जब मैंने पहली बार उसे खेलते हुए देखा था, मुझे मालूम चल गया था कि ये एक दिन इंडिया के लिए खेलेगा. मुझे इस बारे में कोई शक ही नहीं था." मंत्री, जो कि दिलीप के लिए एक और पितातुल्य शख्सियत बन गए, ने दिलीप को ACC के पर्चेज़ डिपार्टमेंट में 1200 रुपये प्रति महीने की नौकरी दिलाई. "मुझे ज़्यादा कुछ करना नहीं होता था. मैं बस सुबह 9 बजे दफ़्तर जाता था और दोपहर में 2 बजे मैदान के लिए निकल पड़ता था," मेरे पापा याद करते हुए कहते.
दिलीप के जीवन में सबसे बड़ा ब्रेक आया 1960 में जब उन्हें यूनिवर्सिटी की मिली-जुली टीमों से लिये जाने वाले खिलाड़ियों में लिया गया जिन्हें पाकिस्तान से आई मेहमान टीम के ख़िलाफ़ खेलना था. मेरे पिता ने बताया, "मैं जब ट्रायल्स के लिए गया तो मुझसे काफ़ी बड़े दर्जनों लड़के दिखाई दे रहे थे. मुझे लग नहीं रहा था कि मुझे ले लिया जाएगा."
असल में उन्हें परेशान होने की कोई ज़रुरत नहीं थी. लाला अमरनाथ उस वक़्त सेलेक्टर्स के मुखिया थे. वो इंसान की योग्यता के दम पर ही उसे आंकते थे और बातों को घुमा-फिरा कर नहीं कहा करते थे. उन्होंने दिलीप को नेट्स में एक परफ़ेक्ट डिफेंसिव शॉट खेलते हुए देखा और उन्हें किनारे बुलाया. उन्होंने कहा, "देखो बेटे, मैं तुम्हें अपनी टीम में लेने वाला हूं लेकिन यहां और भी सेलेक्टर्स मौजूद हैं जिनके बारे में मैं कुछ नहीं कर सकता. इनमें से कुछ को तो क्रिकेट का एबीसीडी भी नहीं आता. थोड़ा एक-दो बॉल हवा में मारो, वो खुश हो जायेंगे. बाकी मैं संभाल लूंगा." कुछ एक शॉट्स के बाद दिलीप को यूनिवर्सिटीज़ की मिली-जुली टीम में जगह मिल चुकी थी जिसे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ खेलना था. उन्होंने वो मौका भी नहीं गंवाया. उस मैच में दिलीप ने 87 रन बनाए और बोर्ड्स प्रेसिडेंट एकादश के लिए चुन लिए गए. वहां भी उन्होंने शतक मारा और अगले होने वाले टेस्ट मैच के लिए उन्हें बारहवें खिलाड़ी के रूप में जगह मिल गई. एक साल के अंदर ही 21 साल की उम्र में वो इंग्लैंड के ख़िलाफ़ अपना पहला टेस्ट मैच खेलने जा रहे थे और दिल्ली के फ़िरोज़ शाह कोटला स्टेडियम में वो जवाहरलाल नेहरू से हाथ मिला रहे थे.
उन्होंने मुंबई की टीम के लिए भी नहीं खेला था और अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उन्हें 'एक नया लड़का जो गोवा से आया है' कहते हुए नेहरू से मिलवाया गया था. नेहरू ने जवाब दिया, "ओह गोवा! चिंता मत करो, भारतीय आर्मी बहुत जल्द गोवा को भी आज़ाद करवा लेगी." 17 दिसंबर को 30,000 भारतीय सैनिक गोवा में मार्च करते हुए घुसे. 2 दिन बाद उसे पुर्तगाल के शासन से आज़ादी मिल चुकी थी. जिस वक़्त गोवा आज़ादी का जश्न मना रहा था, दिलीप सरदेसाई भी बेहद खुश थे. वो अभी-अभी भारतीय टेस्ट कैप पहनने वाले 103वें प्लेयर बन चुके थे. उन्होंने मुझे बताया, "जब मुझे वो कैप मिली थी, मैं उसे पहन कर सोया था. मैं इतना उत्साहित था. गोवा में मडगाव के धान के खेतों से इंडिया के क्रिकेट स्टेडियम्स का सफ़र शानदार और बेहद असाधारण था."