नटवर सिंह अधिकतर समय अपने घर के अध्ययन कक्ष में ही गुजारते हैं, कभी पंडित जवाहर नेहरू के चुनिंदा भाषण और पत्रों को देखते या नंदलाल बोस के बनाए महात्मा गांधी के डांडी मार्च के लिथोग्राफ को निहारते हुए. यहीं अपने डेस्क और ट्रेड मिल के बीच, अपने प्रिय हुसैन की पेंटिंग्स और जॉर्ज बुश से लेकर फिदेल कास्त्रो जैसे विश्व के नेताओं के साथ अपनी तस्वीरों के बीच उन्होंने अपनी आत्मकथा वन लाइफ इज नॉट इनफ के कई ड्राफ्ट तैयार किए हैं. अपनी पसंदीदा आराम कुर्सी पर बैठकर उन्होंने संपादक कावेरी बामज़ई को बताया कि साढ़े आठ साल की चुप्पी के बाद आखिर सोनिया गांधी की छवि खराब करने वाला वृत्तांत क्यों लिखा है.
राहुल गांधी ने जब यह कहा कि वे अपनी मां को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए हर संभव कदम उठाने को तैयार हैं तो वे असल में क्या कहना चाहते थे?
आप बताइए, वे किस हद तक जा सकते थे?
क्या इसमें किसी तरह की हिंसा या पर्दाफाश करने की बात भी शामिल थी.
वे बहुत चिंतित थे. उनका कहना था कि आप जानते हैं, मेरी दादी की हत्या की गई थी, मेरे पिता की हत्या की गई और मुझे संदेह है कि अगर मेरी मां प्रधानमंत्री बनती हैं तो छह महीने के भीतर उनकी भी हत्या कर दी जाएगी. उन्होंने जो कहा है, वे उसके खिलाफ नहीं जा सकतीं और समझदारी भी इसी में थी. इसके लिए मैं राहुल को पूरे नंबर देता हूं कि उन्होंने अपनी मां को वह काम करने से रोका जिससे उनकी जान को खतरा हो सकता था.
लेकिन कोई सत्ता का इतना विरोधी है तो कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व कैसे कर सकता है?
ये दोनों अलग मुद्दे हैं.
क्यों?
ऐसा 2004 में हुआ. वे पार्टी के उपाध्यक्ष नहीं थे, पार्टी में कोई और पद उनके पास नहीं था. यह मां-बेटे के बीच की बात थी. उन्होंने सत्ता की बजाए मां के जीवन को प्राथमिकता दी.
लेकिन यह बताइए, वे किस हद तक जा सकते थे? जैसा आपने लिखा है कि सोनिया की आंखों में आंसू थे?
आप जानती हैं कि राहुल बेहद दृढ़ इच्छाशक्ति वाले शख्स हैं. और उनकी राय बहुत ठोस होती है, भले ही उन्हें अपना जीवन दांव पर लगाना पड़े.
आप कहना चाह रहे हैं कि उन्होंने धमकी दी थी कि वे अपनी जान भी ले सकते हैं?
नहीं, उन्होंने ऐसा तो नहीं कहा था. लेकिन यह एकदम स्पष्ट था कि वे अपनी मां की जान खतरे में नहीं डालने देंगे.
आप मानते हैं कि सोनिया और प्रियंका इसी वजह से पुस्तक को लेकर चिंतित थीं?
हां.
यह मुख्य वजह है?
हां, यही वजह है. सिर्फ तीन या चार लोग इस बारे में जानते हैं.
जैसा आपने कहा, अगर यह अतीत की बात है तो इससे उन्हें चिंता क्यों होनी चाहिए? यह तो एक बेटे की अपनी मां के प्रति चिंता ही दर्शाता है.
यह तो आपको उनसे ही पूछना चाहिए.
लेकिन सोनिया और प्रियंका यहां आई थीं. उन्होंने कोई संकेत किया कि इस पुस्तक को क्यों प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए?
15 या 20 अप्रैल के आसपास सुमन दुबे जो मेरे दोस्त और अच्छे इनसान हैं, उन्होंने मुझे लंच पर बुलाया. उसके तुरंत बाद प्रियंका का फोन आया, “मैं आप से मिल सकती हूं?” मैंने कहा, “कल आएं, साथ कॉफी पीते हैं.” तो प्रियंका आईं और बोलीं, “मुझे मेरी मां ने आपसे किताब के बारे में बात करने के लिए भेजा है. आप क्या लिखने जा रहे हैं?” मेरे लिए यह मुश्किल काम था. मैं इस परिवार को 1944 से जानता हूं. मैंने प्रियंका से कहा, “तुम जानती हो, सच आखिर सच होता है और हमेशा सच रहता है” मैंने प्रियंका से कहा कि पिछले 8-10 साल में कांग्रेस और उनकी मां ने मेरे साथ क्या किया है.
थोड़े समय बाद सोनिया आईं. मैंने कहा, भारत के अलावा दुनिया के किसी भी देश ने वोल्कर रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने एक पाठक जांच कमेटी गठित की जिसने मुझे बरी कर दिया और कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वित्तीय सौदों से नटवर सिंह को व्यक्तिगत तौर पर कोई फायदा हुआ.
मामला यहीं खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मुझे परेशान किया जाना जारी रहा. सोनिया का जवाब था कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं है. मेरा कहना था कि कोई इस पर यकीन नहीं करेगा. कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं घटता जिसकी जानकारी आपको न हो. यहां तक कि पत्ता भी नहीं हिलता. वह मुलाकात बहुत अच्छी रही और मैं बहुत ही शालीनता से पेश आया.
जिस रोज वे आईं, यानी 7 मई को उसके बाद कांग्रेसियों का आपके प्रति रवैया बदला?
हां, काफी लोगों में. मेरे साले अमरदिंर (सिंह) और मैं द ओबेरॉय में लंच कर रहे थे. दिग्विजय सिंह अपने परिवार के साथ वहां आए और पूछने लगे कि आपकी किताब कब छपकर आ रही है. मैं सोनिया गांधी के साथ रोज घंटों बात करता था. दुनिया के हर विषय पर उनसे बात करता था—बिल क्लिंटन के मोनिका लेविंस्की के साथ अफेयर तक हर विषय पर. हम इतने करीब थे कि वे मुझसे वह बात भी कर लेतीं जो राहुल और प्रियंका से नहीं कर पातीं. उनके लिए मेरे घर आना एक तरह से सरेंडर करने जैसा था.
किताब बाहर आने के बाद आपको क्या उम्मीद है?
मैं कह नहीं सकता. शायद वे अदालत जाएं. लेकिन मुझे परवाह नहीं.
सबसे ज्यादा तो राहुल ही प्रभावित होंगे. उनके साथ आपके संबंध कैसे हैं?
मैं उन्हें तब से जानता हूं, जब वे बच्चे थे. हम दोनों में उम्र का अंतर बहुत ज्यादा है.
यह अंतर तो प्रियंका से भी काफी है.
हां, लेकिन राहुल की बजाए प्रियंका से मैं अधिक मिला हूं. उदाहरण के तौर पर एक दिन जब हम उनकी मां के ड्राइंगरूम में बैठे थे तो प्रियंका बोलीं, “मेरी मां ने आपको बताया कि मैं दूसरी बार मां बनने जा रही हूं.” और राहुल अंदर आकर कहने लगे, “आप मेरे परनाना में कोई नुक्स निकाल सकते हैं?” मैं जवाब देता, “यह मुश्किल काम है. वे मेरे हीरो हैं और मैं उनकी पूजा करता हूं.” लेकिन वोल्कर रिपोर्ट आने के बाद हर चीज बदल गई. मैं तब फ्रैंकफर्ट में था. मैंने खबर देखी जिसमें एक कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि कांग्रेस तो साफ-सुथरी है लेकिन नटवर सिंह को खुद को सुधारना चाहिए. मैं गुस्से में था और उम्मीद कर रहा था कि शायद सोनिया इस बारे में कुछ नहीं जानती होंगी. उन लोगों ने सोनिया से कहा कि वे (मैं) आपके इतने करीब हैं, लोग कहेंगे कि आपने उन्हें पैसा दिया है. लेकिन पैसा कहीं था ही नहीं.
मैं नहीं जानता, पैसा किसने लिया. मुझे इसमें दिलचस्पी भी नहीं है. इसके बाद 70,000 पन्नों के दस्तावेज वीरेंद्र दयाल ने लिए लेकिन उन्हें कभी पाठक कमेटी को नहीं दिखाया गया. जब मैं पाठक से मिला तो उनसे पूछा कि उन दस्तावेजों का क्या हुआ? उनका जवाब था कि यह एक लंबी कहानी है.
आप मानते हैं कि पैसा कांग्रेस के पास गया. कांग्रेस में किस के पास?
कोई नहीं जानता. अगर आप वोल्कर रिपोर्ट के संलग्नक को देखें तो पता चलता है कि कांग्रेस का उल्लेख 1997 तक हुआ है. मेरा नाम मार्च, 2005 में शामिल किया गया. वोल्कर रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अधिकारियों खासकर महासचिव के बेटे की करतूतों का खुलासा करना था. अब वे सब बच गए और मैंने कुछ किया ही नहीं. मैडम सोनिया ने कहा था कि मुझे इस मामले में फंसाना होगा.
आपको किस लिए ठीक करना था.
आप जानते हैं, उन्हें अवज्ञा पसंद नहीं है.
आपने किस तरह अवज्ञा की?
मैं दूसरों की तरह उनसे मिलने नहीं गया और उनसे यह नहीं कहा कि मुझे माफ कीजिए, आप मुझसे नाराज क्यों हैं?
अक्तूबर, 2005 में जब आप फ्रैंकफर्ट से वापस आए तो उनसे मिले नहीं?
मैं उनसे किसी तरह के संवाद की उम्मीद कर रहा था कि वे पूछें “यह सब क्या हो रहा है?” और मैं अपनी तरफ से स्पष्टीकरण देता. अगर आप व्यावहारिकता की बात करें तो वह शायद समझदारी भरा कदम होता लेकिन मेरे लिए यह नैतिकता का मुद्दा बन गया था. जब उन्होंने मुझसे रक्षा सौदे के बारे में सवाल किया तब भी मैंने जवाब दिया, “आप मेरी ईमानदारी पर शक कर रही हैं, जो मुझे मंजूर नहीं है.”
लेकिन इसके अलावा बहुत-सी अच्छी यादें हैं. जब मेरी बेटी का निधन हुआ तो वे कई दिन तक मेरे घर आती रहीं. मेरी बाइपास सर्जरी हुई तो वे रोज अस्पताल आती थीं. मैं कई बार उनसे मिलता, सिर्फ गपबाजी के लिए. हम किताबों पर चर्चा करते. वे बहुत पढ़ाकू हैं, मैंने गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की किताब वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड के बारे में पहले कभी नहीं सुना था. वह पुस्तक पढऩे के बाद सोनिया ने ही मुझे बताया. हम बहुत-सी किताबों की अदला-बदली करते थे. उनके व्यक्तित्व का एक पहलू बहुत ही अच्छा है.
क्या है वह?
वे मानती हैं कि मैं बहुत विवेकशील व्यक्ति हूं और अपने परिवार के प्रति समर्पित हूं. इसलिए वे मेरे घर आकर खुल जाती हैं. कई बार शरमा जाती हैं और उनके डिंपल गहरे हो जाते हैं. उनका सेंस ऑफ ह्यूमर (मजाकिया स्वभाव) बहुत कमाल का है.
उन्हें गप-शप पसंद है? आसपास की घटनाओं के बारे में वे जानना चाहती हैं?
वे हर चीज के बारे में जानती हैं.
आपकी किताब में राहुल एक जगह आते हैं, एक पिल्ले के साथ जो किताब चबा जाता है. आप की उनके बारे में यही राय है?
मुझे वे बहुत अच्छे लगते हैं. वे बहुत ही अच्छे इनसान हैं. वे कुछ कर दिखाएंगे.
किस आधार पर यह कह रहे हैं?
वंशानुगत गुण उनमें हैं. वे राजनैतिक परिवार में पले हैं. वे आधुनिक विचारों वाले शख्स हैं.
आप से उन्होंने कभी राय नहीं ली. जब से वे पार्टी में सक्रिय हुए तब से आप अस्वीकार्य बन चुके थे.
मैं जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड का आजीवन ट्रस्टी हूं. इसलिए चार या पांच महीने में उनसे मुलाकात हो जाती है. सोनिया भी वहां आती हैं लेकिन मैं उनसे बात नहीं करता.
बस खाली हालचाल. आपने एक डिनर का हवाला दिया था जिसमें उन्होंने आप से बात नहीं की.
वे वहां बैठी थीं. मैं भी वहां था. चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति भी वहां बैठे थे, और उन्होंने हम में से एक से भी बात नहीं की जबकि दूसरी डिनर पार्टियों में हम थोड़ा-बहुत हंसी-मजाक कर लेते थे. मैं कुछ मजेदार बातें लिखता, वे उसे पढ़कर अपने पर्स में रख लेतीं. ऐसा संबंध किसी और के साथ नहीं था.
यह संबंध गुरु-शिष्या जैसा था या दोस्तों जैसा?
गुरु शब्द तो बहुत बड़ा हो जाता है. हम बहुत अच्छे दोस्त थे.
उम्र में काफी अंतर के बावजूद?
हां.
पुस्तक में एक वाक्य है, कोई भारतीय ऐसा नहीं कर सकता था जो उन्होंने किया.
हां, यह एकदम सही है.
इससे आपके क्या मायने हैं?
अंदर से वे बहुत सख्त हैं. जो भारतीय महिलाओं जैसा गुण नहीं है. मिसाल के तौर पर कोई भारतीय अपने से उम्र में बड़े व्यक्ति से वैसा व्यवहार नहीं करेगा, हमारे देश में परंपरा है कि आप बड़ों का आदर करते हैं, दुव्र्यवहार नहीं करते. ऐसा व्यवहार सिर्फ मेरे साथ नहीं है. प्रधानमंत्री जानते हैं कि वे उनके साथ बात नहीं करती थीं (मिसाल के तौर पर नरसिंह राव). वे कहते थे, क्या करूं मैं, प्रधानंमत्री हूं, मैं उनसे मिलना चाहता हूं.
यही एकमात्र गैर-भारतीय गुण उनमें है?
वे 19 साल की उम्र से यहां हैं. वे भारतीय नारी की तरह कपड़े जरूर पहनती हैं लेकिन हमारे धार्मिक ग्रंथों के बारे में ज्यादा नहीं जानतीं. खैर हममें से अधिकतर नहीं जानते. वे सारे व्रत और त्योहार मनाती हैं. अपनी बेटी की शादी कश्मीरी रीति-रिवाज से की. वे सबसे ऊंचे परिवार में रही हैं लेकिन कोई गलती ऐसी नहीं की कि कोई कहे, ये क्या कर रही है? लेकिन वे बहुत सख्त मिजाज हैं. शायद 25 फीसदी. लेकिन हैं जरूर.
क्या सोनिया गांधी के दोस्त हैं?
इस मुकाम पर आकर, कोई दोस्त नहीं होता. आप मान लीजिए कि आपके दोस्त नहीं हो सकते.
आप मानते हैं कि इसे बीजेपी की साजिश माना जाएगा. आपका बेटा बीजेपी का विधायक है.
मेरे बेटे का इससे कोई लेना-देना नहीं है.
आप नहीं मानते कि कांग्रेस ऐसा कह सकती है?
मैं तो कहूंगा कि “आप कांग्रेस को कितना जानते हैं?” वे जोकर मुझसे ऐसा कैसे कह सकते हैं? सोनिया गांधी को वे कितना जानते हैं?
क्योंकि आप किताब को मोदी से मिलने के प्रसंग पर खत्म करते हैं.
हां, मैं उनसे मिलने गया था. मैं हैरान था कि पांच महीने बीत जाने के बाद भी उन्होंने विदेश नीति के बारे में एक शब्द नहीं कहा. मैं उनके पास गया और बोला, “मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आया. मैं आप से कहने आया हूं कि अगर आप प्रधानमंत्री हैं तो और अंततः आप विदेश मंत्री भी हैं.” वे बोले, ‘बताइए’ मैंने कहा, “शुरुआत पड़ोसियों से करिए.”
आप अब भी मानते हैं कि कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार का सदस्य ही कर सकता है? अब भी?
हां, तब तक जब तक कोई और जीनियस सामने नहीं आ जाता. आप एक नाम मेरे सामने लीजिए. नेहरू-गांधी परिवार की अखिल भारतीय स्तर पर मान्यता है, हर प्रदेश, हर भाषा बोलने वालों में. अभी पांच साल पहले तक उनके पास 15 प्रतिशत वोट तो हमेशा रहते ही थे. इसका लाभ तो उन्हें है ही. इस परिवार के नाम के बिना पार्टी दो फाड़ हो जाएगी. सोनिया ने 15 साल तक इसे एकजुट रखा है. जब वे कांग्रेस अध्यक्ष बनीं तो मुझ से कहा था, “उन्हें क्या करना चाहिए?” मैंने जवाब दिया, “पार्टी का नए सिरे से गठन करो.” और उन्होंने यह काम बखूबी कर दिखाया.
लेकिन एक नेता के रूप में राहुल को कैसा मानते हैं?
मेरे ख्याल से उनमें नेता बनने के सारे गुण हैं.
तो उनके सारे गुण तिरोहित हो गए?
नहीं, अगर आपकी पार्टी 44 सीटों पर सिमट कर रह जाती है तो समझ जाना चाहिए कि कहीं भारी गड़बड़ है.