
आज भारत एक तरह के भाग्यवाद के भरोसे जी रहा है, जो मुंबई पर हुए हमले के बाद उभरी इस कटु सचाई से उपजा है कि अगर ऐसा मुंबई के साथ हो सकता है तो फिर हर शहर इसका आसानी से शिकार बन सकता है. नई दिल्ली और मुंबई अगर आतंकवादियों के लिए महत्व-पूर्ण निशाने हैं, तो इसकी वजह इन दो महानगरों का क्रमशः भारत का सत्ता प्रतिष्ठान और वित्तीय संपन्नता का प्रतीक होना है. भारत को यह प्रदर्शित करने की जरूरत है कि वह इन दो शहरों की रक्षा में सक्षम है, अथवा इससे कुछ लोगों-कम-से-कम उसके सभी शत्रुओं को तो-यह संदेश पहुंचेगा कि उसमें अपने लोकतंत्र की रक्षा करने की इच्छाशक्ति है.
इन दो महानगरों की सुरक्षा की चुनौतियां इनकी भौगोलिक स्थिति और जनसांख्यिकी की वजह से अधिक गहन हो गई हैं. दोनों ही शहर दूरदराज तक फैले हुए हैं और जनसंख्या का भारी दबाव झेल रहे हैं. ऐसे में उनकी सुरक्षा का भार ऐसे पुलिस बल पर है, जो न सिर्फ संख्या में कम है, बल्कि जिसमें किसी प्रकार की प्रेरणा का भी अभाव है. राजनैतिक प्रतिष्ठान के साथ पुलिस बल की सांठगांठ को भी व्यापक तौर पर भ्रष्टाचार बढ़ाने के कारक के रूप में देखा जाता है, जिसका असर इस बल की कार्यक्षमता के साथ-साथ जनसाधारण में उसकी छवि पर भी पड़ता है.
बहरहाल, यथास्थिति को स्वीकारते रहने का अब कोई विकल्प नहीं रह गया है. हमारे महानगर ऐसे किले बन जाने चाहिए जिन्हें 26 नवंबर को हमला करने वाले आतंकियों जैसे लोग आसानी से बेध न पाएं. इन अभेद्य किलों का निर्माण मानवीय बुद्धि और समन्वय से किया जाना चाहिए, जिनकी मदद के लिए श्रेष्ठतम हथियार, चौकसी की तकनीक और जांच-पड़ताल के उपकरण मौजूद हों.
आतंक का सुराग लगाना, उसे निरस्त करना और उसके खिलाफ जवाबी कार्रवाई करना तभी संभव है जब इस काम को विशेष रूप से वर्गीकृत कर दिया जाए और पुलिस के दूसरे विभागों से इसे अलग रखा जाए. शहर स्तर पर सशस्त्र पुलिस से गठित ऐसे लड़ाकू बल की जरूरत है जिसमें भलीभांति प्रशिक्षित जवान हों और जिसे सिर्फ आतंकवाद से लोहा लेने के लिए ही रखा जाए. अनुमान है कि 100 लोगों की टीम गठित करने में भी कम-से-कम छह महीने लग जाएंगे.
महानगर पुलिस की जांच-पड़ताल करने वाली मशीनरी को सामान्य कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने वाले ढांचे से अलग करने की जरूरत है. आतंकवादी हमले में केंद्रीकृत कमान सेंटर और विशेष कमान श्रृंखला की स्थापना बहुत जरूरी है. इन नियंत्रण कक्षों को खुफिया सूचना प्रबंधन तंत्र से लैस होना चाहिए.{mospagebreak}26/11 के हमलों ने खुफिया तंत्र के एकीकरण के अभाव से हुई खामियों को भी उजागर किया. पुलिस को आयकर विभाग, उत्पाद शुल्क और खुफिया विभागों के साथ भी अधिक समन्वय स्थापित करना चाहिए. संगठित अपराध, पैसे की हेराफेरी और आतंकवाद में रिश्ता पहले से स्थापित हो चुका है. इन मामलों में सिर्फ 'अपने दायरे' की सुरक्षा करने का मतलब अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से मुंह मोड़ना है.
आसानी से हमले का शिकार बन सकने वाले शहर के 50 अति संवेदनशील ठिकानों की पहचान प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए. इनमें अधिकतर स्थानों की निगरानी के लिए तत्काल सीसीटीवी लगाए जाएं. दूसरे अधिक संवेदनशील ठिकानों की सुरक्षा में लगी पुलिस और स्थानीय सुरक्षा एजेंसियों के बीच स्पष्ट और तीव्रगति से संवाद श्रृंखला स्थापित किए जाने की जरूरत है.
तकनीक लागू करने से अधिक महत्वपूर्ण है बुनियादी पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त करना. इसमें मुखबिरी के नेटवर्क को फिर शुरू करना होगा. इस व्यवस्था से कभी मुंबई पुलिस की पहचान बनी थी. मुंबई में मोहल्ला समितियों को मजबूत करने (जिन्हें एक पूर्व संयुक्त पुलिस आयुक्त ने कमजोर कर दिया था) और दिल्ली में जन कल्याण समितियों को अपनी सुरक्षा के मामले में अधिक सक्रिय करने से शेष खामियां भी दूर हो जाएंगी.
2007 में जारी 25 बड़े शहरों का विश्व सर्वेक्षण बताता है कि 59 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों ने निजता की सुरक्षा की बजाए सार्वजनिक चौकसी को अधिक महत्व दिया. भारतीय लोग शायद बहुमत की इस राय से सहमत होंगे, भले ही उसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा पहचान पत्र लागू करने की व्यवस्था शुरू करनी पड़े.
एक अन्य क्रांतिकारी समाधान है जो राज्यों के गृह विभागों और पुलिस बल के बीच पहले से धुंधलाए रिश्तों को और धुंधला देगा, लेकिन इस दलील की पुष्टि करेगा कि विशेष किस्म के डर को विशेष प्रतिक्रिया से ही निबटा जा सकता है. महाराष्ट्र के पूर्व डीजीपी डी.एस. सोमण का सुझव है कि आइएएस की बजाए आइपीएस वर्ग से गृह सचिव बनाना श्रेयस्कर होगा क्योंकि उन्हें सशस्त्र मुठभेड़ का पर्याप्त अनुभव होता है.{mospagebreak}ये सभी सामान्य बुद्धि के उपाय हैं, पर तभी कारगर हो सकते हैं जब उन्हें लागू करने में समय की पाबंदी का कड़ाई से पालन किया जाए. अभी नवंबर, 2008 में ही गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को वर्ष 2005-06 की महानगर सुरक्षा योजना में तेजी लाने के लिए कहा गया था. इसके महज तीन हफ्ते बाद 10 आतंकवादियों ने भारत के सर्वाधिक समृद्ध शहर को 60 घंटे तक मौत के शिकंजे में जकड़े रखा. सो, हमारे महानगरों की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत बनाने में देरी की सभी वजहों का, वे वैध हों या नहीं, अब कोई औचित्य नहीं रहा जाता.