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निर्भया केस : हर मां को पढ़नी चाहिए ये चिट्ठी

पिछले साल दिल्ली में रेप के 2,199 केस सामने आए. साल 2012 (जिस साल निर्भया केस हुआ था) के मुकाबले यह आंकड़ा कहीं ज्यादा है. आज 16 दिसंबर, निर्भया केस को चार साल हो गए, पर कुछ भी नहीं बदला. जानें बदलाव के लिए यह खत मांओं से क्या कहता है...

Nirbhaya Case Nirbhaya Case
मेधा चावला
  • नई दिल्ली,
  • 16 दिसंबर 2016,
  • अपडेटेड 2:34 PM IST

16 दिसंबर 2012. उस रात को शायद मैं कभी भूल न पाऊं. मैं ही क्यों देश की कोई भी लड़की नहीं भूल सकेगी. ऐसा नहीं है कि इससे पहले रेप की घटनाएं शहर में हुई नहीं थीं, पर इस घटना ने अंदर तक झकझोर दिया.

निर्भया जीना चाहती थी. जिन आंखों में अपने परिवार को बेहतर बनाने, अपने सपनों को पूरा करने का ख्वाब पल रहा हो, वह किसी भी हाल में जीने का जज्बा कैसे छोड़ सकती थी. पर डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए और एक बेटी अपने सपने पूरे करने से पहले ही चली गई.

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निर्भया केस के बाद एक अजीब सा डर बैठ गया मेरे मन में. क्योंकि मैं एक वर्किंग वुमेन हूं और इसलिए भी क्योंकि मैं एक बच्ची की मां हूं. मेरे लिए अपनी बेटी की सुरक्षा को सुनिश्च‍ित करने की चुनौती जैसे और बढ़ गई. मैं हमेशा उस पर नजर नहीं रख सकती और ना ही हर पल उसके साथ रह सकती हूं. स्कूल, क्रेच और प्लेग्राउंड... कहां-कहां उसे बचाउंगी. इस बारे में जब भी सोचती हूं, बेचैन हो जाती हूं.

कौन है इसके लिए जिम्मेदार, इसे कौन ठीक कर सकता है. सरकार, पुलिस, राजनीतिक पार्टियां या हम खुद. अगर शुरुआती दौर में ही हम अपने बच्चों को लिंग भेद, महिलाओं के सम्मान और सामाजिक दायरों के बारे में बताएं तो संभवत: समाज में ऐसी कुंठित और बीमार मानसिकता रखने वालों की संख्या घट जाए.

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मेरा खत सभी मांओं के लिए है. क्योंकि हम अपने बच्चों को इस दुनिया में लाते हैं. उन्हें हर बुरी नजर से बचाते हैं. बचपन में जब बच्चा बिना बात उल्टी करने लगे तो तपाक से उसकी नजर उतार देते हैं. रात-रातभर जाग कर उसकी नैपी चेंज करते हैं. फिर ऐसा क्या हो जाता है कि कुछ बच्चे ऐसा घृणित काम कर बैठते हैं. कुछ तो हमारे स्तर पर भी चूक रही होगी.

बच्चे हमारी कोख से जन्म लेते हैं, हमारा ही हिस्सा होते हैं, इसलिए मुझे लगता है कि उन्हें एक सही राह दिखाने की जिम्मेदारी हमारी ज्यादा है. एक पिता का बच्चे के साथ मां की तरह भावनात्मक जुड़ाव नहीं हो सकता और ना ही वह उसकी हर अनकही बातों को समझ सकता है. सिर्फ एक मां ही है, जो अपने बच्चे को सबसे अच्छी तरह समझती है. इसलिए ये कदम हमें सबसे पहले उठाना होगा. अपने बच्चों को औरतों की इज्जत करना सिखाना होगा और मोरल वैल्यूज देनी होगी. साथ ही उन्हें सही दिशा भी देना आवश्यक है.

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मेरी बच्ची चार साल की होने वाली है और मैं अभी से ही उसे गुड़ टच और बैड टच के बारे में बताती हूं. उसे समझाती हूं कि कोई उसे इस तरह छूए तो उसे रोना है और शोर मचाना है. पर इसकी जगह मेरा बेटा होता तो मैं उसे इसके साथ-साथ यह भी समझाती कि उसे क्या नहीं करना है. उसे औरतों की इज्जत कैसे करनी है और इसकी शुरुआत मैं यह बता कर करती कि उसे अपनी टीचर और क्लासमेट्स के साथ कैसे बि‍हेव करना है. इस छोटी पहल से ही हम अपने समाज में बड़े बदलाव ला सकते हैं.

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हम समाज की एक महत्वपूर्ण ईकाई हैं. हम से समाज बनता है. तो क्यों न शुरुआत हम ही करें ताकि फिर कोई निर्भया न बने.

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