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असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और केरल में विधानसभा चुनावों के नतीजे 19 मई को आने का ऐलान हो गया है. पर इन पांच राज्यों के चुनाव से राष्ट्रीय सियासी विमर्श में कोई नाटकीय बदलाव आने की उम्मीद नहीं है. वैसा बदलाव जो बिहार के चुनावी नतीजों के बाद आया था. इनसे सत्तारूढ़ एनडीए की राज्यसभा में स्थिति में भी कोई फर्क आने की उक्वमीद नहीं है. राज्यसभा में विपक्षी दलों को बहुमत हासिल है और उसे अक्सर सुधार के एजेंडे को आगे बढ़ाने में मोदी सरकार की नाकामी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है.
लेकिन इनके नतीजे बेशक देश की तीन बड़ी पार्टियों—कांग्रेस, बीजेपी और वाम दलों—की रणनीतिक दशा-दिशा तय करेंगे. इन पांच राज्यों में से तीन में कांग्रेस की हुकूमत है, जबकि दो में कांग्रेस और बीजेपी ज्यादा से ज्यादा हाशिए की खिलाड़ी हैं. पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता में वापसी की कोशिश में है और इसके लिए उसने कांग्रेस से हाथ मिला लिया है, वहीं केरल में वह कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार को हटाने की जुगत में है. बीजेपी अकेली पार्टी है जिसके पास इन चुनावों में खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है, पर वह हैरतअंगेज जीत हासिल कर सियासी और प्रतीकात्मक तौर पर वापसी कर सकती है.
कांग्रेस असम और केरल में सत्ता-विरोधी रुझान का सामना कर रही है. इनमें से कम से कम एक राज्य में सत्ता बचाना उसके लिए बेहद अहम है. अगर ये दोनों राज्य भी उसकी पकड़ से छूट जाते हैं तो वह छह राज्यों में सिमटकर रह जाएगी, जिनमें से तीन पूर्वोत्तर के राज्य हैं और सबसे बड़ा राज्य कर्नाटक ही है. पंजाब को छोड़ दें, जहां कांग्रेस को 2017 में आम आदमी पार्टी से कड़ी चुनौती मिलेगी, तो पार्टी को पुनर्जीवित करने का रास्ता अंतहीन हो सकता है.
कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे पर समझौता होने के बावजूद सीपीएम के लिए पश्चिम बंगाल की जंग बेहद मुश्किल है. केरल में सीपीएम की अगुआई वाला वाम लोकतांत्रिक मोर्चा घोटालों से घिरी कांग्रेस की अगुआई वाली यूडीएफ को सत्ता से बेदखल करने का अच्छा मौका ताड़ रहा है. इन दो राज्यों में या कम से कम केरल में फतह फिलहाल त्रिपुरा तक सीमित हो चुके लाल दुर्ग की भौगोलिक सरहदों को न केवल बढ़ाएगी, बल्कि सीताराम येचुरी के लिए भी उत्साहजनक साबित होगी. गौर तलब है कि येचुरी पार्टी महासचिव बनने के बाद पहली चुनावी जंग में उतर रहे हैं.
असम: फिजा में गठबंधन
बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजों में जब जेडी(यू), आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को बुरी तरह से धूल चटा दी, तो उसके फौरन बाद असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कांग्रेस, एआइयूडीएफ और एजीपी समेत अन्य दलों के बीच वृहद समझौते का विचार रखा था ताकि बीजेपी के उभार का सामना किया जा सके. बीजेपी असम में 2014 के लोकसभा चुनावों में और फिर 2015 के नगर निकायों चुनाव में सबसे कामयाब पार्टी के तौर पर उभरी थी. विडंबना कि गोगोई के विचार को बीजेपी ने हथिया लिया और उसने एजीपी, बीपीएफ और कई जनजातीय धड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर गठबंधन बना लिया. इस बहुरंगी गठबंधन के पीछे गोगोई के पूर्व भरोसमंद सहयोगी हेमंत बिस्व सरमा का ही दिमाग था. सरमा ने मुख्यमंत्री के साथ तीन साल तक चले सत्ता संघर्ष के बाद पिछले अगस्त में पाला बदलकर बीजेपी का दामन थाम लिया था.
बीजेपी के सियासी आत्मघात से कांग्रेस में नया जोश आ गया है. बिहार चुनाव के बाद शहरी मुस्लिम वोटरों के मिजाज में आए बदलाव ने भी उसके आत्मविश्वास को बढ़ाया है. पिछले दो चुनावों में मुस्लिम वोटर एकमुश्त ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) के साथ चले गए थे. एआइयूडीएफ को मुसलमानों के हितों की हिफाजत के लिए इत्र के कारोबारी बदरुद्दीन अजमल ने 2005 में गठित किया था. यहां भी कांग्रेस ने अपनी खोई जमीन धीरे-धीरे दोबारा हासिल की है. गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर ननी गोपाल महंत कहते हैं, ''मुसलमानों के एक तबके, खासकर मूल बाशिंदों, में यह एहसास तारी हुआ है कि कांग्रेस ही अकेली पार्टी है जो देश को गिरफ्त में ले रहे हिंदुत्व के एजेंडे से अल्पसंख्यकों की हिफाजत कर सकती है.'' कांग्रेस को एआइयूडीएफ के 18 विधायकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता-विरोधी रुझान का फायदा मिलने की भी उम्मीद है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोटों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस और एआइयूडीएफ के बीच सीटों के बंटवारे पर समझौता करवाने की कोशिश की थी. लेकिन तरुण गोगोई ने इस डर से कि इसका उलटा असर पड़ सकता है और हिंदू वोट बीजेपी के हक में एकजुट हो सकते हैं, इससे पल्ला झाड़ लिया.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच सीट-बंटवारे के तालमेल से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बेचैन हैं, तो इसकी वजह है. सीटों के चुनावी तालमेल के इस मॉडल को पहले अक्तूबर 2015 में उत्तर बंगाल की सिलीगुड़ी नगरपालिका के चुनाव में आजमाया गया था और तब उस चुनाव में सीपीएम ने टीएमसी को धूल चटा दी थी. अब राज्य भर में इस फॉर्मूले को दोहराने से ममता को कड़ी चुनौती मिल सकती है.
वाम मोर्चे के साथ सीटों के तालमेल का फायदा कांग्रेस को उत्तर बंगाल और मुर्शिदाबाद की 76 सीटों पर मिल सकता है, जो संयोग से पार्टी का पारंपरिक गढ़ रही हैं. प्रदेश कांग्रेस महासचिव ओ.पी. मिश्र के मुताबिक अगर लोकसभा के चुनाव नतीजों का विश्लेषण किया जाए, तो कांग्रेस और वाम दलों के वोट मिलकर 161 से 170 सीटें उनकी झोली में डाल सकते हैं. मगर कागजी और असली गणित में अब भी बड़ा फासला है. ममता ने पिछले पांच साल में अपनी 'उपलब्धियों' का डंका पीटने में तो पूरी ताकत झोंक ही दी है, उनकी रणनीति में और भी बातें शामिल हैं. उन्होंने जाने-माने फुटबॉलर बाईचुंग भूटिया और क्रिकेटर लक्ष्मी रतन शुक्ल जैसी हस्तियों को अपने उम्मीदवारों की फेहरिस्त में शामिल किया है. वहीं 25 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले सूबे में वे अल्पसंख्यक समुदाय के 57 उम्मीदवार खड़ा कर रही हैं. वे राज्य में बीजेपी के असर को कम करने में भी सफल रही हैं. इसकी वजह राज्यसभा में टीएमसी सांसदों की अच्छी-खासी तादाद है, जिनका समर्थन हासिल करना एनडीए सरकार के लिए बेहद अहम है. पर इसके उलटे नतीजे भी हो सकते हैं.
लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे को सिर्फ 27 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी, जबकि 2011 में उसने 62 सीटें जीती थीं. सीपीएम नेता राबिन देव के अनुसार, वाम वोटर यह सोचकर बड़ी तादाद में सीपीएम से कूच कर गए थे कि टीएमसी का मुकाबला करने के लिए केंद्र में बीजेपी बेहतर हालत में होगी. बीजेपी के वोटों में 17 फीसदी की उछाल मोटे तौर पर वाम दलों की कीमत पर आई थी. वाम मोर्चा खोया हुआ समर्थन दोबारा हासिल करने की उम्मीद में है.
तमिलनाडु में मुख्यमंत्री जे. जयललिता महज सियायी शख्सियत नहीं हैं. वे सूबे की सबसे ताकतवर ब्रांड भी हैं. इस ब्रांड ने एआइएडीएमके को सूबे का इतिहास बदलने का आत्मविश्वास दिया है और वह भी किसी के साथ गठबंधन किए बगैर. 1984 के बाद राज्य में कोई भी सत्ताधारी पार्टी दोबारा सत्ता में नहीं लौटी है. एआइएडीएमके ढेर सारी लोकलुभावन योजनाओं के बूते वोटों की फसल जुटाने की उम्मीद कर रही है और इन सारी योजनाओं पर 'अम्मा' की छाप लगी हुई है.
उनके मुकाबले डीएमके-कांग्रेस का गठबंधन है, जिसमें आइयूएमएल तीसरा भागीदार है, इसे एआइएडीएमके के खिलाफ सत्ता-विरोधी वोटों को एकजुट करना होगा. पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी डीएमडीके ने अकेले चुनाव लडऩे का फैसला करके इस गठबंधन का गणित बिगाड़ दिया है. अम्मा-विरोधी वोट डीएमडीके, डीएमके-कांग्रेस गठबंधन, बीजेपी और पीपल्स वेलफेयर फ्रंट (पीडब्ल्यूएफ) में बंटे हुए हैं. पीडब्ल्यूएफ में एमडीएमके, सीपीआइ, सीपीएम और वीसीके शामिल हैं. बहुकोणीय मुकाबले का सीधा फायदा एआइएडीएमके को होगा क्योंकि उसके वोटों का हिस्सा किसी भी पार्टी या गठबंधन के मुकाबले सबसे ज्यादा है.
बीजेपी इस दक्षिणी सूबे में अपनी पारी शुरू करने की उम्मीद में है. इसके साथ यहां की कड़ी लड़ाई में कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ और सीपीएम की अगुआई वाले एलडीएफ के बीच गलती की गुंजाइश और भी कम रह गई है. बीजेपी के आत्मविश्वास को इस बात से ताकत मिल रही है कि उसे पिछले साल स्थानीय निकायों के चुनाव में 15.3 फीसदी वोट मिले थे. यह 2011 के विधानसभा चुनावों में मिले 6.1 फीसदी वोटों और 2014 के आम चुनाव में मिले 10.83 फीसदी वोटों की बनिस्बत अच्छी वृद्धि थी. पार्टी ने भारत धर्म जन सेना के साथ समझौता भी किया है, जो सीपीएम का समर्थन करने वाले एझावा समुदाय की सियासी पार्टी है.
सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने तिहरी चुनौती हैः भारी सत्ता-विरोधी रुझान, सरकार की नींव हिला देने वाले घोटाले और पार्टी में मुख्यमंत्री और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष वी.एम. सुधीरन में टकराव. पार्टी की चुनावी किस्मत आखिरकार मुख्यमंत्री उम्मन चांडी की लोकलुभावन योजनाओं और विशाल विकास परियोजनाओं के असर से तय होगी. इन योजनाओं में कोच्चि मेट्रो रेल, कन्नूर एयरपोर्ट, विझिंजम इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल और कोच्चि स्मार्ट सिटी परियोजना शामिल हैं.
सीपीएम के लिए ज्यादा बड़ी चुनौती 92 वर्षीय वी.एस. अच्युतानंदन और उनके विरोधी पिनराई विजयन के बीच शांति कायम रखना है. अच्युतानंदन के बगैर पार्टी का गुजारा नहीं है, क्योंकि उन्हें बेजोड़ जनसमर्थन हासिल है. मगर वह उन्हें सीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने से भी कतरा रही है. येचुरी दोनों पक्षों को इस बात पर मनाने में सफल रहे कि अच्युतानंदन और विजयन, दोनों चुनाव लड़ेंगे तथा मुख्यमंत्री का फैसला बाद में होगा.
(—साथ में रोमिता दत्ता, अमरनाथ के. मेनन और जीमोन जैकब)