
इराक के मोसुल में चार साल पहले लापता हुए 39 भारतीयों की आईएसआईएस ने हत्या कर दी है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने राज्यसभा में इस बात की जानकारी दी है. सुषमा ने बताया कि सभी भारतीयों का शव बगदाद भेज दिया गया था. हमने DNA सैंपल के जरिए इनकी जांच करवाई है. इनमें से 38 के डीएनए मैच कर गए हैं, 39वें की जांच चल रही है.
पिछले चार वर्षों में ना जाने कितनी बार इन 39 भारतीयों के लिए तलाशी अभियान चलाया गया, लेकिन कभी उनका पता नहीं चल सका. इसके लिए आजतक ने भी अपनी टीम मोसुल भेजी थी. उस वक्त हमारी पूरी तफ्तीश के बाद तय हो गया था कि सभी भारतीय मारे जा चुके हैं. बस उनकी जानकारी के लिए आखिरी भरोसा बचा था, तो सिर्फ डीएनए सैंपल का.
पिछले साल 22 अक्तूबर को हमें पता चला कि विदेश राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह 39 लापता हिंदुस्तानिय़ों की तलाश के लिए इराक जा रहे हैं. 23 अक्तूबर की रात ही हमारे वरिष्ठ संवाददाता शम्स ताहिर खान अपने सहयोगी गौरव सावंत और कैमरामैन कृपाल सिंह के साथ दिल्ली से बगदाद के लिए निकल पड़े. बगदाद के लिए भारत से डाइरेक्ट फ्लाइट नहीं है.
लिहाजा हमारी टीम पहले दिल्ली से दुबई पहुंची. इसके बाद दुबई से दूसरी फ्लाइट पकड़ कर 23 अक्तूबर की शाम हमारी टीम स्थानीय समय के मुताबिक ठीक साढ़ पांच बजे बगदाद एयरपोर्ट पहुंची. हमारी टीम को बगदाद के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. हमारी टीम को ये भी पता नहीं था कि वे कहां जाएंगे कैसे जाएंगे कहां ठहरेंगे? रात के आठ बज चुके थे.
इसके बाद दो टैक्सी बदल कर बगदाद के करादा इलाका पहुंचे. एयरपोर्ट पर हमारी टीम को किसी ने बताया कि वो जगह ठीक है और वहां होटल भी आसानी से मिल जाएगा. रात करीब दस बजे हमारी टीम ने करादा आउटर के लाइफ पैलेस होटल में चेक इन किया. अगले दिन सुबह-सुबह हमारी टीम बगदाद में भारतीय दूतावास पहुंची. यहीं वीके सिंह से मिलना था.
आजतक की टीम को पता था कि 39 भारतीयों की तलाश के लिए हमें मोसुल, बदूश और इरबिल जाना पड़ेगा. ये तीनों ही जगह बेहद खतरनाक थीं. वहां अब इराकी फोर्सेज, कुर्दिश, बागियों और आईएसआईएस के खिलाफ झड़प जारी थी. दोपहर होते-होते हमारी टीम को पता चला कि विदेश राज्य मंत्री बगदाद पहुंच चुके हैं. वे बगदाद के ग्रीन जोन इलाके में ठहरे हैं.
ग्रीन जोन इलाका मतलब बगदाद का सबसे महफूज इलाका. भारतीय दूतावास में ही हमारी टीम की मुलाकात जरनल वीके सिंह से हुई. उन्होंने हमारी टीम को अपने प्लान के बारे में बताया. हमारी टीम को भरोसा था कि वे विदेश राज्य मंत्री के साथ मोसुल जाएंगे. बगदाद से मोसुल तक करीब 410 किलोमीटर का सफर सड़क के रास्ते तय करना बेहद खतरनाक था.
हमारी टीम मोसुल सिर्फ इराकी फौज की सुरक्षा में जनरल वीके सिंह के काफिले के साथ ही जा सकती थी. लेकिन ऐन वक्त पर हमें पता चला कि जनरल वीके सिंह इराकी सेना के विशेष विमान से मोसुल रवाना हो गए. उनके अकेले मोसुल चले जाने की खबर हमारी टीम के लिए झटके जैसी थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था अब क्या करें? कैसे मोसुल पहुंचे?
हरेक ने हमारी टीम को समझाया कि सड़क के रास्ते मोसुल जाने का इरादा छोड़ दो. खतरा बहुत है. पर दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था वहां तक पहुंचने का. और हमें तो हर हाल में मोसुल पहुंचना था. इससे पहले हमारी टीम को बगदाद पहुंचने के दूसरे ही दिन ये बताया गया कि खबर फैल चुकी है कि हिंद के तीन सहाफी यानी भारत के तीन जर्नलिस्ट यहां घूम रहे हैं.
हमारे लिए ये खबर बुरी थी. क्योंकि हमे बताया गया था कि बगदाद में बेशक आईएसआईएस का असर उतना नहीं है. लेकिन उनके स्लीपर सेल यहां अब भी जगह-जगह छुपे हैं. हमें सलाह दी गई कि फौरन होटल बदल लो. लिहाजा हमारी टीम ने रात में ही अपना होटल बदल लिया और सुबह-सुबह बगदाद से निकल कर मोसुल जाने का फैसला कर लिया.
अगली सुबह टैक्सी बदल-बदल कर हमारी बगदाद से मोसुल के सफर पर निकल पड़ी. टीम को कुछ नहीं पता था कि वे अपनी मंजिल तक पहुंच पाएंगे भी या नहीं. रास्ते में हर थोड़ी दूरी पर सेना और पुलिस के चेक पोस्ट थे. हमारी टीम को ड्राइवर लगातार आगाह कर रहा था कि वे कैमरा छुपा कर रखें. यहां तक कि मोबाइल से भी कुछ शूट ना करें.
ताजी, बलाद तक तो ठीक था पर उसके बाद जैसे ही हमारी टीम आगे बढ़ी, बगदादी के हाथों बर्बादी के निशान साफ नजर आने लगे. आजतक की टीम उन इलाकों से गुजरी, जहां दाहेश यानी आईएसआईएस की मौजूदगी अब भी है. दिजैल, रफीया और सामरा होते हुए टीम मोसुल के करीब जा रही थी. ड्राइवर ने बताया कि वह टैक्सी सिर्फ दिन में ही चलाएगा.
शाम का साफर रिस्की थी. इसलिए शाम होने से पहले ही टीम किसी महफूज जगह पर रुक जाती. सुबह होते ही सफर फिर शुरू हो जाता. तमाम डर और दहशत के बीच अब तक का सफर ठीक ठाक था. मगर इसके बाद पहली बार हमारी टीम को अहसास हुआ कि वे किस खतरनाक सफर पर थे. इंटरप्रेटर ने बताया कि दाइश ने कुछ मकानों को धमाके से उड़ा दिया है.
धमाके के निशान और बर्बादी के खंडहर वहां अब भी मौजूद हैं. हमने फौरन फैसला किया कि हम उन खडंहरों को शूट करेंगे. लिहाजा हमने गाड़ी हाईवे से कच्चे रास्ते पर उतार दी और फिर पैदल ही चल पड़े और ये हमारी अब तक की सबसे बड़ी गलती थी. एक सुनसान गांव जैसा इलाका जहां दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा था. अचानक पांच-छह लोग नजर आए.
आजतक की टीम ने सोचा कि इनसे बात की जाए. इटरप्रेटर ने कहा था कि जब तक वो ना कहे हम कैमरा या मोबाइल से किसी खंडहर या आदमी को शूट नही करेंगे. लिहाजा पहले हम उनके करीब गए. इसके बाद हमारे इंटरप्रेटर ने उनसे अरबी जुबान में उन्हें बताया कि हम हिंदी सहाफी यानी भारतीय पत्रकार हैं और बस यहीं गलती हो गई.
इसके बाद उनमें से दो लोगों ने हमारी टीम का कैमरा और माइक छीन लिया. फिर उनमें से एक ने हमारी टीम को इशारा कर एक तरफ चलने को कहा. अरबी में वो बार-बार झाड़ियों की तरफ इशारा कर शायद दखूल-दखूल बोल रहा था. यानी उधर दाखिल होने को कह रहा था. टीम को नहीं मालूम था कि वो लोग कौन थे. हमारी टीम शिया-सुन्नी के झगड़े में फंस गई थी?
ये दाइश समर्थक थें या फिर गुस्साए स्थानीय़ लोग या फिर कोई और? हमारी टीम को कुछ नहीं पता चला. पर शायद हमारी टीम का नसीब अच्छा था, क्योंकि ठीक उसी वक्त दूर से साइरन की आवाज सुनाई दी. घबराहट की वजह से पहले हमें लगा कि अजान की आवाज है. मगर फिर दूर गश्त पर इराकी फौज की दो-तीन गाड़ियां आती दिखाई दीं.
उन्हें देखते ही वो पांच छह लोग अचानक हमारी टीम का कैमरा और माइक फेंकते हुए वहां से भाग गए. अब हमारी टीम को लगा कि वे महफूज हैं. पर संभलने में उन्हें आधा घंटे से भी ज्यादा का वक्त लग गया. इस हादसे ने हम तीनों पर ऐसा असर किया कि बस फैसला कर लिया कि अब हम और आगे नहीं जाएंगे. बस वापस दिल्ली लौटना है.
मगर शायद अभी बहुत कुछ और होना था. वहां से निकलने के बाद एक चेक पोस्ट पर हमें इराकी स्पेशल फोर्सेज के कुछ जवान मिले. उनमें से एक को जब पता चला कि हम भारत से हैं तो वो बहुत खुश हुआ. दरअसल वो ब़ॉलीवुड फिल्मों का दीवाना था और अमिताभ बच्चन का बहुत बड़ा फैन. वो हमें अपने जनरल के पास ले गया. हमने जनरल को अपना मकसद बताया.
इसके बाद अब हमारी टीम इराकी फोर्सेज के साथ थे. इराक आने के बाद से पहली बार लगा कि वे महफूज हैं. वो हमारी टीम को अपने साथ बगदादी के हाथों बर्बाद इलाके को दिखाने अपने साथ ले जाने पर राजी हो गए. उन इलाकों में खतरा अब भी बरकरार था. पर अब वे उनके साथ थे. थोड़ी देर बाद हमारी टीम उस इलाके में थे, जहां दाइश ने धमाका किया था.
हर तरफ तबाही और बर्बादी के ही मंजर थे. हमारी टीम को इराकी फोर्सेज ने बताया कि इस इलाके में अब भी खतरा टला नहीं है. पर वे हमारी टीम को बार-बार यकीन दिला रहे थे कि उनके साथ वे महफूज हैं. गांव के अंदर चेक पोस्ट बने थे, जिनमें इराकी फोर्स तैनात थी. फिर वहां के लोगों से हमारी टीम को मिलाया गया. जिन्होंने बगदादी के आंतक की कहानी सुनाई.
इराकी सेना के साथ गांव का दौरा करने के बाद वे वापस चेक पोस्ट पहुंचे. उन्होंने हमारी टीम को अपने जवानों के साथ खाना खिलाया और इस ताकीद के साथ हमें विदा कर दिया कि अब और आगे ना जाएं. यानी मोसुल की तरफ ना जाएं. मगर अब तक हमारी टीम संभल चुकी थी और उन पर फिर से मोसुल जाने का जुनून हावी हो चुका था. सो हम आगे बढ़े.
अब हमारी टीम का ड्राइवर ही अब इंटरप्रेटर भी था. पर उसे अंग्रेजी नहीं आती थी. हमारी टीम ने रास्ता निकाला. मोबाइल पर गूगल ट्रांसलेटर के जरिए अपनी बात अंग्रेजी से अरबी में बताई और ड्राइवर अरबी से अंग्रेजी में हमारी टीम को बताता रहा, लेकिन वो ड्राइवर इस बात पर राजी नहीं था कि हमारी टीम मोसुल जाए. उसने हमें मोबाइल पर ट्रांसलेट कर बताया.
हमारी टीम जैसे-जैसे मोसुल के करीब जा रही थी, उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. जिस मोसुल और उसकी बर्बादी की कहानी हम लगातार सुनते आ रहे थे. अह वो हमारे बेहद करीब था. पर तभी हमें पता चला कि मोसुल में दो दिनों से एक बार फिर कुर्दिश फाइटर, बागी और इराकी फोर्सेज के बीच गोलीबारी शुरू हो गई है. पर हम फिर भी आगे बढ़ते रहे.
हमें बताया गया कि जगह-जगह रास्ते में बगदादी के बारूद बिछे हो सकते हैं. इसलिए संभल कर जाना होगा. आखिरकार वो घड़ी आ ही गई जब हमारी टीम मोसुल शहर के सामने थी. मोसुल यानी बगदाद के बाद इराक का दूसरा सबसे बड़ा शहर. मोसुल यानी वो शहर जिसने पहली बार दुनिया को मलमल का कपड़ा दिया. उसी मलमल की वजह से मोसुल नाम पड़ा.
शहर का मंजर चीख-चीख कर कह रहा था कि ये इंसानों की बस्ती नहीं बल्कि भूतों का शहर है. घर खंडहर और खंडहर घरों में तब्दील थे. ऐसा लगता था मानो पूरे शहर पर ही बम गिरा दिया गया हो. जहां बम अपना काम नहीं कर पाया वहां गोलियों के निशान दरो-दीवार पर चीख रहे थे. इंसान नाम की चीज नहीं थी. जो थे बस खामोश थे. या फिर घनी बस्तियों में थे.
वहां तक हमें जाने की इजाजत नहीं थी और ना ही वो सही फैसला भी होता. क्योंकि किस इंसान के भेष में कौन दुश्मन निकल आए नहीं मालूम. या कौन सा कदम जमीन में छुपे बारूद के किस ढेर पर पड़ जाए नहीं पता. मोसुल शहर पहले बहुत खुशनुमा और जिंदादिल शहर था. जिसे लफ्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता. लेकिन 10 जून 2014 के बाद कहानी बदल गई.
मोसुल में अचानक बगदादी और उसके आतंकी आए. बम, बंदूक और बारूद लेकर उन लोगों ने तीन साल में इस शहर को बर्बाद कर दिया. अब दूर-दूर तक टूटी पड़ी इमारतें, खंडहरों में तब्दील मकान, बर्बाद सड़कें, जगह-जगह मलबे के ढेर और फ़िजा में बिखरी बारूद की बेचैन करने वाली बू ही यहां मौजूद है. आईएसआईएस के तीन साल की खिलाफ़त का यही हासिल है.
मोसुल की ज़मीनी हकीकत और तस्वीरें हमारी टीम के सामने थीं. मगर उस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिला था जिसके लिए हमारी टीम हिंदुस्तान से वहां तक गई थी. मोसुल में 39 भारतीयों की तलाश थी. उनका सुराग ढूंढना था. लेकिन ये काम इतना आसान नहीं था. क्योंकि यहां के ज्यादातर लोगों को उन लापता भारतीयों के बारे में कुछ पता ही नहीं था.
रही इराकी सेना और इंटेलिजेंस की बात तो उनके पास कोई पुख्ता सबूत या फिर जानकारी की कमी थी. पर फिर भी हमें कोशिश करनी थी. लिहाज़ा इसके बाद हमारी टीम फिर से 39 लापता भारतीयों की तलाश में जुट गई. दरअसल, लापता भारतीयों को आखिरी बार मोसुल के बदूश इलाके में देखा गया था. पर किस जगह किसी को नहीं पता था.
इसलिए उनकी तलाश में खुद विदेश राज्यमंत्री भी यहां पहुंचे थे. उन्होंने बाकायदा एक रात मोसुल के अंदर गुजारी. लोगों और इटेलिजेंस से बात करने के बाद अंदाजा हुआ कि सच्चाई यही है कि उन लापता भारतीयों के बारे में ठोस जानकारी किसी के पास नहीं है. इसीलिए खुद विदेश राज्यमंत्री ने भी बिना किसी नतीजे के तलाश का काम पूरा होने का एलान कर दिया.