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शब्दशः: जिन्ना का दर्द, गांधी के आंसू

क्या जिन्ना एक ऐसे पाकिस्तान में रह पाते या खुद को बचा भी पाते, जहां मलाला नाम की एक बच्ची के सिर में कट्टरपंथी गुंडों ने सिर्फ इसलिए गोली दाग दी क्योंकि वह स्कूल जाना चाहती थी? स्कूल भी ऐसा जो किसी मदरसे से ज्यादा नहीं था. मदरसे में ही जिन्ना ने शुरुआती तालीम ली थी.

aajtak.in
  • नई दिल्‍ली,
  • 31 अक्टूबर 2012,
  • अपडेटेड 5:45 AM IST

अच्छे अंकों से स्कूल की परीक्षा में पास होने वाला, जरूरी नहीं कि जिंदगी के इम्तिहान में भी अच्छे नतीजे लाए. हां, जिंदगी में अच्छा करने के लिए स्कूल जाना जरूरी है. कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना कराची में 1875 में जन्मे थे और उनका पहला स्कूल एक मदरसा था. सात साल की उम्र में वे एक मिशनरी स्कूल में भर्ती हुए, इसके बाद लंदन के 'लिंकन इन’ में पढऩे चले गए, जहां उन्हें 'जेंटलमैन स्टुडेंट’ के तौर पर भर्ती किया गया. चार बार कोशिश करने के बाद 1896 में वे बार का हिस्सा बन सके, लेकिन इस अकादमिक झटके का उनके आत्मविश्वास पर कोई असर नहीं पड़ा.

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मुंबई में जब उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस शुरू की तो वे लोगों के बीच 'ब्रीफलेस बैरिस्टर’ के नाम से जाने जाते थे. उस वक्त गवर्नर की काउंसिल में लॉ मेंबर सर चार्ल्स ओलिवेंट को इस नौजवान वकील में कुछ धार दिखी और उन्होंने जिन्ना को कोलोनियल जुडिशियल सर्विस में 1,500 रु. महीने के भारी-भरकम वेतन पर जगह दे दी. जिन्ना ने तब उनसे कहा था कि उनकी इच्छा इतने पैसे एक दिन में कमा लेने की है. एक दशक भी नहीं बीता होगा कि न सिर्फ जिन्ना की जेब भारी होने लगी, बल्कि वे वायसरॉय की काउंसिल के सदस्य भी बन गए.

1920 के दशक में जिन्ना के जूनियर रहे एम.सी. छागला, जो बाद में इंदिरा गांधी की कैबिनेट में विदेश मंत्री भी रहे, कहते थे कि जिन्ना भले कानून के अच्छे जानकार न हों लेकिन पैरोकार बड़े अच्छे थे. उनके लिए अपना मुकदमा कानून से कहीं अहम था. यही वह कौशल था जिसका इस्तेमाल करते हुए 1937 से 1947 के बीच अनिश्चय और संभावनाओं के कुहासे में घिरे इस उप-महाद्वीप में से उन्होंने पाकिस्तान को काटकर अलग करवा लेने में कामयाबी हासिल की.

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नए राष्ट्र को लेकर जिन्ना एक उदारवादी नजरिया रखते थे, जिसका राजनैतिक निचोड़ ब्रिटेन को उखाड़ फेंकना था. उनके आदर्श थे तुर्की के महान नायक और सुधारक मुस्तफा कमाल अतातुर्क, जिन्होंने देश को ओटोमन के पतन के गर्त से निकाल कर आधुनिक विश्व के मानचित्र पर सम्मानजनक स्थिति दिलाई. अतातुर्क ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया था और कानून के सहारे लैंगिक समानता लाने की कोशिश की. इस पर जिन्ना ने 27 अक्तूबर,1937 को मुस्लिम लीग की एक कॉन्फ्रेंस में कहा था, ''काश मैं मुस्तफा कमाल होता तो भारत की समस्या बड़ी आसानी से सुलझा देता. अफसोस मैं वह नहीं हूं.”

जिन्ना की दिक्कत यही थी. वे पाकिस्तान को मुस्लिम बहुल सेकूलर राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन इस सफर में उन्होंने मजहबी वर्चस्व वाले समूहों के साथ समझौता कर लिया. जाहिर है, उनके लिए अपना मुकदमा कानून से ज्यादा अहम था. उनकी पैरोकारी ने पाकिस्तान को तो गढ़ दिया, पर उसकी विचारधारा के प्रति उनकी अपेक्षाकृत तटस्थता ने उन ताकतों के लिए जगह छोड़ दी जो जिन्ना के सेकूलर सपनों पर पानी फेरने को आमादा थी.”

सवाल उठता है कि क्या जिन्ना एक ऐसे पाकिस्तान में रह पाते या खुद को बचा भी पाते, जहां मलाला नाम की एक बच्ची के सिर में कट्टरपंथी गुंडों ने सिर्फ इसलिए गोली दाग दी क्योंकि वह स्कूल जाना चाहती थी? स्कूल भी ऐसा जो किसी मदरसे से ज्यादा नहीं था.

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अब भारत पर आते हैं. क्या महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचार था? यह आंदोलन औपचारिक रूप से 2 अगस्त, 1920 को शुरू हुआ था जब गांधी ने एक असामान्य-सी मांग कर डाली. यह कि ब्रिटेन, जिसने तुर्की को पहले विश्व युद्ध में हाल ही में हराया था, मक्का और मदीना के पाक इस्लामिक शहरों की कमान खलीफा के हाथ में ही बनी रहने दे. गांधी ने भारत के लिए तत्काल 'स्वराज’ की मांग भी की, जिसकी सेनाओं ने तुर्की के ओटोमन साम्राज्य को खत्म करने में ब्रिटेन का साथ दिया था. इसी आंदोलन को आज हम असहयोग आंदोलन और खिलाफत के नाम से जानते हैं.

गांधी के प्रमुख सहयोगियों में ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी भी थी, जिसकी कमान रूढि़वादी उलेमाओं समेत ऑक्सफोर्ड से पढ़ कर लौटे शौकत अली और मोहम्मद अली जैसे लोगों के हाथ में थी. भारत की जनता ने इससे पहले ऐसा कोई प्रयोग नहीं देखा था. इस आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को सम्मेलनों की आरामगाह से बाहर निकाल कर लोगों के बीच ला दिया. अपने सपनों का भारत बनाने को बेताब कुछ लोगों को इस आंदोलन ने झकझोर कर रख दिया. इस महान आंदोलन की आत्मा थे महात्मा गांधी, इसीलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया जिसे पूरे देश ने बाद में अपनाया.

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इस आंदोलन के लिए पैसा चंदे से आता था. आंदोलन के कार्यकर्ता झोले लेकर खड़े रहते और उद्योगपतियों की बीवियां उनमें अपने जेवर फेंक जातीं. जो गरीब थे, वे भी एकाध आना दे देते. रसीद बुक हुआ करती थी, लेकिन अकसर उसकी जरूरत नहीं पड़ती थी. यही एक पेंच था. आंदोलन की फंडिंग पर संदेह उठे और जांच कमेटी को बैठते देर न लगी. जांच में पाया गया कि खिलाफत आंदोलन के कुछ नेता फंड में से अपने कपड़ों की धुलाई और बाल कटाई का खर्च निकालने में लगे थे. कहते हैं, एक मौलाना ने तो उस फंड से एक शेवरले कार भी खरीद ली थी. मुंबई का एक कारोबारी था, जिसने 16 लाख रु. इसमें से निकाल कर अपने कारोबार में लगा दिए.

इसके उलट जब गांधी के द्वारा नियंत्रित कोष की जांच पूरी हुई, तो पता चला कि आने-पाई तक का हिसाब दुरुस्त. गांधी ने जनता के चंदे से करीब ढाई दशक से ज्यादा इस देश में आजादी का आंदोलन चलाया. उनकी भी कुछ कमजोरियां थीं, गलतियां वे भी करते थे लेकिन इनके पीछे लोभ कहीं नहीं था.

आज गांधी होते तो इक्कीसवीं सदी के भारत के बारे में क्या सोचते, जहां भ्रष्टाचार महामारी बन चुका है, जहां सार्वजनिक जीवन और निजी उद्यमों में लूट का जहर फैल चुका है? स्वर्ग में अगर रोने की छूट होगी, तो वहां की नदियों में खारे पानी का सैलाब उमड़ रहा होगा.

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