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बीफ और पोर्क फूड फेस्टिवल: आजादी पर भारी आस्था

दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में छात्रों के एक समूह की बीफ और पोर्क फेस्टिवल की योजना पर दिल्ली हाइकोर्ट की मनाही के बाद प्रशासन ने बढ़ाई सख्ती, लेकिन खाने के अधिकार पर बहस जारी.

aajtak.in
  • नई दिल्‍ली,
  • 26 सितंबर 2012,
  • अपडेटेड 10:33 PM IST

यह अक्सर नहीं होता जब किसी हाइकोर्ट को एक फूड फेस्टिवल को रोकने के बारे में फैसला देना पड़े, पुलिस को चेतावनी जारी करनी पड़े और भारत का सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपने पीएचडी स्कॉलर को सस्पेंड कर दे.

अरावली की पहाडिय़ों की तलहटी पर लाल इमारतों वाली जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) शुरुआत से ही आजाद विचारों की नर्सरी रही है. लेकिन इस बार इसकी गुंजाइश नहीं थी. छात्रों के एक समूहकृन्यू मैटीरियलिस्टस ने खान-पान में लोकतंत्र की मांग का विस्तार कर मेस में बीफ और पोर्क परोसने की मांग कर डाली और इस बारे में चर्चा करने के लिए बीफ और पोर्क फेस्टिवल आयोजित करने की घोषणा कर दी.

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संयोग से इस समूह में मुख्य रूप से दलित-ओबीसी और पूर्वोत्तर के छात्र हैं. वहीं इस फेस्टिवल का विरोध करने वाले छात्रों ने यह माना कि इस फेस्टिवल में गोमांस परोसा जाएगा. इसके बाद से ही विरोध और हंगामा बढ़ता चला गया. इसे हिंदू धर्म का अपमान करार दिया गया और इस तरह कैंपस में खान-पान की आजादी बनाम आस्था की बहस शुरू हो गई.

इसकी शुरुआत 20 मार्च को कोयना मेस में ‘द पॉलिटिक्स ऑफ फूड कल्चरः द होली काउ ऐंड द अनहोली स्वाइन्य विषय पर पब्लिक मिटिंग से “हुई, जिसे हैदराबाद स्थित उस्मानिया यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर कांचा इलैया समेत जेएनयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी के कई प्रोफेसरों ने संबोधित किया.

पब्लिक मिटिंग आयोजित करने वाले जेएनयू के न्यू मटीरियलिस्ट्स समूह के सदस्य 30 वर्षीय एस. आनंद कृष्णराज बताते हैं, “जेएनयू मेस में व्रत रखने वालों को ध्यान में रखते “ए मंगलवार को सुबह केला और शनिवार को खिचड़ी परोसी जाती है तो होली के दिन पूड़ी, दूध और ढेर सारी भांग दी जाती है.” इसे वे फूड फासिज्म करार देते हैं.

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मार्च की पब्लिक मिटिंग में छात्रों की भीड़ से उत्साहित न्यू मटीरियलिस्ट्स ने 17 अगस्त को एक और सभा की और दक्षिण में द्रविड़ आंदोलन शुरू करने वाले ई.वी.आर. पेरियार के जन्मदिवस 17 सितंबर के मौके पर परिसर में ‘बीफ ऐंड पोर्क फूड फेस्टिवल्य आयोजित करने का इरादा जताया. लेकिन 15 सितंबर को छात्र संघ चुनाव के मद्देनजर फेस्टिवल की तारीख बदल दी गई. न्यू मटीरियलिस्ट्स के अनूप पटेल ने कथित तौर पर 28 सितंबर को फेस्टिवल की योजना बनाई.

लेकिन इसी महीने “ए छात्र संघ चुनाव के दौरान आइसा, एसएफआइ, एनएसयूआइ और एबीवीपी सरीखे छात्र संगठनों ने ‘बीफ ऐंड पोर्क फूड फेस्टिवल्य को मुद्दा नहीं बनाया. अलबत्ता अध्यक्ष पद के स्वतंत्र उम्मीदवार अभय कुमार मिश्र ने अपने घोषणापत्र में “मेस में फूड के चयन की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाने और जेएनयू कैंपस में बीफ और पोर्क मुहैया कराने की मांग रखी.

हालांकि वे तीसरे नंबर पर रहे लेकिन उनका मानना है कि उन्हें प्रगतिशील और पूर्वोत्तर के छात्रों का पूरा समर्थन मिला. वहीं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति में शामिल आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप सिंह का कहना है, “क्या खाना है, क्या नहीं खाना यह गरीबों का मुद्दा नहीं है. सिद्धांत किसी को कुछ भी खाने का हक है. लेकिन यहां जेएनयू की समस्याएं अलग हैं. इस तरह के मुद्दे उभरने से दक्षिणपंथियों को अपनी ताकत दिखाने का मौका मिल जाएगा.”

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आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन एबीवीपी ने इसे मुद्दा बना लिया. एबीवीपी ने इसकी शिकायत विश्वविद्यालय प्रशासन से की. बात फैली तो विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और बीजेपी ने भी इसका विरोध किया और संस्कृति रक्षक संघ की गौरक्षा एक आंदोलन नामक पुस्तिका बांटकर गाय के महत्व और गोहत्या में नृशंसता के बारे में बताया गया. 17 सितंबर को जेएनयू के मुख्य गेट के पास साधु-संतों के प्रदर्शन के मद्देनजर कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दर्जनों पुलिसवालों को तैनात किया गया था.

यही नहीं, बीजेपी ने देश के गृह मंत्री और जेएनयू प्रशासन को इसके गंभीर नतीजों के बारे में आगाह किया. इसका असर हुआ. दिल्ली पुलिस की सलाह पर जेएनयू प्रशासन ने 17 सितंबर को नोटिस जारी कर छात्रों को चेताया. नोटिस में दिल्ली कृषि पशु संरक्षण कानून, 1994 का हवाला दिया गया, जिसके तहत किसी भी उम्र की गाय, बछड़े और बैल के मांस की बिक्री, खरीदारी और उसे रखने पर प्रतिबंध है.

इसी बीच गोरक्षा सेना ने फेस्टिवल को रोकने के लिए दिल्ली हाइकोर्ट में अर्जी लगा दी और अदालत ने 19 सितंबर को दिल्ली पुलिस और जेएनयू प्रशासन को हिदायत दी, “28 सितंबर और भविष्य में कोई बीफ और पोर्क फेस्टिवल्य्य न हो. यही नहीं, जेएनयू प्रशासन ने पटेल को प्रथम द्रष्ट्या फेस्टिवल की व्यवस्था करने के आरोप में निलंबित करके परिसर छोडऩे के लिए कह दिया. अभय, आनंद और कुसुम लता को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया.

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जेएनयू में एबीवीपी के जनरल सेक्रेटरी और डिप्लोमेसी एवं डिजार्मामेंट के 24 वर्षीय छात्र संदीप कुमार सिंह कहते हैं, “बीफ पार्टी के पीछे उनका हिडन एजेंडा है. वे सीधे हिंदू धर्म पर चोट करना चाहते हैं.” मूलतः जातिवाद का विरोध करने वाले न्यू मटीरियलिस्ट्स का कहना है कि परिसर में इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल और नॉर्थ ईस्ट फूड फेस्टिवल के दौरान पोर्क के व्यंजन बनाए जाते हैं, अपने कमरे में छात्र कुछ भी बनाकर खा सकते हैं, लेकिन बीफ की मनाही होती है “क्योंकि सार्वजनिक स्थल केवल ब्राह्ममणवादी आधिपत्य वाले कल्चर का है.” और वे इसी संस्कृति और व्यवस्था को खत्म करना चाहते हैं.

मजेदार बात यह है कि अभय ब्राह्ममण हैं और वे दलितों को अपनी मर्जी के खाने-पीने के अधिकार को बढ़ावा देना चाहते हैं. दूसरी ओर, एबीवीपी के संदीप ओबीसी हैं, और उन्हें यह हिंदू धर्म के खिलाफ ईसाइयत की साजिश्य्य लगती है. दह्निणपंथी समूहों ने ईसा मसीह को निशाना बनाते हुए श्री दारा सेना की पुस्तिका यीशु में शैतान है की प्रतियां बांटीं.

लेकिन कैंपस में कई लोगों को किसी के कुछ भी खाने-पीने पर एतराज नहीं है. मणिपुर की 29 वर्षीया पीएचडी छात्रा मानसी कहती हैं, “यह फूड हैबिट का मामला है. मैं खुद मांसाहारी नहीं. लेकिन सबको अपनी मर्जी की चीजें खाने-पीने की छूट होनी चाहिए.” उनसे सहमति जताते हुए बिहार के 26 वर्षीय पीएचडी स्कॉलर प्रत्युष प्रभाकर कहते हैं, “कैंपस में ही क्यों, यह अधिकार हर जगह होना चाहिए.”

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जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ काम कर रहे समूह खाने के लोकतांत्रिक अधिकार को हासिल करना चाहते हैं. इस साल 15 अप्रैल को हैदराबाद स्थित उस्मानिया यूनिवर्सिटी में प्रो. इलैया समेत देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर और करीब 200 छात्रों ने आंबेडकर हॉल में बीफ पार्टी का आयोजन किया था.

वहां भी एबीवीपी और दक्षिणपंथी समूहों की अर्जी पर निचली अदालत ने बीफ फेस्टिवल में शामिल होने वालों के खिलाफ मामला दर्ज करने को कहा. शहर के शिक्षकों के एक वर्ग ने अदालत की कार्रवाई को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद करार देते हुए कहा, “अपनी खाद्य संस्कृति का संरक्षण हर व्यक्ति का लोकतांत्रिक अधिकार है.”

जेएनयू और उस्मानिया यूनिर्विसटी में खाने की आजादी और न खाने की आस्था के बीच का यह संघर्ष सांप्रदायिक विवाद की शक्ल नहीं ले पाया है क्योंकि इस विवाद में दोनों छोर पर हिंदू मतावलंबी ही हैं. लेकिन यूनिवर्सिटी ने इसे संवेदनशील तरीके से न निबटा तो विवाद गंभीर शक्ल ले सकता है.

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