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मंत्रियों की कुर्सी खा रहे सीएमओ

गोंडा के सीएमओ विवाद के बाद भले ही डॉक्टर और मंत्री को कुर्सी गंवानी पड़ी हो, लेकिन इसने स्वास्थ्य विभाग में फैले भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया है

आशीष मिश्र
  • लखनऊ,
  • 11 नवंबर 2012,
  • अपडेटेड 2:11 PM IST

उत्तर प्रदेश में पिछले दो वर्षों में जब भी राजनीति में किसी अपराध ने अपना खौफनाक चेहरा दिखाया, तब-तब साजिशकर्ता के रूप में एक नाम अक्सर सामने आया. यह नाम था मुख्य चिकित्साधिकारी (सीएमओ) का. मायावती शासन के अंतिम वर्षों में दो सीएमओ और एक डिप्टी सीएमओ की हत्या हुई तो सपा की वर्तमान सरकार में भी सीएमओ संबंधित भ्रष्टाचार का यह सिलसिला थमा नहीं है.

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गोंडा जिले के सीएमओ डॉ. एस.पी. सिंह के घर 8 अक्तूबर की देर रात स्थानीय विधायक और राजस्व राज्य मंत्री विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह ने धावा बोला और सीएमओ अगवा कर लिए गए. बाद में डॉ. सिंह किसी तरह जान बचाकर लखनऊ पहुंचे. एक ओर सीएमओ पर आयुष (आयुर्वेद, होम्योपैथ, यूनानी, सिद्घ और योग) डॉक्टरों की भर्ती में मंत्री जी की सिफारिश न मानने का आरोप था तो दूसरी ओर मंत्री जी अपने ऊपर लगे सारे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताते हैं.

मामला गरमाया तो पंडित सिंह को अपने पद से हाथ धोना पड़ा और सीएमओ साहब भी अपनी कुर्सी गंवा बैठे. मामला यहीं नहीं थमा. पंडित सिंह के समर्थकों ने सीएमओ कार्यालय के बाहर जमकर प्रदर्शन किया. उनका आरोप था कि सीएमओ डॉक्टरों और कर्मचारियों के चयन में भ्रष्टाचार कर रहे हैं. पूरा प्रकरण अब जांच के दायरे में है, लेकिन एक बात  साफ हो गई है कि आखिर सीएमओ की कुर्सी में ऐसा क्या है कि वह सबके निशाने पर है? क्यों इसी कुर्सी की वजह से डेढ़ वर्ष में तीन मंत्रियों को अपने पद से हाथ धोना पड़ा.

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दरअसल सीएमओ की कुर्सी बड़ी मलाईदार मानी जाती है. सरकारी डॉक्टरों में इस कुर्सी को हथियाने के लिए वर्ष 2005 से होड़ शुरू हुई, जब प्रांतीय चिकित्सा सेवा (पीएमएस) का कैडर रिव्यू (संवर्ग पुनर्गठन) लागू हुआ. इससे पहले प्रदेश में सीएमओ यानी संयुक्त निदेशक स्तर के 371 पद थे. इन्हीं में से करीब 70 जिलों में सीएमओ तैनात होते थे.

लेकिन वर्ष 2005 में संयुक्त निदेशक स्तर के पदों की संख्या बढ़कर 2,475 हो गई, जिनमें से सामान्य वर्ग के 1,000 डॉक्टरों को सीएमओ बनने के योग्य माना गया. चूंकि सीएमओ के 70 पदों के लिए दावेदारों की संख्या अधिक हो गई सो इसे पाने के लिए नए तिकड़म लगने भी शुरू हो गए. ज्यादातर डॉक्टरों ने दवा माफिया से संपर्क साधा. इन माफिया ने अपने लोगों को सीएमओ बनवाने के लिए सरकार में मंत्रियों और अधिकारियों को पैसे दिए और बदले में सीएमओ से दवा सप्लाई का ठेका और अन्य सहूलियतें हासिल कीं.

वर्ष 2007 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की कई योजनाओं के लिए जिले में इफरात में पैसा आया. मसलन, पहले स्वास्थ्य सेवाओं के लिए राजधानी लखनऊ के सीएमओ कार्यालय का सालाना बजट जहां केवल 5 करोड़ रु. था, वहीं वर्ष 2007 के बाद से यह 70 करोड़ रु. हो गया. गोंडा जैसे छोटे शहर का बजट भी कई गुना बढ़ गया.

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एनआरएचएम के पहले यहां के सीएमओ को स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च करने के लिए सवा करोड़ रु. सालाना बजट मिलता था जो बाद में बढ़कर 40 करोड़ रु. हो गया. जाहिर है, अचानक इतनी बड़ी रकम के जिले के स्वास्थ्य महकमे में पहुंचते ही सभी की गिद्घ दृष्टि इस पर लग गई. इस पैसे को हथियाने के लिए दवा माफिया ने अपना धंधा बदल दिया. अब वे निर्माण-कार्यों का ठेका भी लेने लगे.

एनआरएचएम घोटाले में ऐसे ही दवा व्यापारी गिरीश मलिक को निर्माण कार्य में धांधली बरतने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है. बीते पांच वर्ष में 513 स्वास्थ्य उपकेंद्रों का निर्माण केवल कागजों पर दिखाया गया और सीएमओ-ठेकेदारों के गठजोड़ ने इसके लिए आवंटित 70 करोड़ रु. की बंदरबांट की.

इस भ्रष्टाचार को काबू करने के लिए सरकार ने पिछले सीएमओ से एनआरएचएम के धन का सीधा उपयोग करने का अधिकार छीन लिया और एक समिति बना दी, जिसके अध्यक्ष डीएम और सचिव सीएमओ हैं. सेवानिवृत्त सीएमओ डॉ. आर.एन. शुक्ल कहते हैं, ''बीते पांच वर्ष में सीएमओ और दवा माफिया के गठजोड़ ने एनआरएचएम के पैसे की जमकर लूटपाट की. एक साधारण डॉक्टर सीएमओ बनने के बाद करोड़पति बन गया. बड़ी कोठियां बनवा लीं और अपने साथियों को इतनी जल्दी तरक्की करता देख दूसरे डॉक्टर भी सीएमओ बनने को लालायित हो उठे. ''

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यही वजह है कि बीते चार वर्ष के दौरान प्रदेश में तैनात रहे 50 से ज्यादा सीएमओ भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआइ के रडार पर हैं. इन अधिकारियों पर एनआरएचएम के धन की बंदरबांट करने का आरोप है. सरकार में बैठे नीति नियंताओं को भी यह 'गणित' समझ में आ गया. उन्होंने दोबारा पीएमएस के नियम बदले और पिछले साल संयुक्त निदेशक स्तर के हर डॉक्टर को सीएमओ बनने के लिए योग्य घोषित कर दिया गया. फिर क्या था, जिस डॉक्टर की पहुंच थी, वहीं सीएमओ बन बैठा. स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव संजय अग्रवाल के भाई अजय अग्रवाल गाजियाबाद के सीएमओ बने तो प्रदेश के सभी बड़े जिलों में किसी नेता या अधिकारी के करीबियों ने सीएमओ की कुर्सी संभाल ली.

इस वक्त सीएमओ का ज्यादातर समय एनआरएचएम से मिलने वाले धन का उपयोग करने के लिए योजनाएं बनाने और डॉक्टरों व पैरामेडिकल स्टाफ की भर्ती में ही बीत रहा है. इस समय पूरे प्रदेश में एनआरएचएम के तहत 15,000 डॉक्टरों व पैरामेडिकल कर्मचारियों की भर्ती प्रक्रिया चल रही है. उनका चयन संविदा पर केवल इंटरव्यू के जरिए किया जाना है.

कुशीनगर के सीएमओ डॉ. संजीव गुप्ता ने तबादलों व नियुक्ति को लेकर मंत्री व अन्य लोगों पर दबाव डालने का आरोप लगाया है. वहीं लखनऊ से सटे एक जिले के सीएमओ बताते हैं कि स्थानीय नेता व विधायक सीएमओ पर अपने इलाके में स्वास्थ्य केंद्र खोलने के लिए प्रस्ताव बनाने का दबाव डाल रहे हैं और यह नहीं देखा जा रहा है कि स्वास्थ्य उपकेंद्र की जरूरत है भी या नहीं.

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यही हाल एनआरएचएम की भर्तियों को लेकर भी है. पूर्वांचल के एक जिले के सीएमओ बताते हैं कि एनआरएचएम में बड़ी संख्या में तैनाती होने के चलते एक बार फिर सीएमओ निशाने पर आ गए हैं. हालांकि चयन प्रक्रिया के अध्यक्ष डीएम हैं, लेकिन नेता सीएमओ से सिफारिश कर रहे हैं. प्रांतीय चिकित्सा सेवा संघ की महासचिव डॉ. निरुपमा सिंह बताती हैं कि जिले में सीएमओ सबसे कमजोर अधिकारी होता है और इसी वजह से सभी लोग इसे निशाना बना रहे हैं. वे कहती हैं, ''सरकार को सभी सीएमओ को सुरक्षा देनी चाहिए. ''

पिछले पांच वर्षों में स्वास्थ्य विभाग में जिस तरह पैसे की बंदरबांट हुई है, उसने ज्यादातर सीएमओ को भ्रष्टाचार के दलदल में डुबो दिया है. लेकिन गोंडा में जिस तरह सीएमओ पर हमला हुआ, उसने बसपा सरकार से अलग दिखने के सपा सरकार के दावे को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है. यह बुनियादी तौर पर स्वास्थ्य विभाग की बीमारी को दर्शाता है. साफ है कि सरकार को बिरादरी, क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर अच्छे अधिकारियों पर भरोसा जताना होगा और निरंकुश मंत्रियों के कान खींचने होंगे.

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