
नागौर से सटे बासनी गांव में गए हैं कभी? इसमें घुसते ही सड़क के दोनों तरफ का नजारा देखने लायक होता है. हर आठ-दस कदम पर एक दुकान या कमरा खुला है, जिसमें कु र्सियों, मूढ़ों या गद्दे पर जमे बैठे लोग बातों में मशगूल हैं. एक, दो, चार, आठ, दस...और गांव के आखिरी छोर तक पहुंचते-पहुंचते इन बैठकों की संख्या 60 से ऊपर निकल जाती है. इन बैठकों को बज्म कहा जाता है. उर्दू में बज्म का अर्थ ही होता है बैठक.
असल में यहां के ज्यादातर लोग मुंबई में काम करते हैं. वहां वे 8-9 महीने जमकर कमाते हैं और फिर 3-4 महीने गांव में बिताते हैं, अपने भरे-पूरे परिवार के साथ. मुंबई जैसे व्यस्त और चहल-पहल भरे शहर में रहने वाले लोग गांव में एकाएक सन्नाटे में कैसे बैठें? उनका वक्त कैसे कटे? यहां के पिछली पीढ़ी के लोगों ने शायद इस समस्या का अंदाज पहले ही लगा लिया था.
उन्होंने अपने आप को परिवार और गांव से जोड़े रखने के लिए बज्मों का अनूठा तरीका ईजाद किया. अब यहां के नौजवान भी उस परंपरा को शिद्दत के साथ निभा रहे हैं.
गांव के बीच की एक बज्म को देखिए. यहां एक कमरे में लकड़ी के मूढ़ों पर 10-12 लोग बैठे हैं और बड़े मजे से गर्मागर्म चाय की चुस्कियां ले रहे हैं. तभी एक कोने में बैठे मुहम्मद सलीम बोल पड़ते हैं, ''यार कालू, आज चाय में पहले जैसी कड़की नहीं थी.'' कालू कुछ बोलता, उससे पहले ही बात को बीच मे काटते हुए बज्म के सदर अब्दुल वाहिद गांव की बज्मों के बारें मे बताने लगते हैं, ''मैं 42 साल का हूं और यूं समझएि कि बचपन से ही गांव में बज्में देखता आ रहा हूं.'' इस बज्म के 32 सदस्यों में से उन्हें सदर चुना गया है.
ये बज्में 500-2,000 रु. के किराए के कमरों/दुकानों में चलती हैं. किराया उस बज्म के सभी लोग मिलकर देते हैं. चाय-पानी का हफ्ते भर का खर्च भी आपस में बांट लिया जाता है. एक बज्म में आपस के बहुत घनिष्ठ और जिगरी ही होते हैं. इन सभी के नाम सूचीबद्ध होते हैं. सभी सदस्यों के पास सभी के मोबाइल नंबरों की सूची भी होती है. उम्र के हिसाब से मोटे तौर पर 18 से 30, 31 से 50 और 50 से ऊपर की वय वालों की अलग-अलग बज्में हैं.
ये बज्में सुबह 11 बजे सजने लगती हैं और देर रात तक इनमें गपशप चलती रहती है. हंसी-म.जाक, लतीफेबाजी के साथ-साथ काम-धंधे और गांव, घर-परिवार की बातें यहां चलती हैं. शादी, नई गाड़ी, दुकान या फि र नए मकान की खुशी में जमकर दावतें भी होती हैं. वर्षों से चल रही इन बज्मों का अघोषित रिवाज है कि कोई बाहरी व्यक्ति बज्म में नहीं घुसता.
एक बज्म के अली भाई बताते हैं कि ''जरूरी काम होने पर ही कोई बाहरी व्यक्ति आता है.'' अली भाई की मानें तो ''इन बज्मों में शिरकत से छुट्टी के 3-4 महीने गांव-परिवार के लोगों के साथ मिलकर काटना आसान हो जाता है.'' हरेक बज्म में आठ-दस सदस्य तो मौजूद रहते ही हैं. चूंकि सदस्य बाहर से आते-जाते रहते हैं, इसलिए यह पूरे साल खुली रहती है.
बासनी में वर्षों से चली आ रही बज्मों का रिवाज बाहर से आने वाले किसी व्यक्ति को शुरू-शुरू में भले थोड़ा अजीब लगे लेकिन बाद में उसे भी मजा आने लगता है. बज्म की परंपरा के पीछे एक आर्थिक पहलू भी है. एक बज्म के अब्दुल वाहिद के शब्दों में, ''हमारे गांव के रिश्ते गांव में ही होते हैं. मान लीजिए कोई बाहर होटल में बैठकर चाय-नाश्ता कर रहा है और वहां उसके कई रिश्तेदार आ धमके, ऐसे में शिष्टाचारवश उसे भी चाय पिलानी ही पड़ेगी.
यानी एक पर खर्चा लदा!'' और यह भी है कि होटल वाला आपको कब तक बैठने देगा? वहां पर बहुत निजी किस्म की बातें भी तो कहां की जा सकती हैं? बज्में इन सबका समाधान हैं. एकांत, मनपसंद दोस्त और अपनी बात. अपनी परंपरा में बेमिसाल बासनी के लोगों के लिए ये बज्में बेहद उपयोगी साबित हो रही हैं.