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शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की

भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था. पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा.

शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान
आजतक ब्यूरो
  • नई दिल्ली,
  • 21 मार्च 2012,
  • अपडेटेड 11:44 AM IST

भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था. पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा.

21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराव में जन्मे खान कहते थे कि संगीत के बहुत से अंग हैं और उनसे बनने वाली बहुत सी रागनियां हैं. संगीत अपने आप में पूरा जीवन है.

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उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है. उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खान ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा. इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया. उनका एक और नाम कमरूद्दीन था.

उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे. उनके पिता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे.

छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया. यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी. खान काशी विश्वनाथ मंदिर से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे.

खान को याद करते हुए संगीत शिक्षक और गायक पंडित मोहनदेव कहते हैं, ‘खान धर्म की सीमाओं से परे सरस्वती के भक्त थे. वह अकसर हिन्दू मंदिरों में शहनाई वादन किया करते थे, शहनाई उनके लिए अल्लाह की इबादत का भी माध्यम थी तो सरस्वती की वंदना का भी. अपने संगीत के माध्यम से उन्होंने शांति और प्रेम का संदेश दिया.’

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खान के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है. संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता.’ किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है. उन्होंने लिखा है, ‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है. वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही.’

भारत की आजादी और खान की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है. 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी. तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्ला का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी.

खान ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया. अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं.

खान ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया. उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी. आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरीं.

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खान के संगीत के सफर को याद करते हुए पंडित मोहनदेव कहते हैं कि भारत रत्न, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे अलंकारों और पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्ला खान का संगीत उनके दुनिया से जाने के बाद भी अमर है. बिस्मिल्ला खान ने अपने लिए वह मुकाम बनाया है कि जब-जब शहनाई का नाम लिया जाता है उनका नाम सबसे पहले आता है. एक तरह से शहनाई और बिस्मिल्ला एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं.

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