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तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने 1 मई को कोयंबतूर में अपनी नौवीं चुनावी रैली कर चुनाव प्रचार को शबाब पर पहुंचा दिया. वे अपने चिर प्रतिद्वंद्वी और डीएमके प्रमुख करुणानिधि पर बरस पड़ीं. उन्होंने आरोप लगाया कि करुणानिधि ऐसी योजनाएं शुरू करते हैं जो सिर्फ उनकी पार्टी के नेताओं को लाभ पहुंचाती हैं और उनकी पार्टी के नेता का मतलब उनका परिवार है. कोडिसिया मैदान पर भारी रैली को संबोधित करते हुए जयललिता ने कहा, ''डीएमके ने 2006 में 2,000 रु. के टीवी सेट बांटे थे? पर हर घर से केबल कनेक्शन के नाम पर 3,000 रु. जुटा लिए. सिर्फ इस योजना से डीएमके नेताओं ने 25,000 करोड़ रु. की कमाई की.''
राज्य में 1967 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है कि एआइएडीएमके जैसी बड़ी पार्टी तकरीबन सभी 234 सीटों पर अकेले लड़ रही है. उसने गठबंधन के सहयोगियों को सिर्फ सात सीटें दी हैं और वे भी उनकी पार्टी के चुनाव चिन्ह 'दो पत्ती' पर ही लड़ेंगे. जयललिता विरोधियों की खिंचाई का कोई मौका नहीं गंवा रहीं. राज्य में औद्योगिक गतिरोध पर करुणानिधि के आरोपों का जवाब देते हुए वे कहती हैं, ''वे शायद अपने परिवार में औद्योगिक वृद्धि की बात कर रहे होंगे क्योंकि औद्योगिक इकाइयों की संख्या के मामले में महाराष्ट्र के बाद तमिलनाडु दूसरे नंबर पर है, कामगारों के मामले में अव्वल और निर्यात में इसका तीसरा स्थान है.'' वे कहती हैं, ''10-10 घंटे बिजली कटौती झेल चुका तमिलनाडु पिछले पांच साल में अतिरिक्त बिजली पैदा कर रहा है.''
एक मजबूत गठबंधन बनाने में डीएमके की नाकामी से भी जयललिता में आत्मविश्वास आया है, खासकर इसलिए क्योंकि कुछ जानकार तीसरे मोर्चे यानी कैप्टन विजयकांत की अगुआई वाली छह पार्टियों को एआइएडीएमके की बी टीम बता रहे हैं, जो सत्ता विरोधी वोटों को बांटने का काम करेगा. जयललिता को अपने आक्रामक प्रचार अभियान पर भरोसा है. वे अपनी सरकार के वादों, योजनाओं, मुफ्त में बांटी गई चीजों और अम्मा कैंटीनों में सस्ते भोजन तक लोगों की पहुंच जैसी रियायतों आदि पर भरोसा कर कर रही हैं. वे हर तीन में से दो सीटों पर नए उम्मीदवारों को भी उतार रही हैं, पर उनके लिए सबसे अच्छी बात यह है कि लोग अब तक डीएमके नेतृत्व पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को नहीं भुला सके हैं.
कुल मिलाकर वे अपने काडरों में आत्मविश्वास लाना चाहती हैं और अपनी सेहत से जुड़ी अटकलों को दरकिनार कर रही हैं. विश्लेषक एन. सत्यमूर्ति कहते हैं, ''उनका अनकहा संदेश यह है कि दो साल में दूसरी बार राज्य में जीत दर्ज कर उनका काडर उन्हें 2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद की प्रत्याशी के तौर पर उतारने की सोच सकता है.''
करुणानिधि के 'सोल्वथै सइवम, सेइवथै सल्वम (हम जो कहते हैं वो करते हैं, जो करते हैं, वही कहते हैं) ' के नारे के जवाब में जयललिता ने जुमला गढ़ा, ''सोन्नदै सइथेन, सोल्लथइयुम सइथेन'' यानी मैंने जो वादा किया उसे पूरा किया, जो वादा नहीं किया उसे भी पूरा किया. दिलचस्प यह कि अपनी आधी रैलियां खत्म कर लेने के बाद भी जयललिता ने आगामी पांच वर्षों की अपनी कार्ययोजना के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला है. उन्होंने बस एक वादा किया वह भी पहली रैली में कि शराब की दुकानों को बंद किया जाएगा (जो कि डीएमके के पूर्ण शराबबंदी के वादे के जवाब में अधूरे मन से किया गया वादा था).
रिटायर्ड डीजीपी और चेन्नै के माइलापुर से एआइएडीएमके के प्रत्याशी आर. नटराज कहते हैं, ''2014 के लोकसभा चुनावों में 39 में से 37 सीटें जीतना, 2011 के चुनावी घोषणापत्र के सभी 54 वादों को पूरा करना और वे कल्याणकारी योजनाएं जिनके तहत सभी परिवारों को तीन या चार लाभों के जरिए कवर किया गया है, हमारी सबसे बड़ी ताकत है.'' वे कहते हैं कि 7.28 करोड़ की आबादी वाले तमिलनाडु में कल्याणकारी और सब्सिडी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या 55 करोड़ है जिससे पता लगता है कि अम्मा ने उम्मीद से कहीं ज्यादा जिंदगियों तक पहुंच बनाई है.
अपनी चुनावी रणनीति के तौर पर जयललिता ने अपनी रैलियों में क्षेत्र विशेष की योजनाओं पर जोर दिया है. कोयंबतूर की रैली में उन्होंने सत्ता में आने पर पश्चिमी तमिलनाडु के किसानों की बहुप्रतीक्षित मांग—अथिकदवु-अविनाशी जलापूर्ति योजना—को पूरा करने का वादा किया. इससे पहले धर्मपुरी में तीसरी रैली में 13 अप्रैल को उन्होंने वादा किया कि वे केंद्र से गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड को निर्देश देने का अनुरोध करेंगी कि वह सात जिलों में अपनी 310 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन किसानों की जमीन पर बिछाने की बजाए राजमार्गों पर बिछाए. इसी रैली में उन्होंने होगेनक्कल योजना का श्रेय भी खुद को दिया. यह फ्लोरोसिस को दूर करने वाली एक पेयजल परियोजना है जिसका लाभ सूखा प्रभावित उत्तर-पश्चिमी जिलों को होगा.
करुणानिधि और जयललिता, दोनों ने ही विजयकांत की अगुआई वाले मोर्चे और अन्य दलों की आलोचना पर कुछ न कहने का फैसला लिया है. दोनों एक-दूसरे पर ही निशाना साध रहे हैं जिससे यह बात साफ है कि यह चुनाव इन दोनों द्रविड़ दलों के बीच की ही जंग है.
उम्मीदवारों में भारी फेरबदल कर जयललिता जताना चाह रही हैं कि पूरी कमान और जीत-हार उनके जिम्मे है और पार्टी उम्मीदवार ज्यादा मायने नहीं रखते. उन्होंने करीब आधे विधायकों और मंत्रिमंडल सहयोगियों में से करीब एक-तिहाई को टिकट नहीं दिया है. वहीं घोषित उम्मीदवारों की जगह वोट खींच सकने वाले उम्मीदवारों को ले आना, यह संदेह भी पैदा करता है कि क्या किसी मजबूत सहयोगी के अभाव में जैसा कि 2001 (जीके मूपनार की टीएमसी और कांग्रेस तथा अन्य) और 2011 (डीएमके और अन्य) में था, जयललिता अकेले चुनाव जीत पाएंगी? उन्हें कुछ और फायदे मिल रहे हैं.
मद्रास यूनिवर्सिटी में राजनीति और लोक प्रशासन विभाग के प्रो. मणिवन्नन कहते हैं, ''बंटा हुआ विपक्ष, लचर तीसरा मोर्चा, डीएमके के प्रति लोगों की धारणा और चुनाव प्रबंधकों के जरिए पैसे से वोट खींच लेने की क्षमता पर भरोसा—ये सब मिलकर जयललिता के लिए सकारात्मक स्थितियां बना रहे हैं. पैसे देकर वोट खरीदने वाला कारक निर्णायक हो सकता है क्योंकि अब तक 60 करोड़ रु. नकद जब्त किए जा चुके हैं. मणिवन्नन को यह भी लगता है कि 2011 के प्रचार के मुकाबले इस बार वे ज्यादा उखड़ी हुई हैं, ''अपनी परंपरागत शैली में श्रोताओं से जुड़ पाने में वे नाकाम नजर आ रही हैं और सरकारी योजनाओं के सहारे अपना प्रचार कर रही हैं.''
इन आलोचनाओं के बावजूद सख्त स्त्री की अपनी छवि के नाते जयललिता को न सिर्फ शहरी मध्यवर्ग बल्कि ग्रामीण वोटरों में भी सम्मान और प्रशंसा हासिल है. मदुरै के एक लोकप्रिय चिकित्सक कहते हैं, ''यहां तक कि मेरे पास आने वाले गरीब मरीज भी यह कहते सुने जा सकते हैं कि उनके मंत्री जयललिता के पैर पर लोटते हैं.'' बढ़ती जातिगत हिंसा और औद्योगिक गतिरोध के बावजूद गांवों में, खासकर दक्षिणी तमिलनाडु में सत्ता विरोधी माहौल न के बराबर है.
लोकलुभावन खर्च
डीएमके और एआइएडीएमके की सरकारों ने 2006 से 2016 के बीच कम से कम 15,000 करोड़ रु. मुफ्त की चीजें बांटने में खर्च किए हैं. इससे तमिलनाडु का राजस्व घाटा 9,154 करोड़ रु. पर पहुंच गया है. विडंबना कि जब सुप्रीम कोर्ट में इस पर बंदिश लगाने के लिए अर्जी लगाई गई कि मुफ्त में चीजें बांटना अवैध काम है तो उसने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि यह काम राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के समान है. कोर्ट ने इस पर चुनाव आयोग को संज्ञान लेने का आदेश दिया. शायद यही वजह है कि जयललिता इस बार लोकलुभावन कामों की होड़ से बच रही हैं, पर डीएमके के घोषणापत्र में कुल 70,000 करोड़ रु. की लागत वाले वादों का दबाव उन्हें फिर इस रास्ते पर जाने को मजबूर कर सकता है.