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सुप्रीम कोर्ट में याचिका: फांसी की जगह सजा के अन्य विकल्पों पर हो विचार

21वीं सदी की दुनिया में 140 देश फांसी की सजा खत्म कर चुके हैं. भारत में भी दुर्लभतम और नृशंसतम मामलों में ही फांसी की सजा देने का प्रावधान है.

फांसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका फांसी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका
आशुतोष कुमार मौर्य
  • नई दिल्ली,
  • 19 सितंबर 2017,
  • अपडेटेड 7:30 AM IST

क्या मौत की सजा के लिए फांसी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक याचिका में फांसी को बर्बर और अमानवीय बताते हुए मौत की सजा के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करने की अपील की गई है.

कानून में भी फांसी का मतलब दुर्दांत और संगीन अपराधी को सांसों की आखिरी डोर टूटने तक फांसी के फंदे पर लटकाए रखना है. अदालत जब किसी दोषी को फांसी की सजा सुनाती है तो कहती है 'हैंग टिल डेथ', जिसका मतलब ही होता है दोषी को तब तक फांसी पर लटकाया जाए जब तक उसके शरीर में प्राण बाकी है. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट में दाखिल इस याचिका के जरिए कानून में संशोधन की मांग की गई है.

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याचिका में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए एक फैसले का हवाला देते हुए कहा गया है कि पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि मौलिक अधिकारों में गरिमा और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के साथ-साथ गरिमा और सम्मान के साथ मरने का भी अधिकार शामिल है. लेकिन फांसी सम्मान के साथ मरने के अधिकार के विपरीत है लिहाजा इसे खत्म कर इसके विकल्प की तलाश होनी चाहिए.

याचिका में फांसी पर लटकाए रखने यानी 'हैंग टिल डेथ' का प्रावधान करने वाली सीआरपीसी की धारा 354 (5) को रद्द करने की मांग की गई है.

याचिकाकर्ता ने फांसी को मौत की सजा देने का सबसे बर्बर तरीका बताया है, क्योंकि फांसी से मौत में 40 मिनट तक लग जाते हैं , जबकि गोली मारने या इलेक्ट्रिक चेयर विधि में केवल 2 मिनट.

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लॉ कमीशन ने भी आतंकवाद और देश के खिलाफ युद्ध को छोड़कर अन्य सभी जुर्मों के लिए सजा-ए-मौत को खत्म करने की सिफारिश की थी. यह सिफारिश 2015 की रिपोर्ट के जरिए पिछले साल की गई थी. तब 9 में से 6 सदस्य इससे सहमत थे. तीन असहमत सदस्यों में से दो सरकार के प्रतिनिधि थे. तत्कालीन विधि आईजी अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह के मुताबिक रिपोर्ट में इस बात का साफ जिक्र था कि आंख के बदले आंख का सिद्धांत हमारे संविधान की बुनियादी भावना के खिलाफ है. बदले की भावना से न्यायिक तंत्र नहीं चल सकता.

आयोग की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 21वीं सदी की दुनिया में 140 देश फांसी की सजा खत्म कर चुके हैं. भारत में भी दुर्लभतम और नृशंसतम मामलों में ही फांसी की सजा देने का प्रावधान है. लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट ने कई बार माना है कि इस सिद्धांत का मनमाना इस्तेमाल भी हुआ है.

लॉ कमीशन ने भी सजा-ए-मौत की जगह उम्रकैद की पैरोकारी की थी. हालांकि राज्य सरकारों को सजा में रियायत बरतने का अख्तियार है. लेकिन कई राज्यों में गंभीर अपराध में 30 से 60 साल बाद सजा में छूट का प्रावधान है, तो कई राज्य 14, 16 या 20 साल बाद अच्छे चाल-चलन वाले कैदी की सजा में रियायत कर देते हैं.

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कोर्ट इस याचिका पर जल्द ही सुनवाई कर सकता है. जाहिर है 5 जजों से बड़ी पीठ ही सुनवाई करेगी.

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