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ऊर्जा सुरक्षा का सीधा-सा गणित

संसाधनों का सबसे अच्छा आवंटन तभी होता है, जब बाजार में कारगर ढंग से काम और सही नियमन हो. कभी न निकलने वाले कोयले से जुड़े ईंधन की राशनिंग संबंधी सरकारी समिति इसके लिए कुछ नहीं करने वाली.

संजय जोशी
  • नई दिल्ली,
  • 27 अक्टूबर 2014,
  • अपडेटेड 1:54 PM IST

भारत में ऊर्जा सुरक्षा की परिभाषा को अंग्रेजी के तीन ए यानी अवेलेबिलिटी, एक्सेस और अफोर्डेबिलिटी से व्यक्त किया जाता है. इसका सीधा-सा अर्थ है उपलब्धता, पहुंच और कम खर्च. इसमें से अंतिम दो सीधे-सीधे उपलब्धता पर निर्भर हैं. आगे बढ़ें तो बी का मतलब है बुलबुला (बबल) जो हमारे नीति निर्माताओं की कमजोरी के चार सी से घिर कर फूट जाता है. ये चार सी ही हैं, जो न सिर्फ हमारी ऊर्जा सुरक्षा के लिए बल्कि भविष्य में वृद्धि के लिए भी खतरा बन गए हैं.

पहला सी है—कोल यानी कोयला जिसकी हमारे पास भरमार है पर फिर भी कम है. कोयला भारत में आधी से अधिक उपयोग में आ रही ऊर्जा के लिए अकेला सबसे बड़ा ईंधन है, जो हमारी जरूरत की दो तिहाई बिजली पैदा करता है. फिर भी एक तिहाई आबादी बिजली से वंचित है और बाकी भी उसकी आंख मिचौली से परेशान रहती है.

इसका सीधा संबंध दूसरे सी यानी करंट एकाउंट डेफिसिट यानी चालू खाते के घाटे से है. इस वित्तीय बाधा का सामना वित्त मंत्री हर बार बजट के समय करते हैं. इसलिए तात्कालिक जरूरतों से आगे की योजना बनाना नामुमकिन हो जाता है और हमारे विशाल लोकतंत्र की जरूरतों के हिसाब से फेरबदल की गुंजाइश सीमित हो जाती है.

भारत अपनी जरूरत का 76 फीसदी तेल, 34 फीसदी गैस और 20 फीसदी कोयला आयात करता है. भारत के कोयला भंडार दुनिया में चौथे स्थान पर आते हैं, फिर भी हम कोयला क्यों आयात करते हैं? ईंधन आयात के लिए दुनिया के बाजारों की खाक छानते हुए अक्सर हमारा सामना तीसरे सी यानी चीन से हो जाता है. चीन के पास कोयला भंडार हमसे दोगुना पर उत्पादन हमसे छह गुना है.

चीन की बेमिसाल वृद्धि पूरी तरह कोयले के दम पर हुई है. चीन कोयले के मामले में दुनिया के बाजारों को नचा रहा है. वह कीमत में जहां फायदा दिखता है, उसके हिसाब से कभी घरेलू तो कभी आयातित कोयले का इस्तेमाल करता है. भारत उपलब्धता के संकट से जूझ्ते हुए जिस दाम पर मिले, खरीदता है.

पिछले हफ्ते जलवायु परिवर्तन से जुड़े पक्षों के सम्मेलन के 15वें सत्र के मद्देनजर और कोयले की गिरती कीमतों को देखते हुए राष्ट्रीय विकास और सुधार आयोग (एनडीआरसी) ने पूर्व के उन शहरों में 16 फीसदी से ज्यादा राख के अंश वाले कोयले को जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया. ये शहर वायु प्रदूषण से लड़ाई में सबसे अहम हैं. भारत 45 फीसदी राख के अंश वाला कोयला जलाता है और उसका सीधा सामना चौथे सी यानी क्लाइमेट (जलवायु) की दीवार से होता है.

वहां यह मांग जोर पकड़ रही है कि चीन और भारत निर्मल तरीके अपनाएं. दुनिया में कार्बन उत्सर्जन की गुंजाइश की अभूतपूर्व आड़ लेकर चीन ने रियो शिखर सम्मेलन के बाद के दो दशकों में दुनिया में कोयला जलाने की सबसे बड़ी क्षमता तैयार कर ली. फर्ज कीजिए, 1992 में स्टेशन से देर रात कोई कोयले की गाड़ी रवाना हुई हो तो चीन तो उसमें सवार था पर हम चूक गए. चीन अब क्योटो के बाद जलवायु परिवर्तन से जुड़े किसी भी तंत्र का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार है.

एनडीआरसी ने जिस तरह उस कोयले की किस्म पर कुछ पाबंदियां लगाई हैं, जिसे चीन जलाने को तैयार है, उसे देखते हुए लगता है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में साथ देने में उसकी तत्परता कम होती जाएगी. चीन का दामन थामे रखने की भारत की रणनीति अब ज्यादा दिन तक लाभ नहीं देने वाली. इसी तरह अमेरिका में शेल गैस की धूम मचने से अमेरिका अटलांटिक के पार जलवायु को बदलने से रोकने के लिए ज्यादा आक्रामक तेवर दिखाएगा. इसलिए बहुत जल्द भारत महसूस करेगा कि उसका अलगाव बढ़ता जा रहा है.

फिर भी हमने इन चारों दीवारों को तोडऩे का फैसला किया है. इसमें हमारा हथियार बुलबुले से कुछ बड़ा है. असल में यह बुलबुला संसाधनों पर मालिकाना हक की जोर-शोर से उठी हमारी सोच का है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसले इस बारे में लिखे हैं. सीएजी ने मोटी-मोटी रिपोर्ट तैयार की है. कई प्रमुख संपादकीय लिखे गए हैं. सबमें कीमती प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व लोगों को सौंपे जाने को सलाम किया गया है.

कानूनी दावपेंच ने भंडार और संसाधन के बीच का भेद उलझा दिया है. खनिज भंडार अपने आप में अमूल्य हैं. मालिक को ज्यादा कीमत दिलाने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले खनिज को खोजा जाए यानी उसका भंडार बनाया जाए. उसके बाद उसे कारगर ढंग से निकाला जाए. उसके सर्वोत्तम संभव उपयोग के जरिए ज्यादा से ज्यादा लाभ पाने के लिए सार्थक उपयोग किया जाए. उसके बाद ही यह एक संसाधन बनता है.

इसके लिए जरूरी है टेक्नोलॉजी, कुछ नया करने की चाहत और उद्यमशीलता. जो इकाइयां इनका सर्वोत्तम मिलान करती हैं, वे संसाधनों को ज्यादा से ज्यादा मूल्य दिलाती हैं, जिससे लोगों को अधिकतम लाभ हो. अगर सुधारा न जाए तो कल की गलतियां आने वाले कल की भारी भूल बन जाएंगी. बड़ी भूल कोयला राष्ट्रीयकरण कानून में आधे मन से किए गए संशोधनों में हुई. इस बारे में आखिरी फैसला 2012 में हुआ था. भूल-चूक सुधारने का काम कार्यपालिका और विधायिका का है, न्यायपालिका का नहीं.

आइए पहले तो बाजार पर अविश्वास करने की आदत से छुटकारा पाएं. संसाधनों का सबसे अच्छा आवंटन तभी होता है, जब बाजार में कारगर ढंग से काम और सही नियमन हो. कभी न निकलने वाले कोयले से जुड़े ईंधन की राशनिंग संबंधी सरकारी समिति इसके लिए कुछ नहीं करने वाली. कोयला ब्लॉक का अब क्या करें, इस बारे में बात करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि असली खतरा कोयला भंडारों के बेमोल हो जाने का है. अगर हमने कोयला न निकाला तो वह बेमोल हो जाएगा और अब से कुछ दशक बाद जलवायु की मार से हमारा कोयला भंडार जलने लायक न रहने पर बेकार हो जाएगा.

हम एक रेलगाड़ी की सवारी में पहले ही चूक गए हैं और क्या अब भी बस अड्डे पर खड़े बहस करते हुए आखिरी बस को भी निकल जाने देंगे?

लेखक दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक हैं.

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