
लाइफ ऑफ पाई तीन गोल्डन ग्लोब नॉमिनेशन, भावनाओं से लबरेज समीक्षाओं की बाढ़ और दुनियाभर में बॉक्स ऑफिस पर 20 करोड़ डॉलर से ज्यादा के कारोबार के साथ आसानी से 2012 की सबसे बड़ी फिल्मों में शामिल हो जाती है. और 49 वर्षीय आदिल हुसैन आंग ली की इस फिल्म का हिस्सा हैं.
बचपन वाले पाई के सख्त पिता की भूमिका ने आदिल के लिए ग्लोबल ऑडियंस की राह खोली है तो घरेलू मोर्चे पर भी उनके ग्राफ में तेजी से इजाफा हो रहा है. इश्किया में विद्या बालन के धूर्त पति के रूप में उनकी झलक देख डायरेक्टर गौरी शिंदे ने उन्हें इंग्लिश विंग्लिश के ऑडिशन के लिए बुलाने का फैसला लिया था. जब उन्होंने उन्हें श्रीदेवी के संगदिल पति के रूप में तब्दील होते देखा तो उनके मन में यही विचार आया, “ऐसे ही मर्द की तलाश थी.” जब तक यह फिल्म रिलीज होती वे एजेंट विनोद में पाकिस्तानी आइएसआइ के कर्नल के रूप में एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुके थे.
इस बीच उन्हें कई और बड़ी फिल्मों में छोटे रोल मिले हैं. वे मीरा नायर की द रिलक्टेंट फंडामेंटलिस्ट में आतंकवादी और विक्रमादित्य मोटवाणे की लुटेरा में सीआइडी अफसर के रोल में हैं. उनको पहला कॉमर्शियल तनिष्क का मिला था और अब उनके पास रोजाना औसतन पांच स्क्रिप्ट आती हैं.
लेकिन यह कामयाबी उनके सिर नहीं चढ़ी है. लिनेन की क्रिस्प शर्ट पहने वे गुडग़ांव के होटल लीला केमपिंस्की में फलों का नाश्ता करते हुए मिले, जहां वे ब्लेमिश्ड लाइट की शूटिंग के लिए आए हुए हैं. यह अमेरिकी-भारतीय प्रोडक्शन की फिल्म है जिसमें वे रूढ़िवादी पिता के रोल में हैं. वे बहुत अच्छा जीवन जी रहे हैं. उनके पास ‘ग्रेटर कैलाश में जंगल के किनारे बना एक खूबसूरत आशियाना है’, जिसमें उनके साथ पत्नी और बेटा रहते हैं. वे बेहतरीन कुक हैं. उनके पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी, जहां से उन्होंने पढ़ाई की है) का टीचिंग असाइनमेंट है. वरिष्ठ रंगकर्मी दिलीप शंकर के साथ वे कर्म निष्ठा नाम का नाटक कर रहे हैं और फिर फिल्में तो हैं ही.
बॉलीवुड ने भले ही उन्हें अभी-अभी खोजा हो, लेकिन असम के गोलपाड़ा के ऐक्टर आदिल थिएटर में मुकाम हासिल कर चुके हैं. उनके नाटक ऑथेलो अ प्ले इन ब्लैक ऐंड व्हाइट को 1999 में एडिनबरा फेस्टिवल में स्कॉट्समैन अवार्ड मिल चुका है. उनकी अभिनय यात्रा पांच साल की उम्र में ही शुरू हो गई थी, जब उन्होंने अपने पड़ोस में कुछ कॉमेडियंस के कार्यक्रम देखने के बाद घर में आकर स्टैंड-अप शो किया.
सात बच्चों में सबसे छोटे आदिल हर शुक्रवार को स्कूल से गायब रहते थे, 85 पैसे चुराकर कोई फिल्म देखते थे और अमिताभ बच्चन बनने के ख्वाब देखते थे. यह सब नापसंद करने वाले अपने शिक्षक-पिता के जोर देने पर उन्होंने गुवाहाटी के बी. बरुआ कॉलेज से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की. उनके पिता उन्हें अंग्रेजी का प्रोफेसर बनाना चाहते थे, लेकिन इसकी जगह उन्होंने टीवी, असमिया फिल्मों, नुक्कड़ नाटकों और रेडियो नाटकों में अभिनय किया.
ट्रेनिंग की जरूरत महसूस करते हुए उन्होंने एनएसडी में एडमिशन के लिए अर्जी डाल दी और 27 वर्ष की उम्र में उन्हें इसमें एडमिशन भी मिल गया. उन्हें 650 रु. महीने की स्कॉलरशिप मिलती थी जिसमें से 500 रु. ट्यूशन फीस में चले जाते थे. लेकिन आर्थिक दिक्कतें उनके लिए सबसे कम चिंता का विषय रहीं. एनएसडी का गहन कोर्स उनके लिए झ्टके जैसा था और उनकी कमजोर हिंदी का मतलब यह था कि उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत करनी होगी. एनएसडी में अपने पहले दो साल में वे हर दिन सिर्फ ढाई घंटे ही सो पाए. उनका वजन 13 किलो घट गया, जबकि वे पहले से ही दुबले थे.
वे दिल्ली में नए ऐक्टर के रूप में अपने संघर्षों के बारे में कुछ नहीं बताते, बल्कि इसको हंसी में टालते हुए कहते हैं, “कभी-कभी मेरे पास पैसे नहीं होते थे, लेकिन मुझे जब भी जरूरत पड़ी, तब पैसे मिल गए.” पिछले 25 साल से भी ज्यादा समय से उनके दोस्त और फिल्म निर्माता उत्पल बड़पुजारी कहते हैं कि वे कभी भी अपने मुश्किल के दिनों की चर्चा नहीं करते, यहां तक कि अपने दोस्तों से भी नहीं.
उन्होंने कहा, ‘वे आत्मसम्मान वाले व्यक्तिहैं.’ एक समय तो ऐसा भी आया था कि उन्होंने अपने दोस्त के साथ किराए पर लिए अपार्टमेंट के बाहर बड़ा-सा ताला लगा दिया और उसमें आने-जाने के लिए खिड़की का इस्तेमाल करने लगे थे क्योंकि उनके पास किराया देने के लिए पैसे नहीं थे. वे 2 रु. में खाना खाने के लिए अपने घर से रेलवे स्टेशन तक 7 किमी. पैदल चलकर जाते थे.
एनएसडी के बाद उन्हें ब्रिटेन के ड्रामा स्टुडियो लंदन में पढऩे के लिए स्कॉलरशिप मिल गई. कोर्स वैसा नहीं था, जैसा वे चाहते थे. इसलिए 1994 में भारत लौट आए और असम के मोबाइल ‘हेंगुल थिएटर’ से जुड़ गए. इससे उन्हें अगले तीन साल तक जीने-खाने लायक पैसे मिलते रहे. इसी बीच वे अपने पूर्व शिक्षक खालिद तैयबजी के साथ काम करने लगे. दिलीप शंकर को अपना गाइड बनाने से पहले उन्होंने पुडुच्चेरी स्थित अरविंद आश्रम के सपन बसु से ट्रेनिंग ली.
अब वे जटिल फिल्म स्क्रिप्ट की चाह रखते हैं, जो उनके मुताबिक “मेरे भीतर की आग को बाहर निकाले.” अब वे स्वतंत्र भूमिकाओं वाले प्रोजेक्ट भी लेने लगे हैं जैसे फीस्ट ऑफ वाराणसी, जो तनिष्ठा चटर्जी के साथ एक ब्रिटिश-भारतीय को-प्रोडक्शन है और पार्थ सेनगुप्ता के निर्देशन वाली जर्मन-डच-भारतीय को-प्रोडक्शन सनराइज है.
अनिंद सरकार की बांग्ला फिल्म के अलावा उनके पास असमिया फिल्म स्प्रिंगखल भी है जिसका निर्देशन प्रवीन हाजारिका कर रहे हैं. यह फिल्म असमिया उपन्यासकार और निर्देशक दिवंगत भवेंद्रनाथ सैकिया की कहानी पर आधारित है. इसमें आदिल गांव में कपड़ा बेचने वाले दुकानदार बने हैं जिसे अपने दोस्त की विधवा से प्यार हो जाता है. उनकी असमिया लेखक अतुलानंद गोस्वामी की पुरस्कृत लघुकथा पर आधारित हिंदी फिल्म द रोग एलीफेंट बनाने की भी योजना है.
सिर्फ 17 वर्ष की उम्र में स्टैंड-अप कॉमेडियन के रूप में अपना पहला ऑटोग्राफ दे चुके आदिल का कहना है कि वे जनता से बहुत तारीफ की चाह नहीं रखते. वे अब भी पैदल चलकर एनएसडी के पास ही भगवान चाय वाले की दुकान पर जाते हैं और वहां बैठे लोगों से गपशप करते हैं. उनके पुराने सहकर्मियों को जल्द भरोसा हो जाता है कि वे अब भी वही आदमी हैं, जिसे वे जानते हैं. लेकिन जिन लोगों ने उन्हें अभी-अभी तलाशा है उनके देखने के लिए काफी कुछ है. जैसा गौरी शिंदे कहती हैं, “वे एक ऐसे ऐक्टर बनने जा रहे हैं जिसे प्रतिष्ठा हासिल होगी. वे अब भी ऐसे ऐक्टर हैं, लेकिन आगे वे और भी हैरत में डालने वाले हैं.”