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लंबित मुकदमों में अटका विकास

मुकदमों के लंबित होने की वजह बुनियादी ढांचे में छिपी है. देश में जजों की संख्या जरूरत से कम है. दिसंबर 2018 तक निचली अदालतों में जजों की स्वीकृत संख्या 22750 के मुकाबले कुल कार्यरत जज 17891 (79 फीसदी) ही थे.

देश में लंबित मुकदमे आर्थिक विकास की राह में रोड़ा देश में लंबित मुकदमे आर्थिक विकास की राह में रोड़ा
मनीष दीक्षित
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  • 19 जुलाई 2019,
  • अपडेटेड 5:41 PM IST

देश में अदालतों में लंबित मुकदमे आर्थिक विकास पर गहरी चोट कर रहे हैं. 2017-18 के आर्थिक सर्वे में कहा गया था कि रेलवे, रोड, पॉवर प्रोजेक्ट के कोर्ट में अटके मामलों की वजह से इनकी लागत में 60 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हो गई. विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि देश में करों से जुड़े कई लाख करोड़ के मुकदमे अदालतों में फंसे हुए हैं और ज्यादातर में सरकार में अपील की गई है. लेकिन लंबित मुकदमों की समस्या नीचे से शुरू होती है.  

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2018-19 के आर्थिक सर्वे के अनुसार, देश में कुल लंबित मामलों के 87.54 फीसदी केस निचली अदालतों में लंबित हैं. ओडिशा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और गुजरात में निचली अदालतों में चार साल से भी ज्यादा वक्त से लंबित पड़े मुकदमों की संख्या सबसे ज्यादा है. ओडिशा, बिहार और पश्चिम बंगाल में सिविल और आपराधिक दोनों तरह के मामलों के निबटारे में लगने वाला समय राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है. सरकार कहती है कि 2018 में जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में 74.7 फीसदी सिविल और 86.5 फीसदी आपराधिक मामलों का निबटारा तीन साल के भीतर हुआ.

2017 में 2.87 करोड़ मुकदमे लंबित थे. जनवरी से दिसंबर 2018 के बीच 1.5 करोड़ नए मुकदमे आ गए. 2018 में 1.33 मामले निपटाए गए लेकिन लंबित मुकदमों की संख्या 3.04 करोड़ हो गई. अक्तूबर 2018 तक सुप्रीम कोर्ट में 56 हजार से ज्यादा मामले लंबित थे जबकि विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या जून 2018 तक 44 लाख से ज्यादा थी. निचली अदालतों में लंबित मामलों की तुलना में आपराधिक मामले ढाई गुना ज्यादा हैं. मुकदमे निपटाने में अमेरका और यूरोप का रिकॉर्ड भारत से काफी अच्छा है. काउंसिल ऑफ यूरोप के सदस्य देशों से तुलना की जाए तो भारत में केस निपटाने में चार से छह गुना ज्यादा वक्त लगता है.

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मुकदमों के लंबित होने की वजह बुनियादी ढांचे में छिपी है. देश में जजों की संख्या जरूरत से कम है. दिसंबर 2018 तक निचली अदालतों में जजों की स्वीकृत संख्या 22750 के मुकाबले कुल कार्यरत जज 17891 (79 फीसदी) ही थे. 2018 के सभी मामले निपटाने के लिए 2279 अतिरिक्त न्यायाधीशों की जरूरत थी. अगले पांच सालों में सभी मुकदमों के निपटान के लिए 8 हजार से ज्यादा न्यायाधीशों की जरूरत होगी. हाईकोर्ट का एक जज 2348 मुकदमें साल भर में निपटाता है. उच्च न्यायालयों में जजों की स्वीकृत संख्या 1079 के मुकाबले 2018 के अंत तक 671 (62 फीसदी) जज ही काम कर रहे थे. नए जज अगर भर्ती हो भी गए तो उनकी अदालत के लिए कमरों का निर्माण कराने के लिए भी सरकार के अच्छा खासा पैसा खर्च करना होगा. मुकदमे लंबित होने की सबसे बड़ी वजह महंगा न्याय है. लोग जेलों में बंद रहते हैं क्योंकि उनके पास वकील की सेवा लेने के लिए पैसे नहीं होते हैं. जेलों में 67 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी हैं. इनका खर्च भी सरकार को ही उठाना होता है.

सरकार ने लंबित मुकदमों पर आर्थिक सर्वे में चिंता तो बहुत जताई है लेकिन इनको निपटाने के लिए धन की व्यवस्था करने में निराशाजनक रवैया अपनाया है. 2019-20 के बजट में विधि और न्याय विभाग के लिए आवंटित रकम में जोरदार कटौती कर दी गई है. 2018-19 के बजट में विधि और न्याय विभाग के लिए 4386 करोड़ का आवंटन किया गया था जबकि 2019-20 के बजट में इसमें जबर्दस्त कटौती कर 3055 करोड़ रुपए कर दिया गया है. विधि और न्याय विभाग के तहत चुनाव आयोग भी आता है और उसका खर्च भी इसी में जुड़ा हुआ है. हालांकि सरकार ने बुनियादी न्यायिक ढांचे के लिए रकम में बढ़ोतरी जरूर की है लेकिन इतनी नहीं कि इससे पूरे न्यायिक परिदृश्य में बदलाव की उम्मीद जग जाए. अदालती प्रक्रियाएं हमारे देश में काफी जटिल और पुरानी हैं. इनकी खामियों का लाभ उठाकर भी पक्षकार मुकदमें लंबे खिंचवाते हैं. दीवानी, आर्थिक और टैक्स से जुड़े मामले ट्रिब्यूनलों में सालों चलते रहते हैं.

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देश में राजनीति से जुड़े मामलों का तो कहना ही क्या. बहुत कम मामले अंजाम तक पहुंचते हैं. राजनीति को प्रभावित करने वाले मुकदमों में फैसला आसानी से और जल्दी नहीं होता-देश का सबसे पुराना दीवानी मामला यानी अय़ोध्या टाइटिल सूट इसका सबसे बड़ा नमूना है.

(मनीष दीक्षित इंडिया टुडे में असिस्टेंट एडिटर हैं)

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