
*राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम (एनएमडीएफसी) से कर्ज लेने की योग्यता इतनी सीमित है कि दिल्ली के कुछ भिखारी ही इसके पात्र हो सकते हैं.
*मुस्लिम समुदाय को फायदा पहुंचाने वाले कार्यक्रमों की परिकल्पना सही नहीं है और वे लक्ष्य से बहुत दूर है.
*अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय अल्पसंख्यकों की समस्याओं के मूल कारणों का निवारण नहीं कर रहा है.
*सच्चर समर्थित सरकारी नीतियों के बावजूद मुस्लिम समुदाय का मार्जिनलाइजेशन (हाशिए पर होना) और एक्सक्लूजन जारी है.
ये निष्कर्ष हैं ‘सिक्स ईयर्स आफ्टर द सच्चर कमेटी रिपोर्टः अ रिव्यू ऑफ सोशली इनक्लूसिव डेवलपमेंट सिंस 2006 ऐंड रिकम्नडेशन ऑन पॉलिसीज ऐंड प्रोग्राम्स’ नामक 189 पेज की रिपोर्ट के, जिसकी एक प्रति इंडिया टुडे के पास है. इसमें 10 अध्याय हैं, जिनमें आरटीआइ, सरकारी और निजी रिपोर्ट के आधार पर यह बताया गया है कि सच्चर की सिफारिशों के छह साल बाद भी मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक हालत में बदलाव नहीं आया है.
देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक दशा जानने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में समिति गठित की थी. 403 पेज की रिपोर्ट को 30 नवंबर, 2006 को लोकसभा में पेश किया गया. पहली बार मालूम हुआ कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति-जनजाति से भी खराब है.
समिति ने भारतीय मुसलमानों को समान अवसर मुहैया कराने के लिए कई तरह के सुझाव दिए थे और साथ ही उचित मेकैनिज्म अपनाने का भी सुझाव दिया था. समिति के छह सदस्यों में से एक दिल्ली स्थित नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाएड इकोनॉमिक रिसर्च के तत्कालीन सीनियर फेलो/मुख्य अर्थशास्त्री और अब वाशिंगटन स्थित यूएस-इंडिया पॉलिसी इंस्टीट्यूट के चीफ स्कॉलर डॉ. अबुसालेह शरीफ की इस रिपोर्ट से जाहिर है कि मुसलमानों के प्रति सरकार की उदासीनता से हालात बदतर हो रहे हैं.
डॉ. शरीफ ने अपनी रिपोर्ट विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार की है. नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है, “मुस्लिम परिवारों और समुदायों के लिए तय फंड और सेवाएं उन इलाकों में भेज दी जाती हैं, जहां मुसलमानों की संख्या कम है या न के बराबर है.”
इसी तरह 12 गांवों में सोशल और डेवलपमेंटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के सर्वेक्षण पर सोशल इक्विटी वॉच की रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है, “स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य केंद्र, सस्ते राशन की दुकान, सड़क और पेयजल सुविधा जैसे संकेतकों के डाटा से जाहिर होता है कि एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों के आबादी वाले गांवों और आवासीय इलाकों में इन चीजों की काफी कमी है.”
यही नहीं, सामाजिक न्याय और आधिकारिता पर संसद की शीर्ष समिति की 27वीं रिपोर्ट के मुताबिक, “समिति ने पाया कि माइनॉरिटी कंसंट्रेशन डिस्ट्रिक्ट (एमसीडी) में पैसे का पूरा इस्तेमाल नहीं किया. यही नहीं, फंड जिला स्तर पर आवंटित किया जाता है और यह उन ब्लॉक में ज्यादा चला गया जहां अल्पसंख्यकों की तादाद कम है.”
साक्षरता, शिक्षा और काबिलियत हासिल करना 21वीं सदी के भारत में जीविकोपार्जन और अच्छी जीवन-शैली की बुनियाद है. मैट्रिकुलेशन तक की शिक्षा से कामगारों की संख्या में इजाफा होता है. एससी-एसटी समेत सभी सामाजिक-धार्मिक समुदायों के मुकाबले मुसलमानों में मैट्रिक तक की शिक्षा सबसे कम रही.
रोजगार के मामले में यह चैंकाने वाला है कि मनरेगा में मुसलमानों की भीगीदारी नगण्य है. उन्हें जॉब कार्ड जारी करने के समय से ही नजरअंदाज किया जाता है. यही नहीं मुसलमानों को ‘मास आंगनवाड़ी’ कार्यक्रम, प्राइमरी और एलीमेंटरी शिक्षा कार्यक्रम और मास माइक्रो क्रेडिट प्रोग्राम जैसे प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया है. लेकिन योग्य मुसलमानों के इस कार्यक्रम से बाहर रहने से नौकरशाही को कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही नेताओं को इसकी परवाह है.
प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था कि भारतीय लोकतंत्र के ढांचे के भीतर सरकारी संसाधनों पर पहला दावा अल्पसंख्यकों का है, लेकिन ऐसा कोई सबूत नहीं है कि सरकार इस जिम्मेदारी को निभा रही है. प्रमुख बैंकरों की एक कमेटी ने पाया कि सरकार अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं है. ध्यान रहे कि बैंक का कर्ज वित्तीय इनक्लूजन का संकेतक होता है. गुजरात इस मामले में फिड्डी है. देश के 121 अल्पसंख्यक बहुल जिलों में सिर्फ 26 फीसदी खाते अल्पसंख्यकों के हैं, जबकि कर्ज सिर्फ 12 फीसदी है. उन अल्पसंख्यकों में भी मुसलमानों को मिलने वाला कर्ज न के बराबर है. सच्चर की सिफारिश के छह साल बाद भी बैंकिंग के मामले में हालात बिगड़े हैं.
रिपोर्ट का कहना है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम से कर्ज लेने की योग्यता बहुत सीमित है. देश के करीब 20 करोड़ अल्पसंख्यकों में से ज्यादातर गरीब हैं और आयोग ने पिछले 17 साल में स्वरोजगार के लिए सिर्फ 1,750 करोड़ रु. दिए हैं! राज्य के ऐसे निगमों की भी कमोबेश यही हालत है.
सच्चर की सिफारिशों में सबसे अहम समान अवसर आयोग का गठन है. यह आयोग वंचित वर्ग की समस्याओं का समाधान ढूंढेगा. अभी तक इसके गठन की संभावना नहीं दिख रही है.
ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट तैयार करने वाले डॉ. शरीफ सच्चर की सिफारिशों पर सरकारी पहल के बहाने देश में मुसलमानों के विकास की रिपोर्ट तैयार की है. देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की हालत के प्रति सरकारी अमले की उदासीनता सेकुलर लोकतंत्र के लिए बेहतर नहीं है. उम्मीद है कि यूपीए सरकार 2014 के आम चुनाव के मद्देनजर ही सही, इस रिपोर्ट के कुछ सुझावों पर अमल कर वोट की फसल काटने का प्रयास करेगी.