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पहली बार टीवी पर असली गधा, इंटरव्यू में छलका दर्द

यूपी चुनाव ने पूरी गधा कम्यूनिटी को ऐसी पब्लिसिटी दिलाई है कि क्या सीएम-क्या पीएम सब गधा-गधा कर रहे हैं. लेकिन गधों की फिल्म के असली पात्र हम गधे हैं. सारी दुनिया का बोझ उठाने वाले गधे. क्योंकि इन दिनों आपकी गप्पों, आपकी चर्चाओं और आपकी राजनीति का सेंट्रल करेक्टर 'गधा'.

गधे को लेकर राजनीति में जुबानी जंग तेज गधे को लेकर राजनीति में जुबानी जंग तेज
अमित कुमार दुबे/संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 24 फरवरी 2017,
  • अपडेटेड 11:35 PM IST

यूपी चुनाव ने पूरी गधा कम्यूनिटी को ऐसी पब्लिसिटी दिलाई है कि क्या सीएम-क्या पीएम सब गधा-गधा कर रहे हैं. लेकिन गधों की फिल्म के असली पात्र हम गधे हैं. सारी दुनिया का बोझ उठाने वाले गधे. क्योंकि इन दिनों आपकी गप्पों, आपकी चर्चाओं और आपकी राजनीति का सेंट्रल करेक्टर 'गधा'.  

असली गधे का इंटरव्यू नीचे देखें

लेकिन सारी दुनिया का बोझ उठाने वाले हम गधे आज पॉलिटिकल डिबेट्स में छाए हुए हैं. ट्विटर पर ट्रेंड कर रहे हैं, हेडलाइंस में बने हुए हैं तो हममें कुछ बात तो होगी. सच कहूं तो आज मुझे दादा-परदादा के जमाने में बने दो मुहावरों का मतलब समझ आ रहा है.

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'खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान'
'मुसीबत में गधे को भी बाप कहना पड़ता है'

तो कौन हमें पहलवान मान रहा है, और कौन बाप कह रहा है- ये आप समझिए. यूं 'धोबी का गधा न घर का न घाट का' भी एक मुहावरा है. लेकिन ये मुहावरा हमें ठीक नहीं लगता. हम घर के भी हैं और घाट के भी. वाराणसी में कैसे हमारे अपने मालिक लोग सड़क पर उतर आए हैं, और दो टूक कह रहे हैं कि गधों की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं की जाएगी.

चुनावी चर्चे के केंद्र में गधा
दरअसल चुनावी मौसम में अचानक मिली लोकप्रियता के बीच हमारे गधा समाज को लग रहा है कि अब एक्टिव पॉलिटिक्स में आने का सही वक्त है. लीजिए, हमने ये सोचा और ये पत्रकार भाई साहब आ गए- हमारा इंटरव्यू करने. चलिए इंटरव्यू ठीक-ठाक हुआ. अपना एजेंडा हमने बता दिया. लेकिन-एक बात सोचकर हम आहत हैं कि ये नेता सिर्फ चुनावी मौसम तक हमें याद करेंगे.

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'हमें हल्के में मत लेना...'
गधे का नाम भले गधा हो लेकिन हमें अंडरइस्टीमेट नहीं किया जाना चाहिए. उज्जैन में लगने वाले गधा मेला में एक एक गधा 25 से 50 हजार रुपये के बीच बिकता है. इतनी तो कई नेताओं की कीमत नहीं है आज. नेताओं की गधा चालीसा के बाद हमारी कीमत और बढ़ने की उम्मीद है.

पहले भी हम पर हुई थी बहस
वैसे, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि गधा का इस्तेमाल पहली बार पॉलिटिक्स में नहीं हो रहा है. चंद साल पहले छत्तीसगढ़ के इन्हीं विधायक आर के राय साहब ने राहुल बाबा पर हमारा नाम थोपते हुए तंज कसा कसा था कि मैं गधे को घोड़ा तो नहीं कह सकता. नतीजा कांग्रेस ने भी इन्हें फौरन दुलत्ती मार दी.

अब राहुल गांधी अखिलेश यादव के साथ हैं, जो उन्हीं अमिताभ बच्चन के विज्ञापन के जरिए प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधते दिखे, जो अमिताभ बच्चन कभी उनके साथ थे और उत्तर प्रदेश में जुर्म कम होने की बात किया करते थे. लेकिन अब अखिलेश यादव को गुजरात के गधों का प्रचार रास नहीं आ रहा.

नेताओं की बात बुरी नहीं लगती...
छोड़िए अखिलेश यादव को, मोदी को और बाकी राजनेताओं को. इनका क्या है, चुनावी मौसम में अलग खुमारी लेकर चलते हैं. ये किसी को भी कुछ भी कह सकते हैं. नेताओं की बातों का बुरा नहीं मानते, या कहें कि नेताओं की बातों को सच नहीं मानते. अगर ये साबित हो जाए कि फलां नेता सिर्फ सच बोलता है तो मैडम तुसाद म्यूजियम वाले उसे अपने साथ ले जाएंगे. पुतलों के बीच.

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अपने रास्ते से नहीं भटकता ये गधा
खैर, आज बात नेताओं का नहीं गधों की हो रही है और अजीब संयोग है कि जिस तरह गधा डिमांडिंग नहीं होता-वैसा ही आपका भी हाल है. आप यानी देश के आम लोग. हम गधों को एक बार रास्ता बता दो तो वो बगैर बताए या हांके अपनी जगह पहुंच जाते है. देश की जनता को बता दिया गया है कि चुनाव से ही हर प्रॉब्लम हल होगी तो चुनाव आए नहीं कि वो बिना बताए वोट डाल आते हैं. बिना ये सवाल किए कि बीते 70 साल में क्या दिया.

गधा तो आज्ञाकारी होता है...
गधा आज्ञाकारी होता है, अलबत्ता रेंकते हुए डेंचू-डेंचू करता है. देश के लोग भी आज्ञाकारी ही हैं अलबत्ता रेंकते हुए कभी कभी क्रांति-क्रांति करते हैं. लेकिन डेंचू-डेंचू से हम गधों को कभी ज्यादा खाना नहीं मिला और क्रांति क्रांति से आपको आज तलक न लोकपाल मिला न रोजी-रोटी का पूरा इंतजाम.

बदनाम ना करें हम...
मजेदार बात देखिए कि जो काम पॉलिटिक्स नहीं कर पा रही-वो काम गधे कर रहे हैं. जैसे गुजरात के कच्छ के हमारे गधे भाइयों की वजह से सैकड़ों लोगों को काम मिल गया है. रोजी-रोटी मिल गई है. कोई हैंडीक्राफ्ट का काम करने लगा है यहां तो कोई रिजॉर्ट चला रहा है. गधों ने इंसानों की जिंदगी बदल दी है.

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गधों की 189 के करीब प्रजातियां
गधा कौन है, गधे के लक्षण किसमें है, कुछ समझ नहीं आता. यूं वैज्ञानिक दृष्टि से गधों की 189 के करीब प्रजातियां हैं. लेकिन कुछ गधों की ऐसी प्रजातियां भी हैं, जिनके बारे में वैज्ञानिक भी नहीं जानते. बरहाल, इस देश की जनता बरसों से गधों की तरह लतियाई जा रही है लेकिन गधा गुण कूट-कूट कर भरा होने की वजह से वो कुछ नहीं कहती.

खैर... छोड़िए, मेरी तो आपसे यही अपील है कि गधों को सम्मान दीजिए. घोड़ा भी नर्वस होता है तो उसे कुछ दिन गधे के साथ रखा जाता है ताकि वो शांत हो सके. यानी गधों को कम मत समझिए. वक्त आ गया है जब गधों का लीडर बनना तय है. बाकी जब कभी गुजरात आएं तो हमारे भाइयों से मिलकर जरूर आइएगा, वो बड़े प्यारे हैं.

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