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वायु प्रदूषणः हर सांस में लेते हैं मौत का पैगाम

जीवनदायिनी हवा में जहर घुलने की वजह से यह मौत का सबब बन रही है. भारत अपने वायु प्रदूषण के मानकों को हासिल कर ले तो देश के आधे नागरिकों की जिंदगी 32 साल बढ़ जाएगी, यह बात विदेशी विश्वविद्यालयों में हाल ही में हुए एक अध्ययन में सामने आई है.

अमूल्या गोपालकृष्णन
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  • 09 मार्च 2015,
  • अपडेटेड 6:02 PM IST

राजमार्गों के किनारे मुरझाए पौधे हों, किसी बच्चे की छाती का फूलना और बैठना हो, हर जाड़े में हमारे शहरों की फिजा पर छाई कुहासे और धूल की मिश्रित सतह हो या फिर दीवाली के बाद हवा में जलने की बदबू-जाने कितने तरीकों से हमें हवा में दमघोंटू प्रदूषण का पता लगता है.
पिछले छह साल से लगातार मध्य दिल्ली में सवेरे दौड़ने वाले 42 वर्षीय हर्ष ढिल्लों अपने शरीर पर होने वाले असर से हवा को पहचान लेते हैं. वे कहते हैं, ''रोज दौड़ने के बाद जब मैं थूकता हूं तो काला बलगम निकलता है. मैं अपनी देह से महसूस कर सकता हूं कि हवा कितनी खराब होती जा रही है.'' उन्हें खासकर अपने सात साल के बेटे के अस्थमा की ज्यादा चिंता है जो हर जाड़े में प्रदूषण के चलते उखड़ जाता है. ढल्लिों कहते हैं, ''इस शहर में हर आदमी इस पीड़ा को झेलते हुए जी रहा है.''

इस दौरान कोलकाता बढ़ते वाहनों के जाम और भीड़ से जूझ रहा है. प्रदूषण विरोधी कार्यकर्ता सुभाष दत्ता कहते हैं, ''कोलकाता गाडि़यों के लिए वृद्घाश्रम जैसा हो गया है. काफी पहले 15 साल पुरानी गाडि़यों को सड़क से हटाने का आदेश आया था लेकिन उसे लागू करना अलग बात है.'' चेन्नै में भी कतिवक्कम, मनाली और तिरुवोत्तियूर जैसे औद्योगिक इलाके हैं जहां प्रदूषण का स्तर मानक से काफी ज्यादा है.

समूचे देश में नर्मिाण से उड़ रही धूल, ट्रकों और कारों के धुएं, कोयला संयंत्र और कारखानों के उत्सर्जन, डीजल जेनरेटर, खेतों में ठूंठ को जलाए जाने, कूड़े-कचरे में लगी आग और चूल्हों ने वायु प्रदूषण को आपात स्थिति में ला खड़ा किया है. पिछली मई में 1,600 शहरों के अध्ययन पर आधारित वश्वि स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि वायु प्रदूषण की हालत 2011 के एक अध्ययन के नतीजों के मुकाबले बदतर हुई है तथा पीएम2.5 आंकड़े के साथ दल्लिी की हवा दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित है. 

इंडिया टुडे ने जब 1996 में वायु प्रदूषण को अपनी आवरण कथा बनाया था, तब वश्वि बैंक के एक अनुमान के मुताबिक, भारत में हर साल 40,000 से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण असमय मर रहे थे. 2000 में यह आंकड़ा एक लाख तक पहुंच गया और 2010 तक 6,27,000 हो गया. यह आंकड़ा विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा 50 देशों की 300 संस्थाओं के बीच एक गठजोड़ के तहत किए गए ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज नामक अध्ययन में सामने आया था. कंजर्वेशन ऐक्शन ट्रस्ट और अर्बन एमिशंस नामक स्वतंत्र शोध समूहों का किया एक ताजा अध्ययन बताता है कि 2030 तक कोयला जलाने से प्रदूषण संबंधी मौत  दोगुनी या तिगुनी भी हो सकती हैं. 

प्रदूषण सबसे कमजोर को अपना शिकार बनाता है. सबसे सीधा और आजीवन असर बच्चों पर होता है जिनकी सेहत के कई पहलू प्रभावित हो सकते हैं जिनमें याददाश्त और ज्ञानात्मक बोध भी है. इसके अलावा बूढ़ों, गर्भवती औरतों, श्वास संबंधी बीमारी से ग्रस्त लोगों, बाहर काम करने वाले लोगों जैसे ट्रैफिक पुलिस, रेहड़ी लगाने वालों, निर्माण मजदूरों और बेघर लोगों को यह कहीं ज्यादा नुक्सान पहुंचाता है.

प्रदूषित हवा कई जहरीले घटकों का मश्रिण होती है, जिसमें ओजोन, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और महीन कण (दस माइक्रॉन छोटे कणों को पीएम10 कहते हैं और इसी हिसाब से और छोटे जैसे पीएम2.5 होते हैं) शामिल होते हैं. ओजोन और महीन कण कोहरे के साथ मिलकर हर साल जाड़े में भारी धूल भरी हवा की एक सतह नर्मिति करते हैं. पिछले जाड़े में दिल्ली में पीएम10 का स्तर 400 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर को छू गया था, जबकि वश्वि स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक, सुरक्षित हवा में इसका स्तर 20 माइक्रोग्राम होता है.

कण जितने छोटे और महीन होंगे, सेहत को उतना ही नुक्सान होगा. आज दल्लिी की हवा में अतिसूक्ष्मदर्शी पीएम2.5 कणों का उच्चतम स्तर मौजूद है जो फेफड़ों में गहरे जाकर जम जाता है और वहां से रक्त प्रवाह का हस्सिा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में कुल 13 भारत में हैं जिनमें पटना, ग्वालियर, रायपुर और अन्य हैं. सिर्फ प्रति घन मीटर 10 ग्राम का इजाफा फेफड़ों में कैंसर की आशंका को आठ फीसदी तक बढ़ा सकता है, कार्डियोपल्मोनरी बीमारियों से होने वाली मौतों की आशंका को छह फीसदी और सभी मौतों की आशंका को चार फीसदी बढ़ा सकता है. यह बात जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित आर्डेन पोप अध्ययन में सामने आई है जिसे लगातार 16 साल तक पांच लाख वयस्कों पर किया गया है.

भारत अपने ही वायु प्रदूषण मानकों को हासिल कर ले तो इसके आधे नागरिक जो महीन कणों के अस्वीकार्य स्तरों पर जी रहे हैं, उनकी जिंदगी 3.2 साल बढ़ जाएगी. यह बात शिकागो, हार्वर्ड और येल विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्रियों ने एक हालिया अध्ययन में बताई है.

चिकत्सिक तत्काल होने वाले नुक्सान जैसे कि किसी ट्रैफिक के चौराहे पर आंखों में पानी आने या गले की खराश वगैरह तथा दीर्घकालिक जानलेवा खतरों के बीच फर्क बरतते हैं. एम्स में पल्मनरी चिकत्सिा के प्रमुख डॉ. रणदीप गुलेरिया के मुताबिक, वायु प्रदूषण गंभीर बीमारियों की रफ्तार को बढ़ा देता है. ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज का एक अध्ययन 1990 से 2010 के बीच किया गया था, जिसमें मौत के 200 से ज्यादा कारणों की पड़ताल की गई थी. इसने पाया कि भारत में सालाना बाहरी सूक्ष्म कणों से होने वाली असमय मौतें 6,27,000 थीं. ये महीन कण जैसे ही आपके श्वास की नली को बाधित करते हैं और रक्त प्रवाह में घुस जाते हैं, इनसे आपके शरीर के कई अंग प्रभावित हो सकते हैं. यही नहीं, वातावरण का वायु प्रदूषण पुराने किस्म के अवरोधक पल्मोनरी रोग, श्वास की बीमारियां, दिल के रोग, सेरीब्रोवैस्कुलर रोग और ट्रैकिया व फेफड़े का कैंसर पैदा कर सकते हैं.

दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में वरिष्ठ पल्मनोलॉजस्टि डॉ. अरूप कुमार बसु कहते हैं, ''कई ऐसे अध्ययन हुए हैं जिनमें श्वास की बीमारियों और महीन कणों के बीच संबंधों को दर्शाया गया है. मसलन, बेंगलुरू के एक पेडियाट्रिक पल्मनोलॉजस्टि का एक विस्तृत पर्चा है जिसमें एक शहर में वाहनों के पंजीकरण और अस्पताल के ओपीडी में होने वाली भर्तियों के बीच के संबंध की पड़ताल की गई है.''

दुनिया में होने वाले वायु प्रदूषण संबंधी हर अध्ययन को सीधे भारत पर लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रदूषण के घटकों में फर्क होता है. जब हम मिश्रित हवा में सांस लेते हैं तो कई परिवर्तनीय कारक और तत्व होते हैं-इसी लिए प्रत्येक प्रदूषक तत्व से किसी रोग को जोड़ने के लिए काफी सतर्कतापूर्ण अध्ययन की जरूरत पड़ती है. कभी-कभार प्रदूषक तत्व मिलकर काम करते हैं. मसलन, धूम्रपान और वाहनों का उत्सर्जन मिलकर फेफड़ों के कैंसर की आशंका को कहीं ज्यादा बढ़ाएगा बजाए इसके कि आप सिर्फ धूम्रपान करते हों या अकेले वाहनों के उत्सर्जन से ग्रस्त हों.

इसके बावजूद बसु कहते हैं कि प्रदूषण और स्वास्थ्य के बीच का रिश्ता आंकड़ों में बाकायदा स्थापित किया जा चुका है. वे बताते हैं, ''ऐसे तमाम काम हुए हैं जो स्थापित करते हैं कि श्वास की नली की दीवारों की सुरक्षात्मक कोशिकाओं को प्रदूषण से क्या होता है.'' वे बताते हैं कि श्वसन तंत्र में बाल जैसे महीन रेशे होते हैं जिन्हें सीलिया कहा जाता है. सीलिया फेफड़ों से अशुद्धियों को दूर करने का काम करते हैं. डॉ. बसु कहते हैं, ''श्वसन तंत्र को साफ करने के लिए सीलियरी गतिविधि अहम होती है. प्रदूषण सीलिया को कम कर देता है, कभी-कभार खत्म कर देता है. फिर बलगम कम साफ होता है और जमता जाता है.''

एक स्वस्थ व्यक्ति औसतन 15 घन मीटर हवा रोजाना भीतर लेता है. यह एक कमरे के बराबर हवा है. इसे नाक और श्वास नली साफ करते हैं. वायु प्रदूषण का लंबा असर होने से या तो ज्यादा हवा भीतर लेने की फेफड़ों की क्षमता कम हो जाती है या फिर फेफड़ों की कोशिकाएं संक्रमण का शिकार हो जाती हैं, जिससे उनमें लचीलापन समाप्त हो जाता है. इसके बाद फेफड़ों की सुरक्षात्मक कोशिकाओं की पहली सतह यानी अल्वियोलर मैक्रोफेज में बदलाव आने लगते हैं और फेफड़ों में कमजोरी बढ़ने लगती है.
पश्चिमी देशों की तरह हमारे यहां वायु प्रदूषण पर दीर्घकालिक अध्ययन मौजूद नहीं हैं. स्वतंत्र शोध समूह अर्बन एमिशंस डॉट इन्फो के संस्थापक सरत गुट्टिकुंडा कहते हैं, ''अगर सत्तर के दशक से अब तक के टिश्यू कल्चर तक हमारी पहुंच होती तो हम जान पाते कि प्रदूषण ने हमारे साथ क्या किया है.''

डॉ. गुलेरिया कहते हैं, ''भारत में प्रदूषक तत्वों के अलग-अलग प्रभाव जानने के लिए हमें और ज्यादा महामारी संबंधी अध्ययनों की जरूरत होगी.'' वे कहते हैं कि प्रदूषित हवा के खतरों को स्थापित करने के लिए हमारे पास कहीं ज्यादा पर्याप्त साक्ष्य हैं. इसके समर्थन में वे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और कोलकाता के चितरंजन नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट के 2012 के अध्ययन का हवाला देते हैं जिसने पाया था कि दिल्ली के हर तीसरे बच्चे का फेफड़ा सामान्य से कम काम करता है. दिल्ली के बच्चों के थूक में लौह मिश्रित माइक्रोफेज की चार गुना उपस्थिति थी, जो पल्मोनरी हेमरेज का संकेत है.

दिल्ली और कोलकाता के निवासियों पर 2000 से 2006 के बीच शहरी हवा के सेहत पर असर के संबंध में एक अध्ययन हुआ था जिसमें स्कूली बच्चे और ग्रामीण क्षेत्रों से अलग-अलग उम्र और लिंग के लोग भी शामिल थे जहां वायु प्रदूषण की मात्रा कम है. सीपीसीबी और पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से हवा के आंकड़े लिए गए. इसमें पाया गया कि गांवों के 14.6 और 8 फीसदी के मुकाबले दल्लिी के 23 व 17 फीसदी बच्चों में क्रमश: ऊपरी (जमी हुई या बहती नाक, कफ, लाल आंखें, साइनसाइटिस) और निचले (पुरानी खांसी, छींक, छाती में दिक्कत) श्वास संबंधी लक्षण मौजूद थे.

माता-पिता के धूम्रपान और सामाजिक-आर्थिक दर्जे के मानकों को दरकिनार करके भी यह पाया गया कि दल्लिी के स्कूली बच्चों में अस्थमा और फेफड़ों की गड़बड़ी कहीं ज्यादा व्यापक और गंभीर थी. आज वायु प्रदूषण के संकट पर मीडिया में अक्सर चर्चा होती है. लंदन में 1952 के या लॉस एंजेलिस में 1943 के ग्रेट स्मॉग की तरह, जिसे उन्होंने रासायनिक युद्ध समझ लिया था, या फिर 2013 में बीजिंग के अपोकेलप्सि की तरह ही कोई नाटकीय घटना होती है तब सरकारें हरकत में आती हैं-और चूंकि पीएम2.5 और 2012 के कुहासे पर डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट आई है इसलिए इस बार इस समस्या को लेकर लोगों में कहीं ज्यादा जागरूकता देखने में आ रही है.

भारत में हालांकि स्वास्थ्य के लिए ज्यादा बड़ा खतरा घरेलू प्रदूषण का है जो खासकर ग्रामीण इलाकों में चूल्हों से होता है. यह बात ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज नामक अध्ययन कहता है. दल्लिी की टेरी यूनिवर्सिटी में पर्यावरण वज्ञिान और अभियांत्रिकी के प्रोफेसर सुरेश जैन कहते हैं, ''अगर ज्यादा सक्षम स्टोव बांटे भी जाते हैं तो उनके उपयोग पर निगरानी रखनी होगी. कभी-कभार धुआं तो कम होगा लेकिन ज्यादा सूक्ष्म कण मौजूद हो सकते हैं जो पीएम2.5 से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकते हैं.''
डिसपर्शन मॉडल दिखाते हैं कि सूक्ष्म कण अपने स्रोत से काफी दूर यात्रा करके दूर रहने वाले लोगों को भी प्रभावित कर सकते हैं.
वायु प्रदूषण की समस्या एक समान है लेकिन हर जगह इसका स्वरूप अलग है. सीपीसीबी के 2010 के एक अध्ययन में कई जगहों पर गंदी हवा के विभन्नि घटकों का खुलासा हुआ था-यह कारखानों और ईंट-भट्ठों से भी आ सकती है (अगर इन्हें शहर के बाहर भी लगाया गया तब भी हवा से प्रदूषित गैसें शहर पर आकर छा सकती हैं). यह गंदी हवा खेतों में डंठल को जलाए जाने और कचरे में लगाई जाने वाली आग या सड़क की धूल, डीजल जेनरेटरों, लगातार चल रहे नर्मिाण कार्य तथा वाहनों की बढ़ती संख्या वगैरह से भी पैदा होती है.

जिन नागरिकों को अपनी सेहत की चिंता है, वे सुरक्षात्मक उपाय अपनाते हुए प्योरिफायर और मास्क खरीद सकते हैं और यहां तक कि कम भीड़ के वक्त सफर करने को चुन सकते हैं, लेकिन असल मसला यह है कि हवा की गुणवत्ता में बदलाव लाने के लिए तो उच्चस्तरीय नीतिगत पहल और क्रियान्वयन की जरूरत होगी. दिल्ली के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद जब प्रदूषक उद्योगों को शहर के बाहर ले जाया गया था और सार्वजनिक यातायात को सीएनजी पर आश्रित कर दिया गया था तब कुछ समय तक यहां की हवा की गुणवत्ता में सुधार आया था लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या ने दोबारा वही हालात पैदा कर दिए हैं.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में पर्यावरण अधिवक्ता शिबानी घोष कहती हैं, ''वायु की गुणवत्ता का पैमाना हालांकि केंद्रीय स्तर पर तय है लेकिन प्रदूषण के स्तरों को लागू करवाने का अधिकतर बोझ राज्य प्रदूषण बोडारें के जम्मिे है.'' मसलन, केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड ईंधन के मानकों को तय नहीं कर सकता. पूर्ववर्ती ईंधन नीति के तहत जहां 33 शहर भारत 4 मानक को लागू कर रहे थे वहीं बाकी देश भारत 3 पर ही चल रहा था. सुरेश जैन कहते हैं कि उच्चस्तरीय डीजल उत्सर्जन वाले ट्रक तो वैसे भी देश भर में चलते हैं. इसके अलावा मिलावटी ईंधन भी प्रदूषण का एक अन्य स्रोत है. डीजल में जलने वाला एक तत्व बेंजीन मनुष्यों के लिए कार्सिनोजेन है, बावजूद इसके नीति और मूल्य के संदर्भ में लंबे समय से डीजल को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है. इसके उलट पश्चिमी देशों का अधिकतर हिस्सा स्वच्छतर और कहीं ज्यादा सक्षम प्रौद्योगिकियों जैसे यूरो 5 और यूरो 6 तक पहुंच चुका है.

नियमों में और भी कमियां हैं-भारत में सल्फेट्स को जरा भी नियंत्रित नहीं किया जाता, क्योंकि भारतीय कोयले में सल्फर का अंश कम है. बहरहाल, अब हमारे ऊर्जा संयंत्रों में प्रयुक्त कोयले में से अधिकांश कोयला आयातित है, और ये सल्फेट्स पानी और अन्य क्षुद्र तत्वों के साथ मिल कर पीएम2.5 निर्मित कर देते हैं. 

घोष कहती हैं कि समस्या यह है कि प्रदूषण संस्थागत ढांचे के आर-पार जाता है. ईंधन मानकों में पर्यावरण और वन मंत्रालय और भूतल परिवहन मंत्रालय शामिल हैं, ग्रामीण चूल्हों में सुधार करने के मसले पर ग्रामीण विकास मंत्रालय और पर्यावरण और वन मंत्रालय को तालमेल करना पड़ सकता है. अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के विपरीत, जो औद्योगिक उत्सर्जन, ईंधन मानक, अपशिष्ट निपटान और यहां तक कि सुरक्षित डिटर्जेंट तक पर संघीय समन्वय उपलब्ध कराती है, भारत में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास अकेले के दम पर स्वच्छ हवा के लिए व्यापक कार्रवाई लागू करने की क्षमताएं नहीं हैं, न ही वह किसी को इसके लिए निर्देश दे सकता है.

वायु प्रदूषण से गंभीरता से निबटने के लिए, आपको इसके एक-एक कण को समझने की जरूरत है. गुट्टीकुंडा कहते हैं कि इस संबंध में भारत अपने लक्ष्य से बहुत पीछे है. वे कहते हैं, ''दिल्ली का अध्ययन बहुत ज्यादा हुआ है, क्योंकि यहां हवा की गुणवत्ता की माप करने वाले मॉनिटर्स की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है.'' शहर में मात्र छह स्टेशन वास्तविक समय में निगरानी करने में सक्षम हैं. वे कहते हैं कि इसकी तुलना में बीजिंग ऐसे 35 निगरानी स्टेशन चला रहा है. तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक पूर्व अधिकारी का कहना है कि चेन्नै में आठ वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशन हैं, लेकिन इसे कम से कम 75 स्टेशनों की जरूरत है, क्योंकि 2011 में नए उपनगरीय क्षेत्रों को शामिल करने के बाद से शहर का वस्तिार हो चुका है. उत्सर्जनों की वास्तविक समय में सतत निगरानी न्यूनतम आवश्यकता है.

सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयर्नमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं, ''हमें प्रदूषण निगरानी की सटीकता और उसके दायरे में सुधार करने की जरूरत है. इसके आंकड़े जनता को उपलब्ध कराए जाने चाहिए, एक स्वास्थ्य सलाह के रूप में भी और प्रदूषण करने वालों पर दबाव बनाने के लिए भी.'' वे कहती हैं कि अन्य शहरों में, प्रदूषण स्तरों में वृद्धि की घटनाओं पर प्रदूषण आपातकालीन कार्रवाई की जाती है, जैसे अस्थायी रूप से कारें कम करना, स्कूलों को और औद्योगिक इकाइयों को बंद करना.

इस बीच, दिल्ली में प्रदूषण स्तर में वृद्धि की ऐसी पांच घटनाएं अकेले दिसंबर के दूसरे पखवाड़े में घट चुकी हैं, और जनता खुशी-खुशी उस खतरे से अनजान है, जिसमें वह रह रही है. लेकिन बात फिर वही है. शिकागो विश्वविद्यालय के ऊर्जा नीति संस्थान (ईपीआइसी) के दिल्ली स्थित कार्यकारी निदेशक अनंत सुदर्शन कहते हैं, ''केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का रंगों के कोड वाला वायु गुणवत्ता सूचकांक अगर अधिकांश दिनों तक लाल/खतरनाक जोन में रहता है, तो यह निरर्थक है.'' वे कहते हैं कि हमें भारत के शहरी क्षेत्रों में बेहतर निगरानी बुनियादी सुविधाओं की, और भारत भर में प्रदूषण के स्तर का अनुमान लगाने के लिए उपग्रह-आधारित मापन तकनीक की जरूरत है.

सार्वजनिक परिवहन को और ऊर्जा कुशल इमारतों को प्रोत्साहित करने के माध्यम से मांग के प्रबंधन के अलावा, हवा की गुणवत्ता में सुधार करने के निर्णय के लिए नीतियों की सहज समझ में बदलाव लाने की जरूरत है, ऐसी नीतियों की जो अनुपालन पर केंद्रित हों. घोष कहती हैं कि वायु (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1981 उतना ही कड़ा कानून है, जितना कोई और कानून हो सकता है. वास्तव में समस्या यह है कि शायद यह प्रभावी होने के लिहाज से ज्यादा ही सख्त हो, जिससे जवाबदेही की एक विषम प्रणाली पैदा हो जाती है, जो वित्तीय दंड वसूलने की बजाए अपराधीकरण कर देती है. यह-या तो पूरा या जरा भी नहीं-कस्मि की प्रणाली है, जो पर्यावरण के नुक्सान की भरपाई के लिए कुछ भी नहीं करती है, और उल्लंघन के प्रकारों में किसी तरह का भेद नहीं करती है. वे कहती हैं, ''हमारी प्रणाली में, प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को उल्लंघन की पहचान करनी होती है और मजिस्ट्रेट के समक्ष मामला दायर करना होता है. वे संयंत्रों को बिजली और पानी की आपूर्ति भी बंद कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसे कठोर कदमों के लगातार पड़ने वाले असर की चिंता करते हुए अक्सर ऐसा नहीं करते हैं. संसाधनों की कमी का सामना कर रहे इन निकायों के लिए सबूत जुटाने का बोझ भी बहुत अधिक हो जाता है, और यह मानने का कोई सबूत नहीं है कि ऐसी कठोर शक्तियां निवारक के रूप में कार्य करती हों.'' वायु अधिनियम में एक पंक्ति का बदलाव करके नागरिक उपायों की अनुमति देने से उद्योगों को ज्यादा समझदार ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है और अधिक लाभकारी बनाया जा सकता है.

गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में हाल ही में किए गए एक प्रायोगिक अध्ययन में उत्सर्जन के कारोबार के बाजार का एक नया प्रयोग किया गया, जिसमें लेनदेन सूक्ष्म कणों में होता था. लेकिन इस तथ्य के अतिरक्ति कि ऐसी बाजार आधारित प्रणालियों पर बहस की जानी होगी और उन्हें स्वीकार किया जाना होगा, ऐसी योजनाओं को व्यवहार संगत बनाने के लिए वायु अधिनियम में संशोधन करने की जरूरत होगी. हाल ही में शिकागो, हार्वर्ड और येल विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्रियों द्वारा किए गए अध्ययन में प्रदूषण फैलाने वाले पर दंड लगाने के सिद्धांत से हटकर नागरिक दंड के सिद्धांत पर बढ़ने की सिफारिश की गई है, ताकि उद्योगों और अन्य स्रोतों को उत्सर्जन कम करने के लिए प्रोत्साहन मिल सके. अपनी इस दलील के पक्ष में वे कोयला सेस को उद्धृत करते हैं, जो 2010 में 50 रुपए प्रति टन की मामूली दर के साथ शुरू किया गया था और अब 200 रुपए प्रति टन है. लेकिन इससे इसके इस्तेमाल में कितना फर्क पड़ा है, इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

इसमें दो राय नहीं कि भारत में बिजली उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की ही संभावना है. एक बढ़ती अर्थव्यवस्था में प्रदूषण का स्तर बढ़ना भी अपरिहार्य है. हाल के एक अध्ययन में गुट्टीकुंडा का आकलन है कि 2030 तक कोयले के उत्पादन और खपत में 300 प्रतिशत तक वृद्धि होने की संभावना है, और इस दौरान वायु उत्सर्जन कम-से-कम दोगुना हो जाएगा, इसी के साथ संबद्ध मृत्यु दर बढ़ने का अनुमान है.
 
सुदर्शन कहते हैं, ''लेकिन बिजली की विश्वसनीय आपूर्ति का विस्तार करना जरूरी है, और इससे डीजल जेनरेटरों की खपत घटेगी.'' वे कहते हैं कि इसी प्रकार उचित सार्वजनिक परिवहन मुहैया कराए बिना कारों की संख्या घटाना या भीड़ टैक्स लगाना और अत्यधिक पार्किंग शुल्क लागू में कटौती करना करना कठिन हो सकता है. लेकिन औद्योगिक उत्सर्जनों अपेक्षाकृत आसान काम है, और इसमें अब देर नहीं करना चाहिए. जैसा कि कई पर्यावरणविदों और अर्थशास्त्रियों की राय है, हमें वायु प्रदूषण के प्रति एक यथार्थवादी, बाजारोन्मुख दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, जो जीवन-शैली पर अंकुश लगाए बिना विकास की गति को बनाए रखे.

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