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क्या सीरिया को भी दूसरा इराक या लीबिया बनाकर छोड़ेगा अमेरिका?

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर में परमाणु बम गिराने वाला अमेरिका दुनिया भर में अपनी बादशाहत कायम रखने को किसी भी हद तक जाने को तैयार है. इसके लिए वह किसी भी देश पर मनगढ़ंत आरोप लगा देता है और हमला कर देता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप
राम कृष्ण
  • नई दिल्ली,
  • 11 अप्रैल 2017,
  • अपडेटेड 7:40 PM IST

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर में परमाणु बम गिराने वाला अमेरिका दुनिया भर में अपनी बादशाहत कायम रखने को किसी भी हद तक जाने को तैयार है. इसके लिए वह किसी भी देश पर मनगढ़ंत आरोप लगा देता है और हमला कर देता है. वह सीरिया से पहले इराक और लीबिया पर विनाशकारी हथियारों के जखीरा होने का आरोप लगाकर हमला कर चुका है. हालांकि बाद में जांच में अमेरिका के झूठ का पर्दाफाश हुआ, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं. इस रिपोर्ट के आने तक इराक और लीबिया तबाह हो चुके थे और कई लाख लोग अपनी जान गंवा चुके थे. मरने वालों में बच्चे और महिलाएं भी शामिल थे.

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अमेरिका ने इराक पर बेबुनियादी आरोप लगाया कि उसके पास बायोलॉजिकल हथियारों और केमिकल हथियारों का जखीरा है और फिर 2003 में हमला कर दिया गया. इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार कर लिया और दिसंबर 2006 में उनको फांसी पर लटका दिया गया. इसमें ब्रिटेन समेत अन्य देशों ने भी अमेरिका का साथ दिया. सद्दाम पर खूंखार आतंकी संगठन अलकायदा के साथ संबंध होने का भी आरोप लगा. हालिया ब्रिटेन की जस्टिस चिलकॉट की रिपोर्ट में इराक हमले की असलियत उजागर हुई है. इसमें स्पष्ट कहा गया कि ब्रिटेन झूठी खुफिया रिपोर्ट के आधार पर इराक हमले में शामिल हो गया.

दरअसल, खुफिया रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि इराक के पास बायोलॉजिकल एवं केमिकल हथियारों का जखीरा है. वह जल्द ही ब्रिटेन और अमेरिका पर हमला करने वाला है. हालांकि हकीकत यह थी कि इराक के पास ऐसे कोई हथियार नहीं थे. इसके अलावा लीबिया पर भी अमेरिका ने ऐसे ही आरोप लगाए थे और वहां के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी पर हवाई हमला किया, जिसमें वह घायल हो गया. इसके बाद नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल फोर्स के लड़ाकों ने गद्दाफी को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया और गद्दाफी जिंदगी की भीख मांगता रह गया.

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दुनिया का दादा बना रहना चाहता है अमेरिका
अमेरिका दुनिया का दादा देश बना रहना चाहता है. द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की बुरी तरह पराजय के बाद अमेरिका सबसे शक्तिशाली देश बनकर उभरा. हालांकि रूस उसको चुनौता देने के लिए अक्सर सामने आता रहा. इसको लेकर अमेरिका और रूस के बीच लंबे समय तक शीत युद्ध चला, लेकिन रूस के विघटन के बाद शीत युद्ध खत्म हो गया. अगर अफगानिस्तान की बात करें, तो यहां अमेरिका की मौजूदगी का मकसद चीन को घेरना है. उसने इराक, लीबिया और सीरिया पर हमले करके यह साबित कर दिया कि वह दुनिया के किसी भी देश पर अपनी इच्छाएं थोप सकता है. अब वह उत्तर कोरिया पर हमले करने की पूरी तैयारी में है. अमेरिका ने यूएन में भी साफ कहा कि अगर यूएन कार्रवाई नहीं किया, तो वह खुद ही कार्रवाई करेगा.

खाड़ी क्षेत्र में तेल असली वजह
खाड़ी क्षेत्र में कच्चे तेल के पर्याप्त भंडार हैं, जिसके चलते अमेरिका इस क्षेत्र के देशों में अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहता है. इराक पर हमले की भी यही वजह बताई जा रही है. अमेरिका ने इराक पर बायोलॉजिकल हथियार होने का आरोप लगाया था, लेकिन अमेरिका को वहां से किसी तरह के हथियार नहीं मिले. सर जॉन चिलकॉट युद्ध जांच समिति ने भी सद्दाम हुसैन के पास बायोलॉजिकल हथियार होने की बात को झूठा करार दिया था. विशेषज्ञों की माने तो खाड़ी देशों में अमेरिका के दखल की असली वजह कच्चे तेल पर नियंत्रण बनाए रखना है, क्योंकि दुनिया में सबसे ज्यादा पेट्रोलियम की खपत अमेरिका करता है.

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ट्रंप ने गद्दाफी और सद्दाम का किया था समर्थन
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अक्तूबर में चुनाव अभियान के दौरान सार्वजनिक रूप से कहा था कि अगर सद्दाम हुसैन और गद्दाफी जिंदा होते, तो दुनिया और बेहतर होती. अमेरिका ने ही सद्दाम और गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किया था और इनको मौत के घाट उतारा था. अमेरिका की रणनीति और रूस के टकराव की वजह से इराक, लीबिया और सीरिया जैसे खूबसूरत शहर तबाह हो गए. जिनके ऐतिहासिक स्थल पर्यटकों से गुलजार रहते थे, वहां मौत का मंजर नजर आ रहा है.

वैश्विक विवादों सुलझाने की नहीं होती सकारात्मक पहल
संयुक्त राष्ट्र में वैश्विक विवादों को सुलझाने के लिए कोई ठोस और सकारात्मक पहल नहीं होती है. 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और रूस ने वैश्विक विवाद को सुलझाने के लिए कभी सकारात्मक पहल नहीं की. सुरक्षा परिषद जुबानी जंग का अखाड़ा बना हुआ है, जहां इन पांच विश्व शक्तियों का दबदबा कायम है. अमेरिका रूस की नीतियों को विरोध करता है, तो रूस अमेरिका की. इन देशों को वीटो पावर मिला हुआ है, जिसके चलते किसी एक की असहमति पर कोई भी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ा सकती है. सीरिया को लेकर भी दोनों देश दो फाड़ हैं. अगर आप नजर डालें, तो चीन के अड़ियल रुख के चलते जैश-ए-मोहम्मद सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची में शामिल कराने की भारत की कोशिशों नाकाम हो रही हैं. इतना ही नहीं, दूसरे देशों में हमले के बाद भी कोई नई पहल नहीं हुई.

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