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यूपी में क्या है अमित शाह की रणनीति

अमित शाह ने त्रिस्तरीय रणनीति के साथ लडऩे को कसी कमर, पर बिहार की तरह यूपी की राह भी कठिन.

मोदी सरकार के दो साल पूरा होने पर पश्चिमी यूपी के सहारनपुर में आयोजित बीजेपी की रैली मोदी सरकार के दो साल पूरा होने पर पश्चिमी यूपी के सहारनपुर में आयोजित बीजेपी की रैली
संतोष कुमार
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  • 05 जुलाई 2016,
  • अपडेटेड 4:53 PM IST

असम चुनाव के नतीजे वाले दिन 19 मई को बीजेपी जश्न में डूबी थी, लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की निगाह अर्जुन की तरह मछली की आंख पर टिकी थी. जेहन में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव था. और देर शाम उन्होंने फैसला ले लिया. फौरन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को फरमान सुनाया गया कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में होगी. यूपी को लेकर शाह की छटपटाहट का ही नमूना है कि वे अक्सर अपने सहयोगियों से कहते हैं, ''2019 जीतना है तो यूपी जीतना आवश्यक है." उत्तर प्रदेश की अहमियत शाह की साख से जुड़ी है क्योंकि तमाम विवादास्पद पृष्ठभूमि के बावजूद बीजेपी की शीर्ष कुर्सी तक पहुंचने में यूपी का सबसे बड़ा योगदान है. ऐसे में बीजेपी अगर यूपी का किला फतह नहीं कर पाती है तो एक कुशल रणनीतिकार के तौर पर उभरी शाह की छवि भरभरा कर ढह जाएगी. शायद तभी जनवरी में जब शाह की दूसरी बार ताजपोशी की चर्चा चल रही थी, तो बीजेपी की यूपी इकाई की ओर से संगठन का चुनाव कराने के अनुरोध पर उन्होंने कहा था, ''पहले मेरे अध्यक्ष पद का चुनाव हो जाने दो, फिर यूपी के बारे में सोचूंगा." शाह को करीब से जानने वाले एक रणनीतिकार कहते हैं, ''यूपी को लेकर उनके दिमाग में एक अलग खाका है जिसे वे मूर्त रूप देने से पहले शायद ही किसी से साझा करना पसंद करें."

लेकिन यूपी का महत्व बीजेपी की मोदी-शाह की जोड़ी के लिए कितना अहम है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार के एक साल पूरा होने पर यूपी के मथुरा में तो दूसरा साल पूरा होने पर सहारनपुर में रैली की गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी किसान फसल बीमा योजना की शुरुआत बरेली से की गई तो उज्ज्वला योजना की लॉचिंन्ग के लिए पूर्वांचल के बलिया जिले को चुना गया. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लिए भी इलाहाबाद का चयन किया गया जो बीजेपी की राजनीति के लिहाज से अत्यंत ही पिछड़ा क्षेत्र रहा है. इसके पीछे बीजेपी की रणनीति अगले तीन महीने के भीतर यूपी में भगवा माहौल बनाने की है. लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी को बिहार चुनाव ने एहसास करा दिया है कि माहौल बनाना और जमीनी स्तर पर उसे वोटों में तब्दील करा पाना आसान नहीं है. लिहाजा पार्टी ने खुद को मुकाबले में बनाए रखने और चुनाव के बाद के समीकरण को देखते हुए कारगर रणनीति पर काम तेज कर दिया है.

पार्टी क्यों चाहती है सपा से मुकाबला
बिहार चुनाव के नतीजों के बाद से ही यूपी में बीएसपी के पक्ष में माहौल बनने लगा था. लेकिन बीजेपी चाहती है कि उसकी लड़ाई सपा से होती हुई नजर आए. शाह खुद सार्वजनिक मंचों से लगातार बीएसपी को खारिज कर सपा से लड़ाई की बात कर रहे हैं. अंदरूनी बैठकों में भी शाह कहते हैं कि बीजेपी का बीएसपी से मुकाबला नहीं है क्योंकि लोकसभा में उसको एक भी सीट नहीं मिली थी. हालांकि ऐसा कहते हुए वे मायावती को मिले 20 फीसदी वोटों के तथ्य को अनदेखा करते हैं. दरअसल, इसके पीछे एक रणनीति हैः बीजेपी ऐसा माहौल बनाना चाहती है जिससे लोगों को लगे कि बीएसपी लड़ाई में नहीं है ताकि उसका सीधा फायदा पार्टी को मिले. वजह? यूपी में अक्सर यह देखने को मिला है कि सपा के कमजोर होने का फायदा बीएसपी को मिलता है.

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता इस रणनीति के बारे में कुछ इस तरह खुलासा करते हैं, ''सपा सत्तारूढ़ पार्टी है, उससे मुकाबला होने की स्थिति में ही ध्रुवीकरण हो सकता है और सबसे अहम बात, चुनाव बाद त्रिशंकु विधानसभा बनने पर बीजेपी का बीएसपी से गठबंधन हो सकता है, सपा के साथ ऐसा संभव नहीं." हालांकि बीजेपी के एक अन्य रणनीतिकार का मानना है कि अगर मुसलमान बीएसपी की ओर नहीं गया तो पार्टी का मुकाबला सपा से होना तय है.

बीजेपी की त्रिस्तरीय रणनीति
बीजेपी उत्तर प्रदेश को छह जोन में बांटकर चुनावी रणनीति पर काम कर रही है. लेकिन उसकी रणनीति त्रिस्तरीय है. पूर्वांचल में जहां बीजेपी बेहद कमजोर स्थिति में है वहां पार्टी पूरी तरह से जाति समीकरण को साध रही है तो पश्चिमी यूपी में ध्रुवीकरण उसका मुख्य हथियार होगा. विकास का मुद्दा यूपी के सबसे पिछड़े क्षेत्र बुंदेलखंड में आजमाया जाएगा. इसमें सबसे पहले पार्टी केंद्र की मोदी सरकार के कामकाज को इस तरह से प्रचारित करने की कोशिश करेगी, मानो देश में बदलाव दिख रहा है लेकिन यूपी में सपा सरकार की वजह से केंद्र की योजनाओं का लाभ जनता को नहीं मिल रहा. इसके अलावा पूर्ण परिवर्तन के संदेश के तहत पार्टी पिछले 14-15 साल के सपा-बीएसपी राज में भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और सांप्रदायिकता को तथ्यों के साथ रखने की दिशा में काम कर रही है.

साथ ही, पार्टी ध्रुवीकरण से जुड़े किसी भी मुद्दे को छोडऩे के मूड में नहीं है. इसलिए पार्टी ने पहले कैराना से कथित हिंदू पलायन का मुद्दा उछाला तो बाद में उसे कानून-व्यवस्था से जोड़कर प्रदेश सरकार की विफलता से जोड़ दिया. बीजेपी चाहती है कि मुकाबला सपा बनाम बीजेपी हो ताकि सपा की दबंग और अपराधियों को प्रश्रय देने वाली उसकी इमेज का नैसर्गिक लाभ उसे मिले. इसलिए पार्टी ने मथुरा और कैराना की घटना को पूरे प्रदेश में पुरजोर ढंग से उछाल दिया है. अवैध कब्जे को लेकर पार्टी ने अलग ईमेल आइडी बना दी जिस पर पार्टी को अब तक 1,200 से ज्यादा शिकायतें मिल चुकी हैं. इन जगहों पर बीजेपी आरपार के संघर्ष की रणनीति बना रही है और यूपी में ''खून से रंगा मथुरा, सो रही सरकार्य के नारों के साथ होर्डिंग्स-पोस्टर लगा दिए गए हैं.

बिछने लगी ध्रुवीकरण की बिसात

बीजेपी जनता की उस नब्ज को पकडऩे की कोशिश कर रही है जिसमें कथित तौर पर सपा सरकार के समय सिर्फ मुसलमानों और यादवों की सुनवाई होने की भावना बलवती है. बीजेपी के एक वरिष्ठ रणनीतिकार के शब्दों में, ''चुनाव में जब तक सीधा ध्रुवीकरण नहीं होगा बीजेपी अपना दम नहीं दिखा पाएगी." लेकिन बीजेपी का ध्रुवीकरण कार्ड बिहार चुनाव में धराशायी हो चुका है. इसलिए पार्टी इस मुद्दे को लेकर थोड़ी असहज भी है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता याद दिलाते हैं, ''अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद 1993 में चुनाव हुए थे तब कल्याण सिंह उस पूरे घटनाक्रम के प्रतीक थे लेकिन उस चुनाव में पार्टी 221 सीटों से घटकर 177 सीटों पर आ गई थी." इस नेता का मानना है कि जब ध्रुवीकरण के चरम पर भी पार्टी चुनाव न जीत सकी तो अब ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता का सपना देखना गलतफहमी होगी. हालांकि 27 जून को बाराबंकी में अवध क्षेत्र के बूथ कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में शाह ने कैराना को हिंदू पलायन से जोड़ा तो सपा सरकार की लैपटॉप योजना, नौकरियों में एक ही समुदाय को तरजीह देने का मुद्दा भी उठाया. उन्होंने दो टूक कहा, ''सब कुछ एक ही संप्रदाय को मिलेगा तो बाकी लोग कहां जाएंगे?" बीजेपी इस मुद्दे पर जुलाई में राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई का भी इंतजार कर रही है.

मुख्यमंत्री के चेहरों पर महाभारत
यूपी में 14 साल का सत्ता का बनवास खत्म  करने का मंसूबा पाले बैठी बीजेपी की मुश्किल उसके खेवनहार को लेकर ही है. इतने लंबे समय तक राज्य की सत्ता से महरूम पार्टी में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं जो माया-मुलायम के सामने खड़ा हो सके. पार्टी की उम्मीद जिन दो पुराने चेहरों पर जाकर टिकती है उनमें से कल्याण सिंह राज्यपाल वाली कतार में जा चुके हैं तो राजनाथ सिंह केंद्रीय गृह मंत्री हैं. राजनाथ को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने को लेकर चर्चा खूब है पर पार्टी में न तो कोई उसकी पुष्टि करने को तैयार है और न ही खारिज करने को. हालांकि इस बारे में अंतिम फैसला संघ और प्रधानमंत्री मोदी के स्तर पर ही होगा.

लेकिन राजनाथ को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का मामला अत्यंत संवेदनशील होगा क्योंकि इससे केंद्रीय राजनीति में नकारात्मक संदेश जा सकता है. अगर उन्हें यूपी भेजा जाता है तो मोदी-शाहकी जोड़ी पर वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने का आरोप चस्पां हो सकता है क्योंकि वे 16 साल पहले सीएम रह चुके हैं और बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष दो लोकसभा चुनावों का संचालन कर चुके हैं. लेकिन उन्हें भेजने से प्रदेश में पार्टी की गंभीरता दिखेगी और माया-मुलायम के मुकाबले मजबूत चेहरे का संकट भी खत्म हो जाएगा. पर सूत्रों के मुताबिक, राजनाथ अब प्रदेश की राजनीति में जाने को बिल्कुल इच्छुक नहीं क्योंकि हारने पर सारा ठीकरा उनके सिर फूटेगा और यूपी के रास्ते बीजेपी की शीर्ष सत्ता पर विराजमान मोदी-शाह जिम्मेदारी से बच जाएंगे.

हालांकि राजनाथ के अलावा पार्टी की ध्रुवीकरण की राजनीति में सबसे मुफीद चेहरा गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ भी हैं, जिनको लेकर पार्टी में गंभीरता से चर्चा हो रही है. वरुण गांधी और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी, जो सामाजिक समीकरण के खांचे में फिट नहीं बैठते, खुद ही अपने लिए लामबंदी करते दिख रहे हैं. हालांकि यूपी से जुड़े करीब एक दर्जन केंद्रीय मंत्रियों में ज्यादातार आयातित चेहरे हैं जो अब यूपी का नेतृत्व कर रहे हैं. ऐसे में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि प्रदेश का नेतृत्व मूल यूपी वाला करेगा या फिर कोई बाहरी. पार्टी अगर कोई चेहरा प्रोजेक्ट नहीं करती है तो उसकी सबसे बड़ी चुनौती प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर दांव खेलना होगा. बिहार में मोदी की धुआंधार रैली के बावजूद नतीजों में पार्टी का औंधे मुंह गिरना उनकी साख पर सवाल उठा गया, जिसके बाद पार्टी ने असम में स्थानीय चेहरे पर सफल दांव खेला. सूत्रों की मानें तो यूपी में प्रधानमंत्री की रैलियां बिहार की तरह नहीं होंगी.

सोशल इंजीनियरिंग का गुलदस्ता
ध्रुवीकरण और नेतृत्व को लेकर ऊहापोह में फंसी बीजेपी ने सामाजिक समीकरण और गठबंधन का बड़ा गुलदस्ता बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है. प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति में पार्टी ने पूर्वांचल के ओबीसी नेता केशव प्रसाद मौर्य पर दांव खेला, लेकिन अब तक के अनुभव में वह कार्ड बहुत मुफीद साबित नहीं हुआ है. पार्टी ने जिस तरह ओबीसी-दलित पर जोर दिया, उससे सवर्णों में जबरदस्त नाराजगी ने पार्टी की चिंता बढ़ा दी थी. लिहाजा पार्टी ने मुसलमान चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी को झारखंड से राज्यसभा भेजकर प्रतीकात्मक ब्राह्मण चेहरे शिव प्रताप शुक्ल को राज्यसभा सांसद बनाया. अब पार्टी अगर सीएम प्रोजेक्ट करती है तो वह भी सवर्ण हो सकता है. सोशल इंजीनियरिंग का गुलदस्ता खुद शाह ने तैयार किया है, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में बतौर प्रभारी महासचिव 20 फीसदी मुस्लिम वोटों को छोड़कर सवर्ण, पिछड़ा और दलितों के 80 फीसदी वोट को टारगेट किया था. और एनडीए ने मोदी लहर में 80 में से 73 सीटें जीती थीं.

हालांकि इस बार बीजेपी ने सामाजिक समीकरण में भी माइक्रोमैनेजमेंट किया है. पार्टी 20 फीसदी मुस्लिम वोट के अलावा करीब 10 फीसदी यादव और 10-11 फीसदी जाटव वोटों को छोड़कर दलित-पिछड़ों के बाकी वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने में जुट गई है. ओबीसी के कुर्मी वोट बैंक में आधार रखने वाले अपना दल के साथ बीजेपी का गठबंधन पहले से ही है और अब पार्टी राजभर समेत करीब दर्जन भर छोटी पार्टियों के साथ संपर्क में है. इनमें से ज्यादातर को पार्टी विलय का प्रस्ताव दे रही है और विलय से जिसका वोट हस्तांतरण नहीं होगा उसके साथ गठबंधन होगा. दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए पार्टी ने बौद्ध भिक्षुओं को आगे कर धम्म चेतना यात्रा शुरू की है जो बौद्ध विहारों में जाकर बीजेपी के लिए वोट मांग रहे हैं. बीजेपी ने अपने सभी छह जोन में क्षेत्रीय अध्यक्षों की नियुक्ति से लेकर निचले स्तर तक की टीम में सामाजिक समीकरण का खास ध्यान रखा है. इसी समीकरण के लिहाज से सभी सीटों पर 5-6 नामों का पैनल भी तैयार कर लिया है. इसी रणनीति के तहत एक बूथ, दस यूथ फॉर्मूले में भी जाति समीकरण को ध्यान रखा गया है और आने वाले समय में जातिगत सम्मेलनों का सिलसिला तेज किया जाएगा.

संभावित मंत्रिमंडल फेरबदल मंा भी इस समीकरण की झलक दिखेगी. इसमें अनुप्रिया पटेल, योगी आदित्यनाथ, राजवीर सिंह, कृष्णा राज और कौशल किशोर जैसे नाम शामिल हैं. लेकिन बीजेपी की चिंता इस बात को लेकर बढ़ गई है कि सपा का कांग्रेस के साथ कहीं अंदरूनी समझौता हो जाता है और आरएलडी उसका हिस्सा बन जाती है तो मुसलमान मतदाताओं को स्पष्ट विकल्प दिखेगा. इतना ही नहीं, सपा की दबंगई वाली छवि के विपरीत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की निजी छवि बाहुबली या दबंग की नहीं है. ऐसे में चुनाव व्यक्तित्व पर होता है तो अखिलेश बीजेपी की बड़ी चुनौती बनकर उभरेंगे.

संगठनात्मक मजबूती मूलमंत्र

''बूथ जीता, चुनाव जीता" शाह का पुराना मंत्र है. यूपी में करीब 1.40 लाख बूथ हैं जिनमें से बीजेपी ने 1.10 लाख बूथ तक संगठन दुरुस्त करने का काम पूरा कर लिया है और अब क्षेत्रवार बूथ सम्मेलनों को खुद शाह संबोधित कर रहे हैं. उसके बाद विधानसभावार सम्मेलन होंगे. बीजेपी का दावा है कि यूपी में उसके सदस्यों की संख्या 2 करोड़ के पार है, जिनमें से 1.40 करोड़ के नाम-पते सहित रिकॉर्ड पार्टी के पास हैं. शाह यूपी चुनाव को लोकसभा चुनाव से आसान मानते हैं. इसकी वजह यह है कि लोकसभा के वक्त पार्टी की 10 सांसद और 32 फीसदी बूथ तक पहुंच थी जो अब 73 सांसद और 87 फीसदी बूथ तक हो चुकी है. सांसदों को भी अब महीने में 10 दिन संगठन के कार्यक्रम के हिसाब से प्रवास करने के निर्देश दिए गए हैं. शाह ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी के 21 दिन के भीतर मंडल स्तर तक की कार्यकारिणी संपन्न कराने का खाका बनाकर बूथ तक तंत्र को सक्रिय बना दिया है.

जाहिर है कि जिस यूपी ने शाह का राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर राज्यारोहण किया, वही अब रणनीतिक कुशलता का इम्तिहान लेगा. इतना ही नहीं, यह चुनाव मोदी सरकार के कामकाज की भी अग्निपरीक्षा साबित होगा.

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