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राष्ट्रीय पशु के काले कारोबार की हकीकत

एक बाघ की क्या कीमत हो सकती है? जंगल के राजा का शिकार करने या उसे बचाने की समूची अर्थव्यवस्था इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमती है जिसमें बाघों का बचना मुश्किल है. गार्ड की हत्या के इल्जाम में कैद हुए टाइगर टी24 की कहानी ने राष्ट्रीय पशु के काले कारोबार को उजागर किया है.

दमयंती दत्ता
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  • 01 जून 2015,
  • अपडेटेड 7:04 PM IST

घने वन में इकलौती पीली सी कोठरी दिखाई दे रही है. उसके दोनों ओर दो छोटे-छोटे मंदिर हैं. सिर पर पहाड़ी पीपल के ऊंचे दरख्त तने हुए हैं जिनसे छन-छनकर आती सूरज की किरणें नित नई आकृतियां गढ़ रही हैं. ऊपर नीला आकाश चमक रहा है. यहीं वनरक्षक राकेश कुमार रहते हैं, बिल्कुल अकेले. जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय अभयारण्य की चौहद्दी पर स्थित बिजनौर के ये जंगल नरभक्षियों और शिकारियों के लिए कुख्यात हैं. यहां सैलानी इसी डर से नहीं आते. कांटेदार बाड़ मरम्मत की बाट जोह रही है जिसे पार करके कभी-कभी बाघ गन्ने के खेतों में घुस आते हैं जबकि गांववालों और गैर-कानूनी शिकारियों को भी जंगलों में घुसने का मौका मिल जाता है. राकेश कुमार को अपने अकेलेपन से, इस खतरे से या फिर आधी रात अपनी खिड़की से बाहर चमकती एक जोड़ी आंखों से डर नहीं लगता. उनका काम तो बस दो पैरों वाले जीवों पर निगरानी रखना है-वे बाघों को इंसानों से बचाने का काम करते हैं.   

इंसानी खतरा
आदमी ने हमेशा बाघों की कीमत समझी है. कभी उसे देवी की सवारी का दर्जा दिया है, कभी बेशकीमती वरदान, कभी राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक माना है तो कभी कुदरती खाद्य शृंखला के शीर्ष पर स्थित परभक्षी की संज्ञा दी है. हालांकि इन तमाम मान्यताओं में से एक भी बाघों को उन शिकारियों से बचाने में मददगार नहीं हुआ है जो पशु अंगों के अरबों डॉलर वाले वैश्विक कारोबार के लिए इनका सफाया करते रहे हैं. जहां कहीं संरक्षण के चलते बाघों की संख्या में इजाफा हुआ, वहां इंसानों के साथ इनकी होने वाली जंग को भी नहीं रोका जा सका है. इसी ऊहापोह से एक नई समझदारी विकसित हुई है कि बाघों को बचाने का आर्थिक महत्व हो सकता है, बशर्ते भारत इस दिशा में सही कदम उठाए. इस अर्थव्यवस्था में कई तरह के हितधारकों की आर्थिक गतिविधियां कई स्तरों पर जुड़ी हुई हो सकती हैं. इसमें सरकार से लेकर सत्कार उद्योग, सैलानी से लेकर ग्रामीण और शिकारियों से लेकर नेता सब के सब शामिल हैं.

मोर्चे पर डटे
बाघों की अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर राकेश कुमार जैसे लोग हैं जो उन्हें बचाने में जुटे हैं. ऐसे देश में जहां वन अधिकारी लगातार जानवरों और शिकारियों का शिकार बनते रहे हैं, ऐसे लोग अदृश्य नायक की तरह हैं. इंटरनेशनल रेंजर्स फेडरेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2012 से 2014 के बीच 72 से ज्यादा वनरक्षकों की मौत हुई है जिसकी तुलना में एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में यह संख्या 10 से नीचे है. वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी के निदेशक के. उल्लास कारंत कहते हैं, “वन्यजीवों को बचाने के चक्कर में हजारों वन अधिकारियों पर हमले होते हैं और उनकी जान ले ली जाती है.” ऐसे में राकेश कुमार के लिए एक बाघ का मोल क्या है? वे कहते हैं, “मेरी जिंदगी के बीस साल.” मुट्ठी भर वन प्रहरियों, एक मोटरसाइकिल, .312 बोर की एक पुरानी राइफल और बांस के डंडों के सहारे वे अपने परिवार से दूर यहां मामूली-सी तनख्वाह पर डटे हुए हैं जो दो दशकों में घिसट-घिसट कर 19,000 रु. प्रति माह तक पहुंची है.

क्या जिंदगी की कोई कीमत तय की जा सकती है? बाघों को बचाने की अर्थव्यवस्था बिल्कुल इसी सवाल के इर्दगिर्द घूमती है. सबसे बड़ा लेकिन बुनियादी पैमाना यह है कि मरा हुआ बाघ अंतरराष्ट्रीय अवैध बाजार में कितनी कीमत दिलवा सकता है. स्थानीय अपराधियों से चीन तक वाया नेपाल और तिब्बत जो काला तंत्र इस काम में लगा हुआ है, उसके मुताबिक देखें तो एक मरे हुए बाघ की कीमत 5000 डॉलर से 70,000 डॉलर के बीच कुछ भी हो सकती है (देखें ग्राफिक). भारत अगर इन्हें बचा ले गया, तो बाघ देखने की इच्छा पाले हुए सैलानियों से उसे भारी लाभ हो सकता है. बाघों को बचाने के लिए जिम्मेदार पर्यटन की वकालत करने वाले एक अंतरराष्ट्रीय अभियान ट्रैवल ऑपरेटर्स फॉर टाइगर्स (टीओएफटी) की मानें तो भारत के कुछ हिस्सों में प्राकृतिक पर्यटन 25 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की एक नई रिपोर्ट “इकोनॉमिक वैलुएशन ऑफ  टाइगर रिजर्व” इन इंडिया 2015” कहती है कि कुल 47 टाइगर रिजर्व में सिर्फ छह में ही सालाना डेढ़ करोड़ से ज्यादा की कमाई होती है. इनमें शीर्ष पर कॉर्बेट अभयारण्य है जहां करीब 340 बाघ हैं. इसमें विदेशी मुद्रा की आमद को भी जोड़ लें क्योंकि केंद्रीय पर्यटन मंत्री महेश शर्मा बताते हैं कि सिर्फ बाघ देखने आने वाले विदेशी सैलानियों से भारत को एक अरब डॉलर की कमाई हुई है.

मूल्य शृंखला
बाघों को बचाने की अर्थव्यवस्था से ही बाघ की कीमत तय करने के दूसरे तरीके निकल कर आते हैं. टीओएफटी की रिपोर्ट की मानें तो पर्याप्त सैलानियों की पहुंच वाले किसी अभयारण्य में एक जिंदा बाघ की कीमत अनुमानतः 7,50,000 डॉलर सालाना है. वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी द्वारा किए गए एक दूसरे अध्ययन (पीएलओस बायोलॉजी, 2010) का अनुमान है कि बाघों को बचाने की लागत सालाना 10,000 डॉलर प्रति बाघ है. यह दुनिया भर में 42 अहम स्थानों पर बाघों की आबादी को निगरानी में रखने और बचाने की लागत पर आधारित है, जिनमें दस को छोड़कर बाकी सारे स्थान भारत में हैं.

  प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व निदेशक और एनटीसीए के सदस्य पी.के. सेन कहते हैं, “मुझे एक अकेले बाघ की कीमत से कोई मतलब नहीं है. यह काम शिकारियों का है.” वे कहते हैं, “मेरे लिए बाघों को मारना पारिस्थितिक तंत्र को नष्ट करने जैसा है. इसका मतलब यह है कि आप कई दूसरे प्राणियों और पौधों को नष्ट कर रहे हैं. क्या इसकी कीमत लगाई जा सकती है?” वे समझाते हैं कि कुदरती खाद्य शृंखला में बाघ हवा, पानी और जंगलों को संरक्षित करने में अहम स्थान रखता है, “मैं तो यह कहूंगा कि एक मरा हुआ बाघ 20 एकड़ बंजर जंगल के बराबर है. मेरे लिए बाघ का यही मतलब है.”

नापाक गठजोड़
याद करें कि 2012 में 40 लाख रु. की सुपारी के बारे में एक खबर आई थी. उस वक्त महाराष्ट्र में वन संरक्षक रहे ए.के. निगम बताते हैं, “शिकारियों को यह सुपारी मध्य प्रदेश के एक शिकारी कबीले ने 25 बाघों को मारने के लिए दी थी.” इसके बाद निगम की टीम विदर्भ के जंगलों को छानने में लग गई. उसने पानी के स्रोतों पर निगरानी रखनी शुरू की और आखिकार आठ व्यक्तियों को धर दबोचा था. किसने उन्हें मारने का आदेश दिया था, यह बात अब तक रहस्य है. नागपुर में वन विकास निगम के प्रमुख कहते हैं, “बाघों को फंसाकर मारने वाले ग्रामीण शिकारियों को बहुत कम भुगतान किया जाता है. यह 1000 रु. से 5000 रु. के बीच होता है.”

भारतीय वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी (डब्ल्यूपीएसआइ) के अधिवक्ता अभिलाष भास्कर कहते हैं, “अधिकतर शिकार की घटनाएं शिकारियों, व्यापारियों और तस्करों के बड़े और संगठित तंत्र का हिस्सा होती हैं. इन पर प्रभावशाली कारोबारियों का नियंत्रण होता है जो बड़े शहरों में बैठे होते हैं और जिनका इस कारोबार से कोई सीधा नाता नहीं होता.” वे बताते हैं कि बाघ तस्करों पर सूचनाएं जुटाने और उन्हें पकड़ने में सरकार को मदद करने के लिए डब्ल्यूपीएसआइ उन फील्ड अन्वेषकों और मुखबिरों का इस्तेमाल करती है जो अदालतों के निचले दर्जे के कर्मचारियों, वन अधिकारियों और राज्यों की पुलिस के साथ रिश्ते रखते हों.

इसका एक उदाहरण जून 2014 में पकड़े गए बिजनौर के अंतरराष्ट्रीय शिकारी भीमा बावरिया का है जिसकी कम-से-कम 30 बाघों की हत्या के सिलसिले में तलाश थी. 2002 और 2005 में हालांकि उसे रंगे हाथों दो बार पकड़ा गया था जब उसके पास से बाघ की त्वचा और अंग बरामद हुए, लेकिन हर बार वह कैद से बच निकलने में कामयाब रहा. सवाल है कि करीब एक दशक तक इस शख्स को किसने पनाह दी? स्थानीय पत्रकार असीम द्विवेदी कहते हैं, “उसके संपर्क नेताओं से लेकर पुलिस और वन अधिकारियों तक थे. 2014 में सरकार बदलने पर उसे पहले मिला संरक्षण खत्म हो गया.”

बेपरवाह सरकार

इसमें राज्य की भूमिका क्या रही है? इसके लिए दो रिपोर्टों का उदाहरण लेते हैं. पहली रिपोर्ट जनवरी 2015 की है जिसमें कहा गया कि पिछले चार साल में बाघों की संख्या 30 फीसदी बढ़ी है-2011 के 1,411 से अब 2,226 है. दूसरी रिपोर्ट एनटीसीए और भारतीय वन्यजीव संस्थान की है (मॉनीटिरिंग टाइगर्स, को-प्रिडेटर्स, प्रे ऐंड देयर हैबिटेट्स, 2013) जो कहती है कि 2006 से 2010 के बीच देश में बाघों के रहने की जगह 12,000 वर्ग किलोमीटर घट गई है. यह आकार गोवा के क्षेत्रफल का तीन गुना है.

कारंत कहते हैं, “संरक्षण के प्रयास काम तो कर रहे हैं.” इसके बावजूद समस्या बड़ी इसलिए है क्योंकि बाघों के रहने की जगह और उनके शिकार करने वाले जानवरों की संख्या घट गई है जिसके चलते वे भोजन की तलाश में या फिर दूसरे पशुओं के साथ इलाके की लड़ाई के क्रम में बाहर निकल आ रहे हैं. बेंगलुरु के वाइल्ड लाइफ एसओएस के सह-संस्थापक कार्तिक सत्यनारायण कहते हैं, “बाघों का अपने इलाके में टहलना-घूमना तो स्वाभाविक है.” वे बताते हैं कि भोजन, इंसानी आवाज, तेज ध्वनि, मवेशी, इनमें से कुछ भी किसी बाघ को आकर्षित कर सकते हैं या डरा सकते हैं.

इसके बावजूद 2015-16 के केंद्रीय बजट में प्रोजेक्ट टाइगर के लिए आवंटित रकम में 15 फीसदी की कटौती कर दी गई है. यह राशि पहले 161 करोड़ रु. थी जिसे 136.46 करोड़ रु. कर दिया गया है. वन्यजीव और संरक्षित क्षेत्रों के लिए आवंटित धनराशि भी 78 करोड़ रु. से 61 करोड़ रु. कर दी गई है. राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की सदस्य और लेखक प्रेरणा सिंह बिंद्रा कहती हैं कि इसका बाघों के संरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि 40 फीसदी बाघ अभयारण्यों तक सीमित नहीं हैं. सरकार को उन गलियारों की कोई परवाह नहीं है जो अभयारण्यों को आपस में जोड़ते हैं और बाघों को आवाजाही की सुविधा देते हैं. वे कहती हैं, “इनके बगैर बाघों की आबादी अलग-थलग पड़ जाएगी, पीढ़ियों के दौरान इनमें आनुवंशिक बदलाव आ जाएंगे और ये लुप्त होने के कगार पर पहुंच जाएंगे.” कान्हा-पेंच बाघ अभयारण्य को नगजीरा-तदोबा रिजर्व से जोड़ने वाले गलियारे में राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण चार लेन का राजमार्ग बनाने में जुटा है जबकि इसके खिलाफ  बाघ संरक्षकों ने कई बार गुहार लगाई है कि ऐसा न किया जाए.

बाघ प्रेमी सैलानी
कॉर्बेट नेशनल पार्क के इर्दगिर्द मौजूद 100 से ज्यादा होटल और रिजॉर्ट सैलानियों के लिए इंटरनेट पर जबरदस्त विज्ञापन करते हैं. स्पा, गोल्फ, डाइनिंग से युक्त लग्जरी छुट्टियां बिताने के लिए कॉर्बेट के उम्दा होटलों में आने का प्रलोभन दिया जाता है. यह भी प्रचार किया जा रहा है कि बाघों की आबादी अब बढ़ रही है, लिहाजा बाघों को देखने का यही सबसे सही समय है. हर साल यहां आने वाले 2,45,000 सैलानी 8.28 करोड़ रु. का राजस्व देते हैं (जिसमें से 7.4 करोड़ तो अकेले गेट की रसीद से आता है). एनटीसीए की इकोनॉमिक वैलुएशन रिपोर्ट के मुताबिक, सैलानियों और वन्यजीव प्रेमियों को सबसे ज्यादा आकर्षित करने के मामले में सभी बाघ अभयारण्यों के बीच कॉर्बेट शीर्ष पर है. इसके लाभ पार्क तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि आगे भी प्रवाहित होते हैः मसलन, जीन-पूल संरक्षण (सालाना 1,065 करोड़ रु.) से लेकर दिल्ली में जलशोधन सेवाओं (सालाना 55 करोड़ रु.) तक और स्थानीय समुदायों के लिए रोजगार सृजन (सालाना 8.2 करोड़ रु.) तक कॉर्बेट का लाभ प्रवाहित होता है.

इसके बावजूद बाघ केंद्रित पर्यटन पर खतरा मंडरा रहा है. अभिलाष भास्कर बताते हैं, “जुलाई 2012 में जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे पर्यटन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था ताकि बाघों को बचाया जा सके, तब संरक्षणविदों ने इसके खिलाफ  दलील दी थी कि इससे वन्यजीवों की तस्करी में इजाफा होगा क्योंकि तब शिकारी निडर होकर खुलेआम घूम सकेंगे कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है.” उन्होंने अदालत से यह भी कहा था कि बाघों की सबसे ज्यादा सघनता उन्हीं रिजर्वों में देखी जाती है जहां सबसे ज्यादा सैलानी आते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2012 में फैसले को नियामित पर्यटन के हक में वापस ले लिया लेकिन अक्सर अधिकतर राज्य इस निर्देश की उपेक्षा करते हैं. वे कहते हैं, “और ज्यादा नियमन की आवश्यकता है. पश्चिम बंगाल और केरल ऐसे दो राज्य हैं जहां असली इलाके पर्यटकों के लिए पूरी तरह बंद रखे गए हैं.”

दिल्ली के इंस्टिट्यूट ऑफ  होटल मैनेजमेंट के छात्रों के 2010 में एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि कॉर्बेट इलाके में मौजूद अधिकतर होटल और रिजॉर्ट बुनियादी मानकों की अनदेखी करते हैं. यहां आए दिन सेमिनार और शादी चलती रहती है. इनमें रात में होने वाली तेज आवाज और रोशनी से वन्यजीवन पर असर पड़ता है. पार्क से लेकर कोसी नदी के बीच 35 किलोमीटर के गलियारे पर होटलों का अतिक्रमण हो चुका है.

आबादी का दबाव
मशहूर शिकारी और संरक्षक जिम कॉर्बेट ने एक बार बाघ को “बड़े दिल वाले और असीमित साहस वाले सज्जन” की संज्ञा दी थी. जंगलों की परिधि पर बसे अधिकतर गांवों में हालांकि अचानक दिखने वाले आवरा बाघ जानोमाल का सवाल खड़ा कर देते हैं. किसी मवेशी का गुम होना भी इंसान को बाघों का दुश्मन बना देता है.

बिजनौर की उस बाघिन को ही याद करें. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के बीच जंगलों में बसे एक गांव में पिछले साल एक दिन अचानक वह दिखी थी जिससे गांव वाले आतंकित हो गए थे. भोर में चार बजे 21 साल के एक युवक के नित्यकर्म के लिए खेतों में जाने और मारे जाने के बाद से ही इस गांव पर आतंक का साया था. सात हफ्तों में दस मौतें हो जाने के बाद गांव में हंगामा मच गया. लोगों ने वन विभाग की चैकी को घेर लिया और कानून अपने हाथ में लेने की धमकी देने लगे. लोगों ने चिल्लाकर कहा, “हमें बंदूक दे दो, बाघिन को हम मार देंगे.”
इसके बाद बाघिन अचानक गायब हो गई. बंदूकधारी लोगों और पैसे के जाल में भी बाघिन नहीं फंस सकी. कोई भी जाल, हाथियों का पता लगाने वाले उपकरण या हवाई ड्रोन तक उसका पता नहीं लगा सके. आखिर बाघिन कहां गायब हो गई? उत्तर प्रदेश के वन अधिकारियों के मुताबिक, वह उत्तराखंड की सीमा में चली गई थी. गांववालों की मानें तो उसके बच्चों और नर साथी को शिकारियों ने अपना निशाना बनाया था जिसकी दुश्मनी निकालने के लिए वह खून की प्यासी हो गई थी और वहीं चली गई थी जहां से आई थी. उसका पता लगाने वाले ट्रैकरों का कहना था कि शायद उसे कोई नया साथी मिल गया होगा और वह उसके साथ निकल गई होगी. संरक्षकों का मानना था कि शायद गांववालों ने बदला लेने के लिए उसे जहर दे दिया होगा.

मुन्नी देवी गुस्से में राकेश कुमार पर चिल्लाती हैं, “गउवां छोड़ा जइयों, अख्तियार है तो मार” यानी मार सकते हो तो मार दो वरना गांव छोड़कर निकल जाओ. राकेश कहते हैं, “जब कभी बाघ दिखता है, ये लोग मेरे ऊपर गुस्सा हो जाते हैं.” आवारा बाघों की खबरों के बीच गांववाले पहले की ही तरह अपने मवेशी चराते रहते हैं और खेती के काम में जुटे रहते हैं. वे कहते हैं, “हर कोई बाघ से नफरत करता है, फिर भी वे उससे दूर नहीं रह सकते.”  

गांव और जंगल का साझा
राष्ट्रीय अभयारण्यों के आसपास रहने वाले लोग अपनी आजीविका के लिए इन्हीं पर निर्भर रहते हैं. यह निर्भरता ज्यादातर जलावन की लकड़ी और चारे के लिए होती है. सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट आदेश है कि राष्ट्रीय अभ्यारण्यों से एक पत्ता भी नहीं निकाला जा सकता है, बावजूद इसके रणथंभौर के ग्रामीण गर्मियों के दौरान अपने मवेशियों को चरने के लिए अभयारण्य में हांक देते हैं. विरोध करने वाले अधिकारियों का नेताओं के दबाव में तबादला हो जाता है. 

स्थानीय नेताओं का मानना है कि जिन इलाकों में पर्यावरणीय मंजूरियों के अभाव में उद्योग नहीं लग पाते, वहां आय के वैकल्पिक स्रोत जरूर होने चाहिए. इसमें हस्तशिल्प जैसे उद्योग हो सकते हैं. लोगों को सिंचाई, सब्सिडीयुक्त एलपीजी और खेतों की बाड़बंदी के लिए भी सुविधा और सहयोग दिए जाने चाहिए.

लॉबियों का खेल
बाघ संरक्षण को अलग-अलग लॉबियां भी मुश्किल बना रही हैं. मसलन, हाल में राजस्थान के रणथंभौर से टी24 के स्थानांतरण ने वन्यजीव प्रेमियों को दो धड़ों में बांट दिया है. टी-24 के समर्थन में फेसबुक पर कई समूह उभर आए हैं, जैसे हेल्प टी24, मिशन टी24, सेव मी टी24, उस्ताद द टाइगर, वगैरह. रणथंभौर में टी24 को वापस लाए जाने के हक में देश भर में लोग कैंडल मार्च निकाल रहे हैं, धरने दे रहे हैं, राष्ट्रपति को अर्जियां दे रहे हैं और प्रदर्शन कर रहे हैं. दूसरी ओर टी24 के स्थानांतरण के फैसले का समर्थन करने वाले लोग ऐसे वीडियो अपलोड कर रहे हैं जिनमें रामपाल सिंह और घीसू सिंह नामक दो वन प्रहरियों के परिजनों के बयान हैं जिन्हें टी24 ने मार दिया था. इनमें धमकी दी गई है कि टी24 लौटा तो प्रदर्शन किए जाएंगे.
बड़ा सवाल यह है कि आखिर राजस्थान सरकार ने टी-24 को स्थानांतरित करने का फैसला इतनी जल्दी में क्यों लिया और क्यों नहीं सेंट्रल जू अथॉरिटी और एनटीसीए से बातचीत करने का रास्ता अपनाया? इसे समझने के लिए हमें रणथंभौर में सक्रिय तमाम धड़ों की पड़ताल करनी होगी. एक लॉबी काफी अभिजात्य है जिसका प्रतिनिधित्व मशहूर बाघ विशेषज्ञ वाल्मीक थापर, राष्ट्रीय अभयारण्य की परिधि पर शेरबाग रिजॉर्ट चलाने वाले उनके भतीजे जैसल सिंह (जिनके परिसर के पिछवाड़े कभी-कभार बाघ दिख जाते हैं), ओबेरॉय समूह का वन्य विलास और अन्य करते हैं. इस समूह को पैसे वाले और अभिजात्य पर्यटकों के काफी करीब माना जाता है और इनकी नेताओं तक पहुंच भी है. मसलन, जैसल सिंह के राहुल और प्रियंका गांधी समेत मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ पारिवारिक रिश्ते हैं. न केवल थापर बल्कि कई स्थानीय और अन्य अहम वन्यजीव विशेषज्ञों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ भी इस लॉबी के करीबी रिश्ते हैं, जिनमें कई के होटल कारोबार के साथ हित जुड़े हैं और विशेषज्ञ गाइड के तौर पर शुल्क लेकर पर्यटकों को घुमाते हैं. 

इस धड़े के खिलाफ रणथंभौर में दूसरा धड़ा होटल मालिकों पर लगातार आरोप लगाता रहता है कि वे मानकों का उल्लंघन कर रहे हैं. वन्य विलास ने जलराशियों को होटलों के काफी करीब बनाया ताकि बाघ और अन्य वन्यजीव वहां पानी पीने आएं तो सैलानी उन्हें देख सकें. राज्य सरकार की ओर से नए होटलों पर निगरानी रखने और नए नियमित क्षेत्रों को खोलने के प्रयास काफी कम हैं.

अलग-अलग धड़े अक्सर भिन्न पक्ष लेते रहे हैं. यह इस पर निर्भर करता है कि वन प्रबंधन के साथ सांठ-गांठ बनाए रखने में उन्हें कैसे सुविधा हो रही है. इनकी आपसी रंजिश से वे पेशेवर वन्यजीव छायाकार तक बच नहीं पाए हैं जो खुद को वन्यजीव प्रेमी कहते हैं.
(-साथ में रोहित परिहार, जयपुर में)


उत्तर प्रदेश के बिजनौर के टाइगर रिजर्व में वन रक्षक

कार्तिक सत्यनारायण
सह-संस्थापक, वाइल्डलाइफ एसओएस

“बाघों का अपने समूचे इलाके में घूमना-फिरना स्वाभाविक है. भोजन की तलाश, इंसानी आवाज, तेज ध्वनि, मवेशियों से बाघ आकर्षित होकर या डरकर इघर-उधर भटक सकते हैं और बाहर भी आ सकते हैं.”

पी.के. सेन, सदस्य, राष्ट्रीय बाघ
संरक्षण प्राधिकरण

“एक बाघ को मारने से पूरी पारिस्थितिकी नष्ट होती है. इसका मतलब यह है कि कई दूसरे प्राणी और पौधों के जीवन पर खतरा मंडराने लगता है. क्या इसकी कोई कीमत लगाई जा सकती है?”

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