
यही कहने को जी करता है कि अनवर साब ने हमसे वादाखिलाफी की. यही कोई डेढ़ महीने पहले उनसे बात हुई थी, पूछने को कि उन्हें साहित्य वार्षिकी मिली या नहीं. वे बताने लगे कि कैंसर की वजह से लंदन में बेटी के इंतकाल के चलते किस तरह उन्हें आनन-फानन भागकर जाना पड़ा था. उनकी आवाज की नमी उनके भीतर की टूटन की खबर दे रही थी. ऐसे ही मौकों पर इनसान की सीमाएं बता देने वाला एक शेर पढक़र फिर उन्होंने ही माहौल को संभाला. संभालने का उन्हें खासा तजर्बा था. लंबे अरसे से देश और दुनिया में अव्वल शायरों वाले मुशायरे का संचालन अमूमन वे ही संभालते आ रहे थे. उसमें मौके और मूड को देखते हुए, किस मिजाज के शायर को कब बुलाना है, इसका उन्हें लंबा अनुभव था. इधर एक अरसे से वे खुद को भी गंभीरता से संभाल रहे थे. एक बार बताया कि ‘‘ज़रा डॉन्न्टर के पास आया हूं. थोड़ी देर बाद आपको मिलाता हूं.’’
लेकिन सेहत कमजोर होने के बावजूद उनकी यात्राएं थमने का नाम नहीं ले रही थीं. गीता का उर्दू में उनका तर्जुमा जून 2014 में छपकर आया था. तब लखनऊ में लालकुआं के धींगरा अपार्टमेंट के उनके क्रलैट में ही उनसे लंबी बातचीत हुई, जिसे हमने साक्षात्कार के रूप में छापा भी. लेकिन डेढ़ दशक बाद इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी आने का संयोग बनने पर हम चाहते थे कि वे अनुवाद के अपने अनुभव पर खुद कुछ लिखें. अगस्त में उनसे इसका आग्रह किया था. उन्होंने साफ कहा कि मुशायरों के सिलसिले में लगातार यात्राओं की वजह से उनके लिए वन्न्त निकाल पाना बड़ा मुश्किल हो रहा है. लेकिन धीरे-धीरे शायद वे मन बनाने लगे थे और अन्न्तूबर में ठीक समय पर उनकी टिप्पणी हमें मिल गई. इस बीच वे अन्न्सर इस बात का जिक्र करते कि गीता ने उन्हें मुशायरों के समानांतर मसरूफियत का एक और मकसद दे दिया है. ‘‘शिवकेश भाई, गीता ने मुझे खासा व्यस्त कर दिया है. पूना में एक आयोजन में गीता पर लेन्न्चर देने जाना है, ऐसा ही एक आयोजन चेन्नै में है. कुरुक्षेत्र में गीता पर एक आयोजन में चीफ गेस्ट हूं. और हरिद्वार में भी एक प्रोग्राम में जाना है.’’ उनको बोलते हुए सुनना इसलिए अच्छा लगता था न्न्योंकि उनके उच्चारण का एक-एक अक्षर चावल की एक-एक शीत की तरह साफ और जैविक होता था. खासकर ऐ और औ की मात्राओं वाले शद्ब्रदों का उनका ठेठ अवधी उच्चारण जैसे अपनी एक मोहर-सी लगाता लगता था. अलिफ-लैलवी जबान के प्रति लगाव का वे अन्न्सर जिक्र करते.
उनकी वादाखिलाफी की बात पर लौटते हैं. फोन पर बातचीत के दौरान यात्राओं में व्यस्तता की चर्चा पर मुझे अचानक कुछ सूझा. मैंने कहा कि ‘‘इतने सालों से बड़े-बड़े शायरों के बीच आप रोज घंटों बैठते-बतियाते हैं, साथ सफर करते हैं, आपके पास मंच और उन यात्राओं से जुड़े अनगिनत मजेदार संस्मरण होंगे, हमारे लिए कभी उन्हें लिखें तो पढऩे लायक दिलचस्प सामग्री हो सकती है.’’ उन्होंने एक हल्का विराम लिया, फिर बोले कि सुझाव तो वाकई अच्छा है. ‘‘मुशायरों से जुड़े तमाम दिलचस्प किस्से हैं, जिनके बारे में लिखा जा सकता है. अब देखिए, कभी फुरसत मिलै तब लिखैं. (ऐ की मात्राओं पर गौर करें)’’ एक और वादा था उनका: तुलसी की रामचरित मानस के उर्दू अनुवाद का. जून 2014 में लखनऊ में उर्दू शायरी में गीता के लोकार्पण के मौके पर रामकथा गायक संत मोरारी बापू ने उनसे कहा था कि गीता को श्लोक से लोक की भाषा में लाकर उन्होंने वेदव्यास का काम तो कर दिया है पर तुलसी का काम अभी बाकी है. इस पर दूसरे दिन पूछने पर अनवर साब ने साफ कहा था कि बापू ने मुझे आगे की ङ्क्षजदगी के लिए एक मकसद दे दिया है. पर बढ़ती उम्र और मुशायरों में व्यस्तता के चलते वह काम वे शुरू नहीं कर पाए. पूछने पर इसका दुख उन्हें होता था लेकिन कहते थे कि काम इतना बड़ा है कि लगता है, कब औ कैसे पूरा होगा! बापू से उनका एक किस्म का गहरा रूहानी रिश्ता था. उनकी कथाओं के दौरान देश और दुनिया भर में कथा मंच पर ही जो मुशायरे आयोजित किए जाते, उनका भी संचालन अन्न्सर वे ही करते थे. 2-3 महीने पहले लंदन में भी वे एक कथा के दौरान मुशायरा करवाकर आए थे. —शिवकेश