
समापन की ओर था सितंबर और पंजाब की एक घटना ने भारतीय सुरक्षा बलों को आनन-फानन बैठक बुलाने को विवश कर दिया. एक गुमनाम शख्स ने फोन से अमृतसर (ग्रामीण) पुलिस को सूचना दी कि जिले के मोहावा गांव के धान के खेत में 'पंखे जैसी मशीन' पड़ी हुई है. एक महीने बाद तरनतारन जिले में एक अन्य ड्रोन की बरामदगी के साथ पंजाब पुलिस ने अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान में मौजूद खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स की हथियारों की घुसपैठ की दुस्साहसिक योजना को रोका था. चार हेक्साकॉप्टर ड्रोन एके-राइफलों, गोला-बारूद, पिस्तौल और नकली मुद्रा सहित करीब 80 किलो हथियार और गोला-बारूद की खेप पहुंचाने के लिए लगातार कई उड़ानें भर चुके थे. प्रत्येक ड्रोन करीब दो-फुट चौड़ा और 4 किलो पेलोड ले जाने में सक्षम था. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने ट्वीट किया, 'अनुच्छेद 370 के प्रावधान हटाने के बाद पाकिस्तान की कुटिल चाल का नया और खतरनाक आयाम.'
इस घटना ने पुलिस, अर्धसैनिक बलों और सेना की चिंता बढ़ा दी. एक बार तो ऐसा लगा कि केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से हजारों करोड़ रुपए खर्च करके पिछले एक दशक से अंतरराष्ट्रीय सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ खड़ी करने की सारी कवायद शायद फिजूल ही साबित न हो जाए, क्योंकि ये बाड़ें केवल घुसपैठियों को शारीरिक रूप से अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने से रोकने के लिए डिजाइन की गई हैं. हवाई घुसपैठ तो एकदम अलग तरह की चुनौती है.
नई दिल्ली स्थित नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक जहां गृह और रक्षा मंत्रालय के दफ्तर हैं, वहां हर कोई यही सवाल पूछ रहा है: आप ऐसे ड्रोन का मुकाबला कैसे करेंगे? किसी यात्री विमान के सामने टेक ऑफ या लैंड करते वक्त, जब विमान को सबसे ज्यादा असुरक्षित और भेद्य माना जाता है, विस्फोटक से भरा कोई ड्रोन उसके रास्ते में आ जाए तो उसे रोकने के लिए क्या किया जाएगा. एक 'केमिकेज' ड्रोन को कुंभ मेले में भीड़ के बीच पहुंचकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाने या फिर किसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक कार्यक्रम में सीधे वीवीआइपी के बैठने वाली जगह पर उड़कर पहुंच जाने से कैसे रोकेंगे?
भारतीय वायु सेना समेत विभिन्न एजेंसियां, मसलन नागरिक उड्डयन मंत्रालय के तहत काम करने वाला ब्यूरो ऑफ सिविल एविएशन ऐंड सिक्योरिटी (बीसीएएस) इस खतरे का समाधान निकालने के लिए जूझ रहे हैं. सरकार मानवरहित-जवाबी हवाई प्रणाली (सी-यूएएस) का फील्ड ट्रायल भी कर रही है. ऐसा ट्रायल बीएसएफ ने पिछले महीने हरियाणा के भोंडसी के अपने कैंप में किया.
ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट और नागरिक उड्डïयन मंत्रालय की टास्क फोर्स ऐसी संवेदनशील प्रतिष्ठानों की पहचान कर रहे है जिन्हें मानव रहित हवाई प्रणाली (सी-यूएएस) सुरक्षा की जरूरत है.
तरनतारन का वाकया ड्रोन मिलने की उन घटनाओं की चरम परिणति थी जो सालभर से दुनियाभर में सुर्खियों में रहीं. करीब एक साल से तरनतारन घटना जैसी आशंकाएं सबसे ज्यादा जताई जा रही थीं. विश्वस्तर पर ऐसे खतरनाक ड्रोन खबरों में रहे हैं. प्रत्येक घटना ने दर्शाया है कि आतंकवादियों के हमले में किस तरह मामूली ड्रोन का इस्तेमाल हुआ.
इसने ड्रोन की एक विनाशकारी क्षमता को भी रेखांकित किया है. पिछले साल अगस्त में वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को तब ड्रोन हमले से मारने की कोशिश की गई जब वे काराकस में एक सैन्य परेड में हिस्सा ले रहे थे. प्लास्टिक विस्फोटकों से लदे दो ड्रोनों में उस स्थान से कुछ ही मीटर दूरी पर विस्फोट हुआ जहां मादुरो भाषण दे रहे थे. इस साल जनवरी में हूती विद्रोहियों ने एक यमन सैन्य परेड पर हमला करने के लिए व्यावसायिक रूप से उपलब्ध क्वाडकॉप्टर का इस्तेमाल किया, जिसमें छह लोग मारे गए थे.
इसमें कोई शक नहीं कि ड्रोन हवाई युद्ध में सबसे बड़े बदलावों में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं. अमेरिका ने सबसे पहले साधारण टोही ड्रोन्स को मिसाइलों से लैस करके उसकी मदद से अफगान-पाक क्षेत्र में तालिबान और अल-कायदा पर हमले करके दुनिया को दिखाया कि इनका इस्तेमाल किलिंग मशीनों की तरह भी किया जा सकता है.
यमन में सऊदी अरब के नेतृत्व वाले गठबंधन से युद्ध कर रहे हूती विद्रोहियों ने विस्फोटकों से भरे ड्रोन का इस्तेमाल करके 14 सितंबर को सुबह सऊदी अरब की दो रिफाइनरियों पर हमला किया. हमले के कारण दुनिया की सबसे बड़ी तेल कंपनी का उत्पादन घट गया. गनीमत है कि प्रिडेटर जैसे फिक्स्ड-विंग ड्रोन जो लंबे समय तक और बहुत तेजी से उड़ान भरते हैं, अभी अराजक तत्वों के हाथ नहीं लगे हैं.
सुरक्षा एजेंसियां सस्ते और निर्मित मिनी-हेलिकॉप्टर जैसे क्वाडकोप्टर और हेक्साकोप्टर-ड्रोन को लेकर चिंतित हैं जो विमानों की तरह लैंड और टेक ऑफ कर सकते हैं और बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं. पंजाब में इन्हीं का इस्तेमाल हुआ है. एक चीनी कंपनी जीपीएस युक्त 'टैरो 680 प्रो' ड्रोन बनाती है और ये व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हैं. इसके निर्माता हवाई फोटोग्राफी उपकरण के रूप में इसके उपयोग का विज्ञापन करते हैं, लेकिन इसकी क्षमताएं इसे दोहरे उपयोग वाले आदर्श वाहन बनाती हैं.
इसका उपयोग विस्फोटक पेलोड ले जाने के लिए आसानी से किया जा सकता है. एक डीजेआइ एम600 मैट्रिस कमर्शियल ड्रोन, टैरो का एक और उन्नत संस्करण है, जिसकी कीमत सिर्फ 5,000 डॉलर (3.5 लाख रुपये) है और यह 6 किमी से अधिक दूरी तक 7 किलो पेलोड लेकर जा सकता है.
इसकी तकनीक बहुत सरल है और इसलिए यह हमलावरों को गुमनाम और दूर से हमला करने में सक्षम बना देती है. स्पेशल फोर्सेज के एक पूर्व अधिकारी कोमोडोर शिव तिवारी कहते हैं, ''अब तक एयरस्पेस का हथियारों के साथ इस्तेमाल सरकारों और सेना का विशेषाधिकार था लेकिन सस्ती प्रौद्योगिकी से बने ड्रोन ये विशेषाधिकार छीन रहे हैं.''
अगस्त में आई फिक्की और अर्नस्ट ऐंड यंग की रिपोर्ट 'काउंटरिंग रोग ड्रोन्स' के खतरों पर प्रकाश डालती है. रिपोर्ट कहती है कि ड्रोन्स को वायरलेस लिंक से नियंत्रित किया जाता है, जिसमें सामान्यत: नियंत्रण 2 किमी से अधिक की दूरी से होता है. यानी 13 वर्ग किलोमीटर- भारतीय शहरी उपनगर से बड़े इलाके—के भीतर कहीं से भी इसे नियंत्रित किया जा सकता. इससे ड्रोन ऑपरेटर को खोज पाना लगभग असंभव हो जाता है.
आइआइटी दिल्ली स्थित स्टार्टअप बोटलैब डायनामिक के सीईओ तन्मय बुनकर कहते हैं, ''ड्रोन छोटे होते हैं जिनका पता लगाना काफी कठिन होता है और ये 20 मीटर प्रति सेकेंड की तीव्र गति से उड़ते हैं. ड्रोन का पता चलने और जवाबी कार्रवाई के लिए आपको बहुत कम समय मिलता है.
लगभग 90 सेकंड या उससे कुछ ज्यादा.'' भारत के नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने पिछले साल पहली ड्रोन नीति की घोषणा की, जिसमें इस उद्योग को विनियमित करने की मांग की गई थी, जिसके बारे में गोल्डमैन सैश का अनुमान था कि यह 2020 तक 100 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा. दिसंबर, 2018 में लागू हुई नीति में सभी ड्रोन को पंजीकृत करने और एक यूनीक आइडेंटीफिकेशन नंबर जारी कराने का निर्देश है. 50 फुट से ऊपर उडऩे वाले सभी ड्रोनों को उड़ाने के लिए परमिट लेना भी जरूरी बनाया गया है. ड्रोन के हवाई अड्डों और संवेदनशील सैन्य क्षेत्रों जैसे नो-फ्लाई जोन में उड़ान भरने पर रोक है.
ड्रोन उड़ाने वालों को मोबाइल ऐप्प में मौजूद 'नो परमिशन, नो टेकऑफ' (एनपीएनटी) नामक प्रणाली के माध्यम से इसे उड़ाने की अनुमति लेनी होगी. यदि अनुमति नहीं दी जाती है, तो एक ड्रोन उड़ान नहीं भर सकता. एक भारतीय ड्रोन वैज्ञानिक का कहना है, ''लेकिन यदि आतंकवादी अगर किसी आतंकी हमले की योजना बना रहा है तो वह पंजीकृत ड्रोन तो कभी नहीं उड़ाएगा और इसलिए एनपीएनटी का कोई मतलब नहीं है.'' फिक्की-ई ऐंड वाइ की रिपोर्ट बताती है कि अगस्त 2018 में ड्रोन नीति की अधिसूचना जारी होने से पहले से ही भारत में सक्रिय करीब 50,000 ड्रोनों के खतरे की ओर इशारा करती है.
भारत में कई एजेंसियां खतरनाक ड्रोनों का मुकाबला करने के तरीकों पर काम कर रही हैं. यह चर्चा जोरों पर है कि भारत इज्राएली वायु रक्षा प्रणाली 'आयरन डोम' के आयात पर विचार कर रहा है, जिसमें शहरों की सुरक्षा के लिए मिसाइलों और राडार नेटवर्क का उपयोग होता है. डीआरडीओ के प्रवक्ता ने कहा, ''मौजूदा खतरे के परिदृश्यों पर विचार करते हुए ड्रोन और एंटी-ड्रोन तकनीक हमारे मुख्य एजेंडे में हैं.'' गोवा पुलिस ने विशेष रूप से भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में रेडियो फ्रीक्वेंसी स्कैनर तकनीक का उपयोग करते हुए खतरनाक ड्रोनों को ट्रैक करने और पहचानने के लिए प्रणाली विकसित और तैनात की है.
फिक्की और ईऐंडवाइ रिपोर्ट कहती है, एक पूर्णत: सी-यूएएस प्रणाली, को ड्रोन की ट्रैकिंग के साथ-साथ उसे रोकने में भी सक्षम होना चाहिए. एक यूएएस का पता लगाना और ट्रैक करना मुश्किल है क्योंकि पारंपरिक रडार तेजी से उडऩे वाले बड़े धातु वाले विमानों का पता लगाने के लिए बनाए गए हैं जबकि ड्रोन में आमतौर पर एक बड़े पक्षी का रडार क्रॉस-सेक्शन होता है. एक यूएएस का पता लगाने के लिए विशेष मिलिट्री-ग्रेड हाइ फ्रीक्वेंसी वाले रडार की आवश्यकता होती है. यूएएस को रोकना और उसे निष्प्रभावी कर देना, केवल 'हार्ड' और 'सॉफ्ट' दोनों ही प्रकार के किल मेजर्स (मार गिराने में इस्तेमाल होने वाले तरीके) के मिश्रण से ही संभव हो सकता है. (बॉक्स देखें)
इनमें से अधिकांश प्रौद्योगिकियां एक खतरनाक ड्रोन के उड़ान पथ के अंतिम चरण यानी अंतिम सौ मीटर के आसपास तैनात की जाती हैं इसलिए रोकने का समय बहुत कम होता है. ऐसे में किसी भी रक्षा प्रणाली के लिए ड्रोन की कमजोरियों को पहचानना और उसे रोक पाने के लिए उपाय करना कठिन हो जाता है.
बुनकर बताते हैं कि स्मार्ट ड्रोन तकनीक और प्रतिरक्षा तकनीक को दोनों में बाधाओं के मुकाबले के लिए प्रभावी जवाब देने की व्यवस्था तेजी से बढ़ रही है. वे कहते हैं, ''वर्तमान में ड्रोन तकनीक में बचाव की लगभग चार परतें हैं, ये बढ़ती रहेंगी. जीपीएस सिग्नल जिसका उपयोग ड्रोन खुद को लक्ष्य तक ले जाने के लिए करता है, अगर जाम हो जाता है तो यह फ्रीक्वेंसी पर स्विच कर सकता है या फिर विजुअल रेफरेंस का उपयोग कर सकता है. आने वाले ड्रोन के सिग्नल जाम करने से ड्रोन को नहीं रोका जा सकेगा अगर वह एक पूर्व-फीड किए गए डेटा कोआर्डिनेट्स से निर्देशित होकर 'साइलेंट' उड़ रहा हो.
प्रौद्योगिकियों के साथ परेशानी यह है कि कोई भी तकनीक हर ड्रोन को रोकने में सक्षम नहीं है. एजेंसियों ने लाखों रुपये खर्च कर जो सुरक्षा सिस्टम आयात किए हैं, उनके उपकरणों में सीमाएं हैं.
दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत कार्यरत एक सुरक्षा बल ने हाल ही में हाई पावर्ड इलेक्ट्रोमैग्नेटिक (एचपीईएम) प्रणाली का आयात किया. एचपीईएम इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स से ड्रोन पर प्रहार करती है जिससे ड्रोन दुर्घटनाग्रस्त होकर गिर जाता है.
सुरक्षा बल ने पाया कि इसको हवाई अड्डों पर तैनात नहीं किया जा सकता क्योंकि एचपीईएम विमानों के लिए भी खतरा बन सकता था.
यदि इसे किसी अन्य भीड़-भाड़ वाले स्थानों में तैनात किया जाता है तो आसपास के अन्य गैजेट्स के सर्किट के जल जाने का जोखिम है.
जो भी मौजूदा सुरक्षा उपाय हैं वे तब बेअसर साबित हो जाएंगे अगर एक साथ कई दिशाओं से ड्रोन्स से हमला हो जाए. जोखिम और डर एक नए स्तर पर पहुंच चुका है जिससे निपटने के लिए अभी कोई ठोस उपाय नहीं है.
—साथ में मनजीत सहगल
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