Advertisement

आरसीईपी समिटः क्या मोदी कर पाएंगे खरा सौदा

एक डर यह है कि आरसीईपी से भारतीय बाजार में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के डेयरी उेत्पादों की बाढ़ आ जाएगी

एएफपी एएफपी
अनिलेश एस. महाजन
  • सिंगापुर ,
  • 05 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 6:25 PM IST

वर्ष 2013 से ही भारत समेत 16 देश एक बड़े व्यापार सौदे को लेकर बातचीत में उलझे हैं. इनमें दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) के 10 सदस्य और इसके छह मुक्त-व्यापार भागीदार—भारत, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रलिया और न्यूजीलैंड—शामिल है. रीजनल कॉम्प्रीप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) नामक यह सौदा सबसे बड़ा आर्थिक गुट बन सकता है जो विश्व के कुल जीडीपी का 39 प्रतिशत होगा.

Advertisement

इस बातचीत की समय-सीमा 4 नवंबर है, जब इसके सभी राष्ट्र प्रमुख आरसीईपी लीडर्स शिखर सम्मेलन के लिए बैठक करेंगे. बैठक का समय एकदम नजदीक आने के बावजूद भारत की स्थिति जटिल बनी हुई है क्योंकि इस सौदे से घरेलू उद्योग पर गंभीर नतीजे हो सकते हैं.

प्रस्तावित आरसीईपी सौदे के वार्ताकार 10 अक्तूबर तक इसके 25 खंडों में से 21 पर राजी हो चुके थे. बाकी चार खंडों—जो निवेश, ई-कॉमर्स, उत्पत्ति के नियमों और व्यापार के निवारण से जुड़े हैं—पर सहमति अभी नहीं बन पाई है. इसमें टैरिफ एक बड़ी बाधा बनी हुई है क्योंकि भारत की मांग है कि संवेदनशील वस्तुओं की ज्यादा बड़ी संख्या को 'ऑटो-ट्रिगर मेकेनिज्म' (जिसमें आयात शुल्क एक सीमा के बाद स्वत: बढ़ जाता है) के योग्य रखा जाना चाहिए.

भारत गणना के लिए 2019 को आधार वर्ष बनाने और आरसीईपी सदस्यों के साथ अलग-अलग शुल्क दरों को हटाने की भी मांग कर रहा है. आरसीईपी के ज्यादातर सदस्यों का कहना है कि शुल्क एक बार कम हो जाने के बाद उन्हें दोबारा नहीं बढ़ाया जाना चाहिए. उनका यह भी कहना है कि गणना के लिए आधार वर्ष 2013 होना चाहिए (क्योंकि बातचीत उसी समय से शुरू हुई थी), सभी देशों में दरें लगभग एक समान होनी चाहिए, और 'ऑटो-प्रोटेक्ट' व्यवस्था का इस्तेमाल किसी विशेष परिस्थिति में ही होना चाहिए.

Advertisement

भारत की चिंता अपने घरेलू उद्योग को लेकर है. भारत पहले ही इस क्षेत्र में निर्यात के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा आयातक है. सस्ते आयात के कारण घरेलू उद्योग पहले से ही मार झेल रहा है, ऐसे में बहुतों को डर है कि मुक्त व्यापार समझौता—जिससे आयात शुल्क लगभग शून्य हो जाएगा—से भारत विदेशी सामान की 'डंपिंग' का केंद्र बन जाएगा और यहां विदेशी वस्तुओं की बाढ़ आ जाएगी. व्यापार अर्थशास्त्री और जेएनयू में प्रोफेसर विश्वजीत धर चेतावनी देते हैं, ''उत्पादों (जिनका व्यापार इन 16 देशों के बीच हो रहा है) का 40 प्रतिशत चीन पहले ही भारत में डंप कर रहा है. आरसीईपी के बाद यह डंपिंग और बढ़ सकती है.'' दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में डब्ल्यूटीओ स्टडीज के प्रमुख अभिजीत दास बताते हैं कि ऐसे उत्पादों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनकी कीमतों को लेकर भारत प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है. इसलिए शून्य-शुल्क के नियमों को लेकर बातचीत करना आसान नहीं होगा. वे कहते हैं, ''यह हमारे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है.''

मिसाल के लिए, एक डर यह है कि आरसीईपी से भारतीय बाजार में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के डेयरी उत्पादों की बाढ़ आ जाएगी. पशुपालन, डेयरी उद्योग और मछलीपालन मंत्री गिरिराज सिंह और उनके सहायक संजीव बालयान सौदे के सख्त खिलाफ हैं. उन्होंने वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल से डेयरी सेक्टर को इससे बाहर रखने कहा है. यही नहीं, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी, इस्पात मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और खदान एवं खनिज मंत्री प्रह्लाद पटेल ने या तो इस सौदे का विरोध किया है या फिर किसानों और घरेलू उद्योग के लिए ज्यादा संरक्षण दिए जाने की मांग की है.

Advertisement

भाजपा और संघ परिवार के कई लोग आरसीईपी सौदे को लेकर सशंकित हैं. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं, ''अपने मतदाताओं को आरसीईपी सौदे को लेकर समझाना हमारे लिए बहुत कठिन होगा, खासकर जब अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी के असर से अब तक जूझ रही है.'' यही वजह है कि आरएसएस से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ और भारतीय मजदूर संघ इस सौदे के पूरे विरोध में हैं. कांग्रेस के नेताओं ने भी 25 अक्तूबर को सोनिया गांधी के निवास पर उनसे मुलाकात की और इस सौदे के खिलाफ आरएसएस की तरह इसका विरोध करने का फैसला लिया है.

फिलहाल भारत इस बातचीत पर बहुत धीरे-धीरे बढऩा चाहता है. पीएमओ ने अभी तक प्रधानमंत्री की यात्रा की घोषणा नहीं की है. प्रधानमंत्री मोदी 21 नवंबर के निर्धारित दिन पर दस्तखत करने से पहले लंबित मुद्दों को सुलझाने के लिए अन्य राष्ट्र प्रमुखों से मुलाकात कर सकते हैं. इस बीच 2-3 नवंबर को वाणिज्य मंत्री गोयल संबंधित वार्ताकारों के साथ बातचीत में हिस्सा ले सकते हैं ताकि बचे हुए जटिल मुद्दों पर कोई आम सहमति बनाई जा सके.

***

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement